सत्यार्थ  प्रकाश  :  संक्षिप्त  परिचय

satyarth prakashमहर्षि दयानंद सरस्वती ( 1825 – 1883 ई.) कृत : सत्यार्थ  प्रकाश  :  संक्षिप्त  परिचय

डा. रवीन्द्र अग्निहोत्री ,

 

महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती का प्रसिद्ध ग्रंथ “ सत्यार्थ प्रकाश “ हमें हमारी स्वस्थ परम्पराओं से परिचित कराने वाला, अंधविश्वासों से मुक्त कराने वाला, ज्ञान चक्षु खोलने वाला, हमारी सोई हुई चेतना को जगाने वाला और केवल हमारे धर्म की ही नहीं, अपितु विश्व के सभी प्रमुख धर्मों की जानकारी देने वाला, मानव धर्म का स्वरूप प्रस्तुत करने वाला वास्तविक अर्थों में एक अद्वितीय ग्रंथ है । आपकी धार्मिक मान्यताएं जो भी हों, मेरा अनुरोध है कि एक बार इसे अवश्य पढ़ें, और फिर “ अप्प दीपो भव “ अपना रास्ता स्वयं निर्धारित करें ।

 

इस ग्रंथ की रचना अब से लगभग डेढ़ सौ वर्ष पूर्व (1875 ई. में) हुई थी । इसने तत्कालीन समाज में वैचारिक क्रांति उत्पन्न कर दी जिससे (1)  वेद और वैदिक साहित्य के महत्व को पहचानने, (2) अपने गौरवशाली अतीत को जानने, (3) संस्कारवान – आचारवान बनने, (4) धार्मिक अंधविश्वासों से मुक्त होने, (5) सामाजिक कुरीतियों को दूर करने, (6) विभिन्न संप्रदायों (जिन्हें सामान्य व्यक्ति धर्म कहता है) के प्रति  जिज्ञासु बनकर उन्हें ठीक से जानने, उनकी अच्छी बातों को स्वीकार करने एवं अज्ञान / अंधविश्वास पर आधारित बातों को त्यागने, (7) विदेशियों की उपयोगी खोजों को सीखने, (8) स्वभाषा – स्वदेशी वस्तुओं को अपनाने और (9) पराधीनता से मुक्त होने की प्रेरणा मिली । इनमें से केवल एक ही काम (विदेशी शासन से मुक्ति) पूरा हो सका है, शेष काम अभी भी अधूरे हैं क्योंकि उनकी जड़ें बहुत गहरी हैं। अतः उनके लिए अभी भी गंभीर प्रयास करने की आवश्यकता है । इस दृष्टि से यह ग्रंथ आज भी उपयोगी है, प्रासंगिक है क्योंकि इस कालजयी ग्रंथ में  हमारी मानसिकता को अनुकूल दिशा में प्रेरित करने की संभावनाएं हैं ।

 

तत्कालीन भारत

पिछले लगभग एक हजार वर्षों से विदेशियों के चंगुल में फंसे इस देश में 19 वीं शताब्दी में कई महत्वपूर्ण घटनाएं घटीं। इसी शताब्दी में मैकाले का वह नीतिपत्र (1835 ई.) लागू हुआ जिसने शिक्षा का उद्देश्य और स्वरूप ही बदल दिया । विश्व भर में शिक्षा का उद्देश्य होता है व्यक्ति का शारीरिक – मानसिक – बौद्धिक – चारित्रिक आदि विकास करके उसे स्वावलंबी बनाना, पर मैकाले ने उद्देश्य बना दिया विदेशी शासन को चलाने वाले क्लर्क तैयार करना अर्थात नौकरी के लिए शिक्षा प्राप्त करना ; पूरे विश्व में शिक्षा अपनी भाषा में दी जाती है, पर हमारे यहाँ माध्यम हो गया एक विदेशी भाषा अंग्रेजी ; सर्वत्र शिक्षा की विषयवस्तु में प्रमुखता होती है ज्ञान-विज्ञान संबंधी अपनी उपलब्धियों की, पर हमारे यहाँ विषयवस्तु हो गई यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान, जिसके साथ अनिवार्य रूप से जोड़ दिया भारतीय ज्ञान-विज्ञान का उपहास। जिन कारणों से यह देश विदेशियों के जाल में फंसा, उनके लिए दूषित राजनीति के साथ-साथ हमारी विभिन्न सामाजिक, धार्मिक, और सांस्कृतिक कुरीतियाँ भी जिम्मेदार थीं। इन कुरीतियों से मुक्त करने के अनेक प्रयास इसी शताब्दी में राजा राममोहन रॉय, द्वारकानाथ टैगोर, देवेन्द्रनाथ टैगोर, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, केशवचन्द्र सेन, स्वामी दयानंद सरस्वती, डा. आत्माराम पांडुरंग, स्वामी विवेकानंद जैसे अनेक महापुरुषों ने किए जिसके फलस्वरूप भारतीय समाज में धार्मिक और सांस्कृतिक हलचल पैदा हुई । इन प्रयासों से एक ओर अनेक लोगों को सुधार की प्रेरणा मिली, तो दूसरी ओर किन्हीं लोगों के मन में लंबे समय से चली आ रही परम्पराओं से चिपटे रहने का मोह भी जागा (जो उक्त महापुरुषों के विचारों का प्रचार कम हो जाने के कारण अब बढ़ता ही जा रहा है) ।

 

 

महर्षि दयानंद की विशेषता :

इन महापुरुषों में महर्षि दयानंद सरस्वती का विभिन्न कारणों से प्रमुख और महत्वपूर्ण स्थान है। उनका बाह्य व्यक्तित्व जहाँ विशेष आकर्षित करने वाला था (सवा छह फुट से अधिक लंबा कद, गोरा रंग, ब्रह्मचर्य एवं योगाभ्यास के परिपुष्ट बलिष्ठ शरीर, विलक्षण मेधाशक्ति, ओजस्वी वाणी), वहीँ विशाल वैदिक वाङ्मय के गहन ज्ञान से सम्पन्न, चिंतनशील, तर्कशील, बहु – आयामी और दूरदर्शिता से भरा हुआ निर्भीक आतंरिक व्यक्तित्व विस्मित करने वाला था । संस्कृत के प्रकांड विद्वान होते हुए भी वे उस कूपमंडूकता से कोसों दूर थे जो प्रायः संस्कृत वालों की पहचान मानी जाती है । उस युग के अन्य नेता जहाँ केवल धार्मिक और सामाजिक समस्याओं के समाधान तक, और उसमें भी केवल अपने धर्म तक, सीमित रहे, वहां महर्षि दयानंद ने धार्मिक और सामाजिक के साथ ही दार्शनिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं अन्य सांस्कृतिक समस्याओं का भी हल खोजने का प्रयास किया और एक वैज्ञानिक की भांति सभी धर्मों के अंधविश्वासों एवं तर्कहीन मान्यताओं को दूर करने की प्रेरणा दी। उस युग के अन्य नेताओं के सन्दर्भ में उनकी कतिपय विशेषताएं हमारा ध्यान विशेष रूप से आकर्षित करती हैं :

 

( 1 ) उस युग के अन्य किसी भी नेता ने  ” स्वराज्य ” की बात नहीं की,  पर दयानंद ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि जो स्वदेशीय राज्य होता है वही सर्वोपरि उत्तम होता है। प्रजा पर माता – पिता के समान कृपा, न्याय और दया करने पर भी विदेशी राज्य कभी पूर्ण सुखदायी नहीं हो सकता ।

 

( 2 )  वे तत्कालीन भारत के सबसे पहले व्यक्ति थे जिसने राजा के “ चुनाव “ की बात करके राजनीति में जनतांत्रिक व्यवस्था स्थापित करने पर बल दिया । आज लोग इसे यूरोपीय देशों की देन मानने लगे हैं, पर स्वामी जी ने इसे ऋग्वेद में बताई “ सभा “ एवं “ समिति “ के आधार पर वैदिक परम्परा सिद्ध करके वेदों की प्रतिष्ठा बढ़ाई ।

 

( 3)   उन्होंने अर्थ व्यवस्था की ओर भी ध्यान दिया, किसान को “ राजाओं का राजा “ कहा और कर – प्रणाली (Tax  System ) ठीक करने तथा  भारतीय अर्थ व्यवस्था की रीढ़ कृषि एवं गोपालन की व्यवस्था सुधारने के साथ ही  कुटीर उद्योगों का विकास करने एवं पश्चिमी देशों में विकसित प्रौद्योगिकी का अध्ययन करने की  उपयोगिता बताई । हम लोग महात्मा गाँधी के नमक आन्दोलन (1930 ई.) से तो परिचित हैं,पर यह नहीं जानते कि इससे लगभग छह दशक पहले ही महर्षि दयानंद ने नमक पर कर लगाने और वनों से प्राप्त होने वाले ईंधन पर कर लगाने के लिए अँगरेज़ सरकार की कटु आलोचना करके इस आंदोलन की नींव रख दी थी । साथ ही उन्होंने स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करने की प्रेरणा दी ।

 

( 4 )  उन्होंने  हिंदी के राष्ट्रीय महत्व की ओर तब ध्यान दिया जब  हिंदू पंडित  उसे  तिरस्कारपूर्वक “ भाखा “ कहते थे । मूलतः गुजराती भाषी, और अपने अध्ययन एवं व्यवहार की भाषा संस्कृत होते हुए भी उन्होंने हिंदी को अपने कामकाज की भाषा बनाया। अपने ग्रंथ हिंदी ही में लिखे और हिंदी का प्रचार करना अपना लक्ष्य बनाया ।

 

( 5 )  हिन्दू समाज के सामाजिक, धार्मिक आदि  विभिन्न प्रकार के सुधारों के लिए जहाँ अन्य नेता ईसाई धर्म और पश्चिमी समाज की नक़ल कर रहे थे, या केवल तर्क का सहारा लेकर प्रचलित  परम्पराओं की निंदा कर रहे थे,  वहीँ स्वामी दयानंद ने मानव  धर्म के मूल आधार  वेदों का सहारा लेकर सामाजिक और धार्मिक सुधार का पथ प्रशस्त किया । इस प्रकार उन्होंने वेदों की और प्राचीन भारत की महिमा उजागर की ।

 

(6)  जिन वेदों को लोग गए – गुजरे ज़माने की चीज़ समझने लगे थे, गड़रियों के गीत कहने लगे थे, और हिंदू पंडितों ने जिन्हें धार्मिक कर्मकांड तक सीमित कर दिया था, उन्हें स्वामी जी ने “ ज्ञान – विज्ञान का कोष “ बताकर आधुनिक युग के लिए भी उनकी आवश्यकता सिद्ध की । इस प्रकार वेदों की महिमा बढ़ी और लोगों को उनके अध्ययन की प्रेरणा मिली ।

 

( 7 )  देश के हज़ारों वर्ष के इतिहास में वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने वेदों का अनुवाद सामान्य जन की भाषा हिंदी में किया ।

 

( 8 )   उस युग के अन्य सुधारकों ने जहाँ नए  सम्प्रदाय बनाए, वहां महर्षि दयानंद ने कोई नया सम्प्रदाय नहीं बनाया । उन्होंने मानव संस्कृति के मूल आधार ग्रन्थ वेदों में जो कुछ कहा गया है उनमें से उन बातों को स्पष्ट करने का प्रयास किया जिन्हें वेदों के पठन – पाठन की परम्परा नष्ट हो जाने के कारण लोग भूलते चले गए, अज्ञानता के गर्त में गिरते चले गए, कूपमंडूक बनते चले गए, और फिर विभिन्न प्रकार के अंधविश्वासों से घिरते चले गए। स्वामी जी ने  बार – बार कहा है कि मेरा प्रयोजन कोई नवीन मत चलाने का नहीं है, बल्कि आदि – सृष्टि से लेकर ब्रह्मा, जैमिनि पर्यंत ऋषिगण जो मानते आए हैं, उपदेश देते आए हैं, उसे ही बताना, जो सत्य है उसे मानना – मनवाना और जो असत्य है उसको छोड़ना – छुड़वाना मुझे अभीष्ट है।

 

 

सत्यार्थप्रकाश :

उनके जिन विचारों के कारण समाज में विभिन्न स्तरों पर चेतना आई उनमें से अधिकांश  का परिचय उनके अमर ग्रन्थ ” सत्यार्थप्रकाश ” से प्राप्त किया जा सकता है। यह एकमात्र ऐसा ग्रंथ है जिससे  वैदिक धर्म के साथ ही तत्कालीन भारत में प्रचलित लगभग सभी मत-मतान्तरों का भी परिचय मिल जाता है । इसीलिए इसे धर्मों का विश्वकोश कहा जाता है. । ग्रंथ काफी बड़ा है। उसमें  बड़े आकार के लगभग 600  पृष्ठ हैं। स्वामी जी के एक प्रशंसक  राजा जयकृष्ण दास  डिप्टी कलक्टर थे  जो अलीगढ़, वाराणसी, बिजनौर, मुरादाबाद आदि स्थानों पर रहे। उन्हें ब्रिटिश सरकार से C I E  की उपाधि भी मिली थी। उन्होंने ही स्वामी जी से यह ग्रन्थ लिखने का अनुरोध किया और  पुस्तक के मुद्रण एवं प्रकाशन की जिम्मेदारी स्वयं उठाने का निश्चय किया । इतना ही नहीं, उन्होंने पुस्तक लिखने में स्वामी जी  की सहायता करने के लिए पंडित चन्द्रशेखर नामक एक महाराष्ट्रीय व्यक्ति को  नियुक्त कर दिया । स्वामी दयानंद ने यह ग्रन्थ बोल-बोल  कर लगभग तीन महीने में  लिखाया।  किसी पुस्तकालय की सुविधा के बिना केवल स्मृति के आधार पर बोल- बोल कर लिखाई पुस्तक में वेदों, ब्राह्मण  ग्रंथों,  उपनिषदों, स्मृतियों , विभिन्न दर्शन ग्रंथों, सूत्रों, महाभारत आदि 377  ग्रंथों के सन्दर्भ और 1542  वेदमंत्रों / श्लोकों के उद्धरण देख कर स्वामी जी की असाधारण  स्मरण शक्ति पर आश्चर्य होता है। इसे 1875 ई. में राजा जयकृष्ण दास ने ही प्रकाशित कराया। यह पहला ग्रंथ है जिसमें दार्शनिक विषय भी हिंदी में समझाए गए हैं ।  पुस्तक की लोकप्रियता निरंतर बढ़ती गई और न केवल विभिन्न भारतीय भाषाओं में, बल्कि अंग्रेजी, फ्रांसीसी, चीनी, जापानी, अरबी, बर्मी, स्वाहिली आदि विश्व की प्रमुख भाषाओँ में भी इसके  अनुवाद हुए । स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने इसे ऐसा ग्रंथ बताया जिसकी विद्यमानता में कोई विधर्मी हमें बहका नहीं सकता, तो प्रसिद्ध लेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने इसे गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरित मानस के पश्चात हिंदी का सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रंथ बताया ।

पुस्तक  में  दो भाग  हैं – पूर्वार्ध और उत्तरार्ध। पूर्वार्ध में दस अध्याय हैं और उत्तरार्ध में चार। इस प्रकार  कुल 14  अध्याय हैं  जिन्हें ‘ समुल्लास ‘ कहा   है।  पुस्तक के अंत में  ‘ स्व मन्तव्यामन्तव्य प्रकाश ” ( मैं कौन सी बातें मानता हूँ, और कौन सी नहीं  ) शीर्षक से स्वामी जी ने धर्म से संबंधित 51 ऐसे  विषयों की वैदिक मान्यताओं के आधार पर  बहुत संक्षेप में व्याख्या की है जिनके बारे में समाज में बहुत भ्रम फैला हुआ है ;  जैसे,  ईश्वर, सगुण – निर्गुण स्तुति , वेद,  तीर्थ,  मुक्ति,  मुक्ति के साधन, प्रारब्ध (भाग्य ), पुरुषार्थ , गुरु,  स्वर्ग,  नरक, प्रार्थना,  उपासना,  आदि। इसे हम इस पुस्तक का परिशिष्ट भी कह सकते हैं, और पूरी पुस्तक का सारांश भी। इसे यदि ठीक से समझ लिया जाए तो  महर्षि के मन्तव्य को भी ठीक से समझा जा सकता है।

पूर्वार्ध के दस अध्यायों में मानव जीवन का निर्माण करने वाली वैदिक विचारधारा , आश्रम व्यवस्था (अर्थात ब्रह्मचर्य – गृहस्थ – वानप्रस्थ – संन्यास की व्यवस्था), शिक्षा – दीक्षा, राजनीतिक व्यवस्था, दार्शनिक मान्यताओं, साधना पद्धति, भक्ष्य – अभक्ष्य आदि की  विवेचना की गई है जो किसी विशेष “ पन्थ “ के अनुयायियों के लिए नहीं, मानव मात्र के स्वीकार करने और आचरण करने योग्य हैं। उत्तरार्ध के चार अध्यायों में भारतवर्ष में प्रचलित विभिन्न सम्प्रदायों,  मत-मतान्तरों आदि की ऐसी  मान्यताओं की समीक्षा की गई है जिनके  कारण  समाज में  अन्धविश्वास,  आलस्य और अज्ञान फैला है। स्वामी जी ने यह समीक्षा पूरी सदाशयता के साथ इस प्रकार की है जिससे अन्धविश्वास दूर करने की  सामान्य जन को भी प्रेरणा मिले। उनके जीवनकाल में विभिन्न मतावलंबी उनकी सदाशयता से कितने  प्रभावित हुए इसका एक उदाहरण है देश की पहली आर्यसमाज की स्थापना जो मुंबई में एक पारसी सज्जन डा माणेक जी अदेरजी की कोठी में हुई , जिसके प्रधान और मंत्री जैन परिवार के युवक (क्रमशः गिरधरलाल दयालदास कोठारी और पानाचंद आनंदजी पारेख) बने, और जब इस भवन का विस्तार करने का निश्चय किया गया तो सर्वाधिक दान (पांच हजार रु.) एक मुस्लिम व्यापारी (सेठ हाजी अलारखिया रहमतुल्ला सोनावाला) ने दिया । जिन लोगों ने किसी भी कारण से अभी तक यह ग्रंथ नहीं पढ़ा है, उनकी सुविधा के लिए इसके प्रत्येक समुल्लास का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत है ।

समुल्लासों का परिचय

1.0  भारतीय समाज का सबसे बड़ा अंधविश्वास “बहु-देवतावाद“ है ।  अतः स्वामी जी ने   पहले ही समुल्लास में यह स्पष्ट किया है कि ,

1.1  ईश्वर एक है, और उसका सर्वोत्तम एवं सबसे अधिक प्रसिद्ध नाम ” ओ३म् ” है क्योंकि  इस एक शब्द से  उसकी अनेक शक्तियों का एक  साथ पता चल जाता है।

1.2  वेदों में तथा अन्य वैदिक साहित्य में उसी एक परमात्मा के लिए  अग्नि, इन्द्र,  मित्र, वरुण, शिव आदि अनेक नामों का प्रयोग किया गया है। इन शब्दों के आम बोलचाल में  दूसरे अर्थ भी होते हैं। अतः प्रसंग के अनुसार इनका अर्थ समझना चाहिए । जैसे, ” अग्नि ” शब्द का प्रयोग  जब  स्तुति, प्रार्थना, उपासना के  प्रसंग में किया जाता है, तब इसका   अर्थ ” परमात्मा ” होता है , पर जब भौतिक पदार्थ के प्रसंग में किया जाता है, तब इसका अर्थ “आग ” होता है।

1.3  हम सब जानते हैं कि परमात्मा के गुण और काम  असंख्य हैं, इसीलिए उसके नाम भी असंख्य हैं। इन असंख्य नामों में से  एक सौ नामों की स्वामी जी ने व्युत्पत्ति (etymology )  बताकर और वेद एवं अन्य वैदिक साहित्य  से प्रमाण देकर यह स्पष्ट किया है कि (प्राण, अक्षर, पृथ्वी, अन्न, जल,  आकाश,  वायु , नारायण, मंगल,  शुक्र , ब्रह्मा, गणेश, महादेव, शक्ति, लक्ष्मी, शिव, ज्ञान, निराकार, यम, धर्मराज जैसे) विभिन्न शब्दों का अर्थ वही एक परमात्मा किस प्रकार है।  शब्द संस्कृत के हैं, अतः उनकी व्युत्पत्ति बताने  के लिए संस्कृत की धातुओं, प्रत्ययों, उपसर्गों , रूपों आदि व्याकरण की बातों  का उपयोग किया गया है । इसके अतिरिक्त यह विषय भी दार्शनिक है । इसलिए संस्कृत न जानने वाले लोगों के लिए भाषा और विषय दोनों ही दृष्टियों से यह अध्याय थोड़ा कठिन अवश्य  है,  पर एक ही परमात्मा के अनेक नाम क्यों हैं, यह समझने  के लिए इस अध्याय का विशेष महत्व है।

इसके बाद स्वामी जी ने आगामी चार समुल्लासों में मानव जीवन की योजना पर विचार किया है ।

2.0   दूसरे समुल्लास में बच्चों की शिक्षा और इस सम्बन्ध में माता, पिता एवं अध्यापक के कर्तव्यों की चर्चा की है ।

2.1   स्वामी जी ने बच्चों की शिक्षा का प्रारम्भ गर्भाधान से ही बताया  है। अतः आवश्यक है कि   माता – पिता गर्भाधान से पूर्व ही अपने भोजन, दिनचर्या, विचारों आदि को सात्विक बनाएं,  गर्भावस्था के दौरान गर्भस्थ शिशु और माँ दोनों की शारीरिक – मानसिक स्थिति का ध्यान रखें,  जन्म हो जाने पर उन सभी बातों का ध्यान रखें जो स्वास्थ्य रक्षा और आयुर्वेद (अर्थात चिकित्सा विज्ञान)  की दृष्टि से आवश्यक हों।

2.2   जब बच्चा बोलना शुरू करे तो स्पष्ट उच्चारण की शिक्षा  पर ध्यान दें ।

2.3  फिर ठीक से भोजन  करने, आचार, व्यवहार , नित्य प्रति के  कर्तव्य   पालन  आदि की शिक्षा दें ।

2.4   स्वामी जी ने समझाया है कि   भूत – प्रेत आदि की कपोलकल्पित बातों से बच्चों के कोमल मन  दूषित नहीं करने चाहिए ।

2.5  जन्मपत्री, फलादेश, भविष्य कथन, शकुन विचार जैसे पाखंडों की निस्सारता स्पष्ट करते हुए उन्होंने मारण, मोहन,  उच्चाटन ,  वशीकरण मन्त्र – यंत्र – तंत्र आदि  अंधविश्वासों के प्रति भी सावधान किया है।

2.6  बच्चों को अच्छे संस्कार देने , शिष्टाचार की शिक्षा देने,  सुभाषित – सूक्तियां याद कराने में उन्होंने   माता – पिता और गुरु की भूमिका पर विशेष बल दिया है। साथ ही, उन्होंने वैदिक परम्परा के अनुरूप बच्चों को  ‘ विवेकशील ‘  बनाने पर बल दिया है ताकि  अच्छे – बुरे का निर्णय वे स्वयं कर सकें ( इस दृष्टि से स्वामी जी ने एक पृथक पुस्तक ‘ व्यवहारभानु ‘ नाम से भी लिखी है ) । वैदिक शिक्षा में बल मतारोपण (indoctrination) पर नहीं, बल्कि मेधावी बुद्धि विवेक विकसित करने पर दिया जाता है । इसीलिए गुरु यहाँ तक कहता है कि, ” यान्यस्माकं सुचरितानि तानि त्वयोपास्यानि नो इतराणि ” ( तैत्तिरीय उपनिषद , 1/ 11 ) अर्थात जो हमारे अच्छे धर्मयुक्त कर्म हैं, उन्हें ही ग्रहण करना ; यदि कोई दुष्ट कर्म हो तो उसे मत अपनाना । माता –पिता के लिए आवश्यक है कि बच्चों के सामने शुरू ही से  परमात्मा के सही स्वरूप की चर्चा करें और उसी की उपासना करें । मद्य  – मांस आदि के सेवन से दूर रहें।  उन्होंने माता – पिता का कर्तव्य कर्म और परम धर्म यही बताया  है कि संतान को तन – मन – धन से विद्या,  धर्म,  सभ्यता और उत्तम शिक्षायुक्त बनाएं।

3.0   तीसरे  समुल्लास में शिक्षा की व्यवस्था, शास्त्रों के अध्ययन की विधि  आदि पर विचार किया है और प्रत्येक  कार्य के  लाभों का तार्किक ढंग से विश्लेषण किया है । स्वामी जी ने बताया है कि,

3.1  लड़के – लड़कियों की शिक्षा व्यवस्था अलग – अलग  होनी  चाहिए ।

3.2   शिक्षा सबके लिए अनिवार्य होनी चाहिए और एक समान होनी चाहिए ।

3.3  विद्यालय में  धन या अन्य किसी आधार पर कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए,   सबके साथ एक सा व्यवहार होना चाहिए ।

3.4  बच्चों को सबसे पहले गायत्री मंत्र अर्थ सहित याद कराएँ जिसमें कहा गया है कि परमात्मा हमारी बुद्धि को शुभ कर्मों में प्रेरित करे ।  फिर संध्या करना ( जिसमें प्राणायाम करना भी शामिल है ), अग्निहोत्र ( हवन ) करना आदि सिखाएं ।  ब्रह्मचर्य का पालन करना सिखाएं। महर्षि पतंजलि के बताए अष्टांग योग के यम (  अहिंसा,  सत्य, अस्तेय,  ब्रह्मचर्य , अपरिग्रह ) और  नियम  ( शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान ) का अभ्यास कराएँ ।

3.5  सत्य – असत्य के निर्णय के लिए गौतम  ऋषि के  न्याय दर्शन एवं अन्य दर्शनों में  बताए  प्रमाणों ( प्रत्यक्ष, अनुमान,  उपमान , शब्द,  ऐतिह्य , अर्थापत्ति , संभव,  अभाव ) का सहारा लेने का अभ्यास कराएं ।

3.6   स्वाध्याय की  आदत डालें ।

3.7 शिक्षा सभी विषयों की ( ज्ञान, विज्ञान, आयुर्वेद, स्थापत्य, दर्शन,  विभिन्न कलाओं – कौशलों आदि की ) होनी चाहिए, केवल कुछ विषयों की नहीं । यह तभी  संभव  है जब ” ऋषियों ”  के बनाए ग्रंथों से अध्ययन किया जाए क्योंकि ये ग्रन्थ इस प्रकार लिखे गए हैं कि कम समय में अधिकतम लाभ मिल सके । स्वामी जी ने अनेक विषयों के कतिपय ग्रंथों के नाम भी बताए हैं ।

3.8 कुछ लोगों ने वेदों के अध्ययन के अधिकार से स्त्रियों और शूद्रों को वंचित कर रखा है, उसका विरोध करते हुए स्वामी जी ने प्रमाण देते हुए बताया है कि सदा से वेद सभी लोगों के लिए रहे हैं और उनका अध्ययन करने का अधिकार सबका है ।

4.0   चौथे समुल्लास में गृहस्थ आश्रम के दायित्वों पर विचार किया गया है ।

4.1  स्वामी जी ने इस आश्रम को सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना है ।

4.2  बाल विवाह,  अनमेल विवाह , वर – वधू  की रुचि के विपरीत विवाह आदि का निषेध करते हुए उन्होंने विवाह के लिए गुण – शील – रूप – आयु आदि की समानता  पर बल दिया है । इसे वे इतना महत्वपूर्ण  मानते हैं कि कहा है, चाहे लड़के – लड़की जन्म भर कुंवारे रहें,   पर असमान  गुण – शील – स्वभाव वालों का विवाह कभी नहीं होना चाहिए ।  साथ ही उन्होंने विवाह के सम्बन्ध में  माता – पिता से अधिक महत्व लड़के – लड़की की इच्छा एवं सहमति को  देते हुए देश की प्राचीन ” स्वयंवर ” प्रथा का समर्थन किया है ।

4.3  विवाह के संबंध में हमारे समाज में “ जाति “ को विशेष महत्व दिया जाता है, पर स्वामी जी ने मध्य युग में विकसित हुई इस ” जन्मना जाति प्रथा ” का विरोध किया है और अपने देश की प्राचीन गुण – कर्म – स्वभाव वाली वर्ण व्यवस्था का समर्थन किया है । इस वर्ण व्यवस्था में ही यह संभव है कि जन्म देने वाले माता – पिता का वर्ण और संतान का वर्ण  अलग – अलग हो ।  विभिन्न वर्णों के  गुण- कर्मों की चर्चा  करते  हुए स्पष्ट किया है कि  जिसे  ” द्विजत्व ” कहते हैं वह विशिष्ट ” संस्कारों ” अर्थात गुणों से आता है, किसी परिवार में जन्म लेने से नहीं (ब्राह्मण,  क्षत्रिय और  वैश्य वर्ण को ” द्विज ” भी कहते हैं, और जिन गुणों के कारण  इन्हें  ‘ द्विज ‘  माना जाता है उन्हें द्विजत्व कहते हैं ) ।

4.4   संतान का पालन – पोषण करना गृहस्थ का प्रथम कर्तव्य है । इसके लिए समय – समय  पर विभिन्न औपचारिक संस्कार भी करने चाहिए क्योंकि ये संस्कार बच्चे को और माता –पिता को अपने दायित्वों की याद दिलाते हैं और उन्हें पूरा करने की प्रेरणा देते हैं ।

4.5  बच्चों को सुशिक्षा देनी चाहिए । इसके लिए परिवार में सुख शान्ति का वातावरण होना चाहिए । यह  तभी संभव है जब  पति-पत्नी एक दूसरे से संतुष्ट हों और स्त्रियों का परिवार एवं समाज में भरपूर सम्मान हो ।

4.6  गृहस्थियों को ” पंच महायज्ञ ” अवश्य करने चाहिए अर्थात ब्रह्मयज्ञ ( संध्या और स्वाध्याय ),  देव यज्ञ ( अग्निहोत्र ), पितृ यज्ञ ( माता – पिता आदि की समुचित देखभाल एवं सेवा ), अतिथि यज्ञ और बलिवैश्वदेव यज्ञ ( गृहस्थ  पर आश्रित  प्राणियों  की देखभाल – सेवा ) ।  गृहस्थियों के सहारे ही अन्य आश्रमवासियों ( ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी, संन्यासी ) का जीवन चलता है । अतः गृहस्थियों को अपने दायित्वों का सम्यक ध्यान रखना चाहिए ।

5.0  पांचवें  समुल्लास में वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम की आवश्यकता और इन आश्रमवासियों के कर्तव्यों की चर्चा करते हुए यह बताया है कि,

5.1 सामान्य रूप से ब्रह्मचर्य और गृहस्थ आश्रम के बाद  वानप्रस्थ और फिर संन्यास आश्रम में प्रवेश करना चाहिए, पर जो लोग  तीव्र वैराग्यवान हों, सांसारिक सुखों से विमुख हों, लोक मंगल और ईश्वर चिंतन के लिए  पूर्णतया समर्पित हों,  ब्रह्मचर्य पूर्वक रह सकते हों,  वे ब्रह्मचर्य आश्रम के बाद सीधे संन्यास आश्रम में भी प्रवेश कर सकते हैं ।

5.2 वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करने पर  व्यक्ति अपने को पुत्रेषणा (  संतान की इच्छा / यौन संतुष्टि) , वित्तेषणा  (धन की इच्छा) और  लोकेषणा ( समाज में यश-प्रसिद्धि पाने की इच्छा ) से मुक्त करने का प्रयास करे ।

5.3 संन्यास आश्रम में तो वही व्यक्ति प्रवेश करे जो  इनसे मुक्त हो जाए, जो विद्वान हो, धार्मिक हो,, परोपकार प्रिय हो। संन्यासी का एकमात्र  उद्देश्य होना चाहिए- सभी प्राणियों के हित के लिए काम करना, आत्मशुद्धि करना और ईश्वर का चिंतन करना । संन्यासी अपनी इन्द्रियों पर संयम रखे,  विद्या और धर्म के प्रचारार्थ सर्वत्र विचरण करे । निंदा – स्तुति, हानि – लाभ,   मान – अपमान आदि में समान रहे । मनुस्मृति में बताए धर्म के दस लक्षणों (धैर्य रखना, क्षमा करना, मन पर नियंत्रण रखना, चोरी न करना, स्वच्छ रहना, इन्द्रियों को संयमित रखना, बुद्धिमत्तापूर्वक काम करना,  विद्याभ्यास करते रहना, सत्याचरण करना, और क्रोध न करना) का सदा पालन करे । जो लोग यह सोचते हैं कि संन्यासी को कुछ भी नहीं करना है, बस ऐसे ही निरुद्देश्य   घूमते रहना है, उसका विरोध करते हुए स्वामी जी ने स्पष्ट किया है कि संन्यासी लोकोपकार के लिए ही अपने को समर्पित करता है ।  अतः उसे विद्या, धर्म,  सत्य और न्याय के लिए निरंतर  काम करना चाहिए ।

6.0   छठे समुल्लास में राजनीति और शासन व्यवस्था पर विस्तार से विचार किया गया है ।

6.1 स्वामी जी ने वेद तथा स्मृतियों के आधार पर जो  शासन व्यवस्था बताई है वह ‘ जनतंत्र ‘  पर आधारित है। इसीलिए उन्होंने ‘ राजा ‘ (अर्थात  शासक)  का निर्वाचन प्रजा के द्वारा करने, और राजा को निरंकुश ढंग से  नहीं,  बल्कि प्रजा के द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के परामर्श से शासन करने की बात कही है ।

6.2  इसके लिए आवश्यक है कि राजा   तीन सभाएं ( राजार्य सभा,  धर्मार्य सभा और विद्यार्य सभा ) बनाकर न्याय व्यवस्था,  धर्म व्यवस्था तथा शिक्षा व्यवस्था का संचालन करे ।

6.3  सभासद (अर्थात जनता के प्रतिनिधि) वेद,  दंड नीति,  न्याय व्यवस्था, शास्त्रों आदि के ज्ञाता होने चाहिए। अमात्य (मंत्री ), दूत (राजदूत आदि ),  दुर्गपाल ( सेनापति आदि ) के पदों  पर योग्य व्यक्तियों की नियुक्ति करने से राजा को अपने कर्तव्य पालन में सहायता मिलती है ।

6.4  यह आवश्यक है कि राजा एवं   सभासद  धार्मिक हों, विद्वान हों , विभिन्न प्रकार के व्यसनों – दुर्गुणों से दूर हों ।

6.5  कर वसूली और राजस्व प्राप्त करने के लिए शासक को उसी प्रकार व्यवहार करना चाहिए जैसे भौंरा फूल को कोई हानि पहुंचाए बिना रस ग्रहण कर लेता है ।  प्रजा से उसकी आय का छठा भाग कर के रूप में  लिया  जाए और इसे प्रजा के हित में ही व्यय किया जाए ।

6.6   शासक के लिए आवश्यक है कि वह  अन्याय, अत्याचार और अपराध वृत्ति का उन्मूलन करने के उपाय करे ।  अपराधियों को दंड अवश्य दिया जाए ताकि एक ओर तो स्वयं अपराधी भविष्य में अपराधों से दूर रहे, दूसरी ओर अन्य लोगों के सामने यह उदाहरण रहे कि अपराध करने पर दंड निश्चित रूप से मिलता है । साथ ही,  जो सामान्य  लोग हैं वे बिना किसी भय के अपना जीवन यापन कर सकें ।

6.7  यदि शासकगण कोई अपराध करें तो उन्हें सामान्य जनता से भी अधिक दंड मिलना चाहिए । इस विषय पर विस्तार से अध्ययन करने के लिए उन्होंने मनुस्मृति,  विदुर नीति,  शुक्र नीति जैसे ग्रंथों की संस्तुति की  है ।

आगामी तीन समुल्लासों में  ईश्वर, वेद, सृष्टि , विद्या – अविद्या आदि दार्शनिक विषयों की चर्चा की गई हैं ।

7.0   सातवें समुल्लास में ईश्वर और उसके ज्ञान वेद की चर्चा की गई है। यह विषय दार्शनिक है, अतः विषय और भाषा की दृष्टि से यह समुल्लास थोड़ा कठिन है । इसमें वेद के एकेश्वरवाद की और परमात्मा के गुणों की विवेचना हुई है ।

7.1  परमात्मा सर्वव्यापक, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वाधार, अनादि, अनुपम आदि गुणों से युक्त है ।

7.2  उसी की स्तुति ( अर्थात गुणों का कथन ) , प्रार्थना ( अर्थात  सहायता की याचना ) और उपासना ( अर्थात  उसके निकट पहुँचने की कोशिश ) करनी चाहिए ।

7.3  ऐसा करने से मनुष्य की आत्मा का बल बढ़ता है और उसमें निर्भयता का गुण आता है।

7.4  ईश्वर निराकार है,  अतः वह  “ अवतार ” नहीं लेता ।

7.5  कुछ लोग “अहं ब्रह्मास्मि “ कहकर जीव और ईश्वर को एक ही मान लेते हैं । स्वामी जी ने स्पष्ट किया है कि यद्यपि जीव और ईश्वर दोनों चेतन हैं, पर ईश्वर सृष्टि का सर्जक, पालक एवं संहारक भी है, जबकि जीव ये काम नहीं कर सकता । जीव परिच्छिन्न ( सीमित) है जबकि परमात्मा विभु (सर्वव्यापक और  सर्व शक्तिमान) है ।

7.6   वेद कैसे बने – इस संबंध में स्वामी जी ने बताया है कि सृष्टि के प्रारम्भ में परमात्मा ने  मानव जाति के लाभ के लिए ऋग, यजु , साम और अथर्व चार वेद अग्नि , वायु , आदित्य और अंगिरा नामक ऋषियों के अंतःकरण में प्रकट किए । इन्हीं को “ संहिता “ भी कहते हैं ।

7.7  वेद में शाश्वत , सर्व जनोपयोगी, सार्वदेशिक ज्ञान निहित है । अतः वह मनुष्यमात्र के लिए ग्राह्य है ।

7.8   वेद की भाषा किसी  विशेष देश की या विशेष जाति की भाषा नहीं है, वह मानवमात्र की भाषा है । वेद की भाषा से ही विश्व में विभिन्न भाषाएँ विकसित हुई हैं ।

7.9   कुछ लोग ब्राह्मण ग्रंथों, आरण्यकों, उपनिषदों आदि को भी वेद कह देते हैं, जबकि ये वेद नहीं, वेदों की व्याख्या में लिखे गए ग्रन्थ हैं । इसीलिए इन ग्रंथों में ऋषियों – राजाओं आदि का इतिहास भी मिलता है , जबकि वेद में कोई इतिहास नहीं ।

7.10  वेदों की शाखाओं के संबंध में स्वामी जी ने स्पष्ट किया है कि जब वेदों का पठन-पाठन विभिन्न गुरुकुलों में होने लगा तब अध्ययन की सुविधा के लिए कुछ विद्वानों ने इन मन्त्रों में अपने मत के अनुरूप अनेक परिवर्तन भी किए। ये ही पाठ-परिवर्तन विभिन्न “ शाखाओं “ के नाम से प्रचलित हुए । यही कारण है कि वेद की शाखाएं आश्वलायन आदि ऋषियों के नाम से प्रसिद्ध हैं, जबकि ‘ मन्त्र  संहिता ‘ परमात्मा के नाम से प्रसिद्ध हैं ।  इन शाखाओं की संख्या 1127 बताई  जाती है, पर अब इनमें से कुछ ही उपलब्ध हैं ।  ऋग्वेद की शाकल, यजुर्वेद की माध्यन्दिन, साम और अथर्व की शौनक शाखा में ही वेद संहिता का मूल पाठ सुरक्षित है, शेष में  ब्राह्मण पाठ का मिश्रण हो गया है ।

7.11  वेद का अध्ययन करने के लिए निरुक्त प्रतिपादित यौगिक प्रणाली ही उपयुक्त है ।

7.12  प्रत्येक  मन्त्र के आरम्भ में ऋषि,  देवता. छंद और स्वर लिखा होता है।  इनमें से ऋषि तो  ऐतिहासिक व्यक्ति है जिसने  उस मन्त्र के अर्थ  और  ज्ञान का प्रसार किया । देवता से यह पता चलता है कि उस मन्त्र में किस विषय का वर्णन किया गया है । छंद और स्वर  का ज्ञान उस मन्त्र का सही ढंग से पाठ करने में सहायक होता है ।

8.0  आठवें  समुल्लास में सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति, उसके पालन और प्रलय के प्रश्न पर विचार किया गया है। ये सभी दार्शनिक प्रश्न हैं, अतः विषय और भाषा  की दृष्टि से यह भी थोड़ा कठिन अध्याय है।

 

8.1  सृष्टि बनने में प्रमुख भूमिका किन चीज़ों की है – इस सम्बन्ध  में हमारे यहाँ  प्रायः  तीन मत प्रचलित हो गए हैं जिन्हें त्रैतवाद (तीन कारण – ब्रह्म, जीव और प्रकृति ), ” द्वैतवाद ” ( दो कारण – ब्रह्म और जीव ) तथा ” अद्वैतवाद ” ( अर्थात दूसरा नहीं, केवल एक कारण “ब्रह्म” ) कहने लगे हैं । स्वामी जी ने  वेद मन्त्रों के आधार पर स्पष्ट किया है कि यह  सृष्टि ईश्वर, जीव और प्रकृति तीनों कारणों का परिणाम है । ईश्वर ” निमित्त ” कारण है,  अर्थात बनाने  वाला है, जीव  ”  साधारण ”  कारण है अर्थात जिसके लिए सृष्टि बनाई गई है, और प्रकृति ”  उपादान ” कारण  है अर्थात जिस सामग्री से सृष्टि बनाई गई । ये  तीनों कारण ” प्रवाह से अनादि ” हैं अर्थात हमेशा  से हैं और हमेशा रहेंगे ।

8.2  कुछ लोग कहते हैं कि हमारे जो छह आस्तिक दर्शन हैं ( सांख्य, योग, मीमांसा, वैशेषिक, न्याय और वेदान्त ) उनमें इस विषय पर मतभेद  है । जैसे, ‘ सांख्य दर्शन ‘ केवल प्रकृति की सत्ता मानता है, या ‘ वेदान्त दर्शन ‘ केवल ईश्वर की सत्ता मानता है । इस शंका का समाधान करते हुए स्वामी जी ने बताया है कि इन  दर्शनों में उन ” कारणों ” की व्याख्या की गई है जो सृष्टि के निर्माण के लिए आवश्यक हैं । ये छह हैं –(1) कर्म — ऐसा कोई भी कार्य जगत में नहीं होता जिसके करने में कर्म चेष्टा न की जाए ; अतः मीमांसा में ‘ कर्म ‘ की व्याख्या की गई है । (2) काल — बिना समय लगे कुछ नहीं बनता, अतः वैशेषिक में ‘ काल ‘ की व्याख्या है । (3) परमाणु — उपादान कारण (जिस सामग्री से सृष्टि बनाई गई) न हो तो  कुछ भी नहीं बन सकता, अतः न्याय में ‘ परमाणु ‘ की  विवेचना की गई है । (4) पुरुषार्थ — विद्या, ज्ञान, विचार न किया जाए तो कुछ  नहीं बन सकता, अतः योग में ‘ पुरुषार्थ ‘ की विवेचना की गई है । ( 5) प्रकृति – तत्वों का मेल न हो  तो भी निर्माण संभव नहीं ।  अतः सांख्य में ‘ प्रकृति ‘ की व्याख्या की गई है । और (6) ब्रह्म — बनाने वाला न बनाए तो कोई भी पदार्थ उत्पन्न नहीं हो सकता ।  अतः वेदान्त में ‘ ब्रह्म ‘  की विवेचना विस्तार से की गई है । इस प्रकार वास्तव में  ये दर्शन एक – दूसरे के विरोधी नहीं, वस्तुतः ‘ पूरक ‘ हैं ।

8.3  सृष्टि से संबंधित जो अनेक रहस्य आज विज्ञान ने स्पष्ट कर दिए हैं, लगभग वैसे ही स्पष्टीकरण स्वामी जी ने वेद मन्त्रों के आधार पर उस समय दे दिए (जैसे, सूर्य अपनी परिधि में घूमता है, पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाती है, चन्द्रमा सूर्य से प्रकाशित होता है, पृथ्वी न शेषनाग के सिर पर टिकी है और न बैल के सींग पर, वह सौरमंडल के आकर्षण से गति कर रही है, आदि) ।

 

8.4  मानव  सभ्यता  के प्रसार , आर्य  – दस्यु  का अंतर, देवासुर संग्राम आदि का अर्थ स्पष्ट करते हुए उन्होंने बताया कि आर्य /दस्यु किन्हीं प्रजातियों का नाम नहीं, बल्कि धार्मिक, विद्वान लोगों को आर्य, और अधार्मिक, अविद्वान लोगों को दस्यु कहते थे । विदेशियों  ने बिना किसी प्रमाण के यह प्रचारित किया कि आर्य नामक कोई प्रजाति (Race)  थी जिसके लोग कहीं  बाहर  से आए और यहाँ के मूल निवासियों को विस्थापित कर दिया । विदेशियों की इस मान्यता का सबसे पहली बार स्वामी जी ने ही प्रमाण देकर खंडन किया ।

 

8.5  भारतवासियों  के आलस्य, परस्पर  की कलह  आदि दुष्प्रवृत्तियों  के कारण देश  पर विदेशियों का अधिकार  हो  गया  था, स्वामी जी ने  उसकी  निंदा   करते हुए ” सुराज्य  ” ( सु + राज्य = अच्छे शासन ) की अपेक्षा  स्वराज्य (स्व + राज्य = अपने शासन) को बेहतर बताया  है । उन्होंने  स्पष्ट शब्दों में लिखा  है ,” कोई   कितना  ही करे, परन्तु   जो  स्वदेशीय राज्य  होता  है वह सर्वोपरि  उत्तम  होता है । अथवा  मत – मतान्तर  के आग्रह रहित,  अपने और पराये  का पक्षपात शून्य, प्रजा  पर पिता – माता  के समान  कृपा , न्याय  और दया  के साथ  विदेशियों  का राज्य  कभी  भी   पूर्ण सुखदायक  नहीं होता । ” इस प्रकार  स्वराज्य  की  बात  करने वाले  वे  उस युग  के  एकमात्र, और  अपने देश के सर्वप्रथम  नेता हैं ।

 

9.0  नवें समुल्लास का विषय है –  विद्या – अविद्या,  बंधन – मोक्ष । ये पूर्णतया  दार्शनिक विषय हैं।  सामान्य मनुष्य इस संसार की कतिपय वास्तविकताओं  से अनजान बना रहता है ।  जैसे  कोई व्यक्ति  तम्बाकू  खाकर , सिगरेट पीकर , शराब  पीकर  ‘ सुख ‘ अनुभव करता है, जबकि  ये वस्तुतः ‘ दुःख ‘ देने वाले हैं ; या संतान, माता – पिता , पति -पत्नी  यह मान लेते हैं कि  वे  हमेशा जीवित रहेंगे  जबकि वास्तविकता यह है कि जिसका जन्म हुआ है, उसका कभी अंत भी होगा । ये भ्रम अविद्याजन्य हैं ।

9.1  इन बातों को स्पष्ट करने के लिए स्वामी जी ने महर्षि  पतंजलि के योग दर्शन के आधार पर  बताया  है कि अनित्य  अर्थात  जो चीज़   हमेशा नहीं  रहती,  उसे  नित्य मान लेना, जो अशुचि ( अपवित्र ) है उसे शुचि (पवित्र) मान लेना, जो दुःख है उसे सुख मान लेना और जो अनात्म  है उसे आत्म मान लेना –  यह चार प्रकार का विपरीत ज्ञान ही ‘ अविद्या ‘ है ।  इस अविद्या  की वास्तविकता को आत्मसात करके ही  मनुष्य ‘ मोक्ष ‘  का अधिकारी बनता  है ।

9.2  मोक्ष प्राप्ति के उपाय  समझाते हुए बताया है  कि व्यक्ति अधर्म – अविद्या – कुसंग -कुसंस्कार – बुरे व्यसनों  से दूर रहे,  सच  बोले,  परोपकार करे, पक्षपात-रहित न्याय करे, धर्म की वृद्धि  करे, परमेश्वर की  उपासना के लिए महर्षि पतंजलि के बताए अष्टांग योग का अभ्यास करे  ( महर्षि पतंजलि ने योग के आठ अंग बताए जिन्हें  यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि कहा है ; इन सभी का — किसी एक का नहीं, विधिवत अभ्यास करना योगाभ्यास कहलाता है ) , स्वयं विद्या प्राप्त करे तथा औरों को  विद्या दान करे, धर्मपूर्वक पुरुषार्थ करे, ज्ञान की उन्नति करे, आदि – आदि ।  इस प्रकार के काम करने से मुक्ति मिलती है,  और इनसे विपरीत काम करने से ‘ बंधन ‘  होता है ।

9.3 मोक्ष से जुड़ा हुआ ‘ पुनर्जन्म ‘ का सिद्धांत  है ।  जीव जैसे कर्म करता है, उसका पुनर्जन्म वैसा ही होता है  क्योंकि  जीव कर्म  करने में स्वतंत्र  है, फल भोगने में नहीं । इसका अर्थ यही  है कि  कोई व्यक्ति  अच्छे – बुरे जैसे भी  कर्म करेगा, उसे  वैसा ही फल  मिलेगा,  उससे  बच नहीं सकता ।

10.0   दसवें समुल्लास का विषय है आचार, अनाचार, भक्ष्य और अभक्ष्य ।

10.1  इसमें एक ओर तो वेद, स्मृति, आदि के अनुकूल सदाचार का पालन करने, अपनी आत्मा के ज्ञान के विरुद्ध आचरण न करने, सत्पुरुषों का संग करने, माता, पिता, आचार्य, अतिथि की सेवा करने, सत्य का आचरण करने, सद्विद्या के ग्रहण में रुचि विकसित करने आदि की चर्चा की गई है, तो दूसरी ओर खानपान और उससे जुड़ी  विभिन्न बातों की चर्चा की गई है ।

10.2   अपने देश में खानपान के सम्बन्ध  में अनेक प्रकार के ‘प्रतिबन्ध’ लगा दिए गए हैं ।  इसी कारण एक ओर विदेश यात्रा वर्जित कर दी गई क्योंकि अज्ञानी  लोगों को यह समझा दिया गया  कि विदेश जाने से धर्म भ्रष्ट हो जाता है । स्वामी जी ने इन धारणाओं का खंडन करते हुए कहा है कि अगर हमारा आचरण अच्छा है तो हमें देश – देशान्तर,  द्वीप – द्वीपान्तर जाने में कुछ भी दोष नहीं । प्राचीन भारत के इतिहास से उदाहरण देकर भी स्पष्ट किया है कि इस देश के लोग व्यापार, राजकार्य और भ्रमण के लिए पूरे भूमंडल में आते – जाते थे। महाभारत के अनुसार धृतराष्ट्र का विवाह गांधार (वर्तमान कंधार) की राजपुत्री से, पाण्डु का ईरान की राजकन्या माद्री से, और अर्जुन का पाताल (वर्तमान अमरीका) के राजा की कन्या उलोपी से हुआ था । ये विदेश आने-जाने के प्रमाण हैं । आज भी देश- देशान्तर, द्वीप – द्वीपान्तर में राज्य और व्यापार किए बिना स्वदेश की उन्नति  नहीं हो सकती ।  आवश्यक तो यह है कि हम अपने वेदोक्त धर्म को अच्छी तरह जान लें, उसका आचरण करने का अभ्यास कर लें और जो पाखण्ड फैल गए हैं, उनका खंडन करना भी सीख लें ताकि कोई हमें बहका न सके ।

10.3    भक्ष्य – अभक्ष्य के सन्दर्भ में स्वामी जी ने सात्विक आहार पर बल दिया है । मांस,  मछली,  अंडा आदि का निषेध किया है । मांसाहार का विरोध करते हुए उन्होंने दुधारू पशुओं, विशेष रूप से गाय पर आर्थिक दृष्टि से भी विचार किया है और बताया है कि एक गाय अपने जीवन भर के दूध से 24,960 मनुष्यों को  एक बार में तृप्त कर सकती है ; और उस गाय की संतति  बछड़े – बछड़ी  के योगदान पर भी विचार करें तो एक ही पीढ़ी में उनके दूध से 1,24,800 व्यक्ति एक बार में तृप्त हो सकते हैं । जो बैल बनेंगे वे अपने जीवनकाल में पांच हज़ार मन अन्न का उत्पादन कर सकते हैं । इन पशुओं के मल-मूत्र से जो खाद बनेगी, उसके भी आर्थिक पहलू पर विचार किया है ।  अतः मांस के लालच में इनकी हत्या नहीं करनी चाहिए । (स्वामी जी ने इस विषय पर पृथक से भी एक पुस्तक “ गोकरुणा निधि “ नाम से लिखी है ) ।

10.4  हिन्दुओं  में छूतछात की बुराई के कारण व्यक्ति हर किसी के हाथ का बना खाना नहीं खाता । उसे यह समझा दिया गया है कि ऐसा करने से उसका धर्म भ्रष्ट हो जाएगा ।  इसलिए सामान्य हिन्दू यह मानता है कि अपने परिवारी जनों के अलावा  खाना या तो वह व्यक्ति बनाए जो जन्म से ब्राह्मण हो , या फिर व्यक्ति अपना खाना स्वयं बनाए । स्वामी जी ने कहा है कि रसोई बनाने और खाने में स्वच्छता का ध्यान रखना चाहिए, न कि जन्मना जाति का । भोजन बनाने के पात्र और स्थान साफ़-सुथरा होना चाहिए तथा भोजन बनाने वाले व्यक्ति भी शरीर, वस्त्र आदि से स्वच्छ रहें । जहां तक छुआछूत का संबंध है, यह समाज की एकता को नष्ट करने वाली ऐसी बुराई है जिसे अविलम्ब दूर करना चाहिए ।

10.5  इसके अतिरिक्त, खानपान से संबंधित अन्य प्रश्नों पर भी विचार किया है, जैसे सखरी – निखरी, जूठा खाना,  एक साथ खाना,  चौके में खाना,  चौका लीपना आदि । सभी प्रश्नों पर स्वामी जी की दृष्टि तार्किक है ।

ग्रन्थ का उत्तरार्ध

ग्रन्थ के उत्तरार्ध में चार समुल्लास ( 11, 12, 13, और 14 ) हैं । स्वामी जी ने लिखा है कि लगभग पांच हज़ार साल पहले तक अर्थात महाभारत युद्ध से पहले संसार में वेद मत ही प्रचलन में था, पर बाद में वेदों में अप्रवृत्ति होने से महाभारत युद्ध हुआ ।  इसी अप्रवृत्ति के परिणामस्वरूप अविद्या फैली और फिर जिसके मन में जैसा आया वैसा मत चलाया । इन मत – मतान्तरों के कारण ही परस्पर विरोध बढ़ा ।  इस विरोध को दूर करने के लिए सत्य – असत्य का निर्णय करना आवश्यक है ।  जब विद्वान लोगों में सत्य – असत्य का निश्चय नहीं होता  तभी अविद्वानों  को महा – अन्धकार  में पड़कर बहुत दुःख उठाना पड़ता है ।  यदि विद्वान लोग ईर्ष्या – द्वेष छोड़कर सत्य असत्य का निर्णय करें तो सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना कठिन नहीं है । उन्होंने स्पष्ट किया है कि ” मेरा तात्पर्य किसी की हानि या विरोध करने में नहीं, किन्तु सत्यासत्य का निर्णय करने – कराने का है .”

उत्तरार्ध के प्रत्येक समुल्लास  से पहले उन्होंने अनुभूमिका  लिखी है जिसमें उन्होंने पुनः यह दोहराया है कि यह लेख सत्य की वृद्धि और असत्य के ह्रास के लिए लिखा है, न कि किसी को दुःख देने, या हानि करने या मिथ्या दोष लगाने के लिए । उन्होंने सब लोगों से यह अपेक्षा की है कि सबके मत विषयक ग्रंथों को देख – समझ कर अपनी सम्मति प्रीतिपूर्वक  मित्र भाव से दें। यदि हम दूसरों के मतों को नहीं जानेंगे तो यथावत संवाद नहीं हो सकता ।

11.0  ग्यारहवें समुल्लास  में पहले तो स्वामी जी ने भारत के गौरवशाली अतीत का वर्णन किया है, उसके बाद यह बताया है कि उसका पतन कैसे हुआ, और उसके दुष्परिणाम क्या हुए । इसी समुल्लास में स्वामी जी ने उन संप्रदायों की समीक्षा की है जो अपने को हिंदू कहते हैं ।

11.1  स्वामी जी ने प्रमाण सहित बताया है कि वैदिक काल में यह देश ज्ञान – विज्ञान, कला – कौशल, व्यापार – वाणिज्य आदि विभिन्न क्षेत्रों में उन्नति के शिखर पर था और राजनीतिक दृष्टि से आर्यों का सार्वभौम चक्रवर्ती राज्य था । प्रायः लोग यह मानते हैं कि बन्दूक, तोप जैसे हथियार आधुनिक युग की ही खोज हैं, प्राचीन काल में इस प्रकार के हथियार नहीं थे । स्वामी जी ने बताया है कि हमारे यहाँ इस प्रकार के और इनसे भी उन्नत किस्म के अस्त्र–शस्त्र थे जिनके नाम आग्नेयास्त्र, वारुणास्त्र, नागपाश, मोहनास्त्र, पाशुपतास्त्र, शतघ्नी, भुशुण्डी आदि थे । उन्होंने पुनः स्पष्ट किया है कि संसार में जो विद्या फैली है, उसका उद्गम भारत से ही हुआ और यहीं से वह क्रमशः मिस्र, यूनान, रोम, यूरोप, अमरीका आदि में फैली ।  “ बाइबिल इन इंडिया “ के लेखक लुइ जाकोल्यो (Louis Jacolliot) ने भी यह तथ्य स्वीकार किया है ।

11.2  वैदिक धर्म का ह्रास होने पर लगभग पांच हजार वर्ष पहले (महाभारत युद्ध के समय)  आर्य जाति का पतन होने लगा। जब वेद ज्ञान का लोप होने लगा तो विभिन्न प्रकार के वेद- विरुद्ध मत फैलने लगे,  फिर भी वे नाम वेदों का लेते रहे । उन्होंने ‘ शिव उवाच ‘, ‘ भैरव उवाच ‘,’ पार्वत्युवाच ‘ आदि नाम लिखकर  तंत्रों का निर्माण किया । इन वाममार्गियों ने धर्म के नाम पर अनेक  अनाचार फैलाए,  पांच ‘ मकारों ‘ ( मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा, और  मैथुन ) जैसे दुष्कर्मों को, तथा “ वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति “ जैसे वाक्य बनाकर यज्ञ में पशु हिंसा आदि को ‘ श्रेष्ठ कर्म ‘ बताया ।

11.3 इन्हीं के विरोध में लगभग 2,500 वर्ष पूर्व जैन और बौद्ध मत प्रारम्भ हुए जिन्होंने वेदों का, यज्ञ का, वैदिक वर्ण व्यवस्था आदि का विरोध किया और झूठे त्याग एवं वैराग्य की शिक्षा देकर लोगों में अकर्मण्यता का प्रचार किया ( इनसे ही मूर्तिपूजा शुरू हुई, अन्य प्रकार के कर्मकांड भी  पनपने लगे ; बौद्धों के जातक ग्रंथों आदि की नक़ल पर पुराणों की भी रचना होने लगी ) । शंकराचार्य जी ने इन्हीं मतों का खंडन किया (शंकराचार्य जी का समय विवादित है, यह अब से लगभग 1200 से लेकर  2200 वर्ष पूर्व तक माना जाता है ) । जैन / बौद्ध मत निरीश्वरवादी थे, अतः शंकराचार्य जी ने ईश्वर के महत्व पर ही विशेष बल दिया ; परन्तु उन्होंने संसार माया है, जगत मिथ्या है, जैसी बातों का भी प्रचार किया ।  इसका परिणाम यह हुआ कि देशवासियों में पुरुषार्थ और कर्मठता का अभाव बना रहा ।

11.4  एक ओर पुराणों के कारण और दूसरी ओर तथाकथित गुरुओं के कारण विभिन्न प्रकार के संप्रदाय पनपने लगे जिनमें से कोई-कोई अपने को परम्परागत प्राचीन धर्म का अनुयायी सिद्ध करने की दृष्टि से  वेद का नाम भी ले लेते हैं,  पर व्यवहार में उससे अधिक महत्व किसी अन्य ग्रंथ को, किसी पुराण या किसी “गुरु” के लिखे ग्रंथ आदि  को देते हैं। कोई  वैदिक संस्कृति में बताए जीवन के अंतिम लक्ष्य ” मोक्ष ” की भी बात करता  है, पर  उसकी  प्राप्ति के लिए महर्षि पतंजलि के बताए अष्टांग योग के स्थान पर उसने  अपने मत का प्रचार करने की दृष्टि से कोई सरल से उपाय अपना लिए हैं ।

11.5  मध्यकाल में देश में ऐसे सम्प्रदायों का प्रभुत्व  रहा जो शिव,  शक्ति ( दुर्गा ), विष्णु के अवतारों , गणेश, सूर्य आदि को देवता मानते थे और उनकी उपासना करते थे । इन्होंने  अपने – अपने सम्प्रदायों के अनुरूप किन्हीं क्रियाओं का करना अनिवार्य बताया । जैसे, शैवों ने रुद्राक्ष, त्रिपुंड, भस्म धारण करने को , और मादक द्रव्य सेवन को शिव का प्रसाद प्राप्त करने का साधन बताया । इससे विभिन्न प्रकार के कर्मकांड की वृद्धि हुई और वैदिक उपासना का स्वरूप  गायब होता गया । अपने सम्प्रदाय को प्रामाणिक बनाने के लिए इन्होंने समय – समय पर विभिन्न  ” पुराणों ” की रचना की । इन पुराणों में अनेक परस्पर विरोधी बातें हैं ।  एक ही कथा अलग-अलग रूप में दी है । इसके बावजूद यह प्रचारित किया गया कि इन सब पुराणों का रचनाकार ” व्यास ” नामक एक ही व्यक्ति है । यह ध्यान रखने योग्य है कि अधिकांश पुराण पिछले लगभग एक हज़ार वर्ष में ही लिखे गए हैं (इस सम्बन्ध में विस्तार से पढ़ें : पौराणिक कोश, लेखक : राणा प्रसाद  शर्मा , ज्ञान मंडल, वाराणसी , द्वितीय संस्करण 1986 ; पृष्ठ 312 – 313 ) ।

 

11.6  इन पुराणों के प्रचार से अवतारवाद, मूर्तिपूजा , तीर्थयात्रा , मृतक श्राद्ध , तरह – तरह के व्रत, कीर्तन, जागरण, फलित ज्योतिष  आदि की परम्पराएं विकसित हुईं । मानव जीवन के उद्देश्यों ( धर्म , अर्थ, काम और मोक्ष ) की साधना के लिए महर्षि पतंजलि ने तो “अष्टांग योग ” का विधान किया था, पर इन संप्रदाय वालों ने  यह प्रचारित किया कि  तीर्थयात्रा करना और गंगा जैसी नदियों / पुष्कर जैसे सरोवरों आदि में स्नान करना, सम्प्रदाय विशेष में दीक्षा लेकर उसके कर्मकांड का आचरण करना, तिलक, माला, कंठी आदि धारण करना , ईश्वर के किसी विशेष नाम या किसी अवतार / महापुरुष आदि  (जैसे, शिव, राम, सीताराम, आदि ) का बार – बार उच्चारण करना , एकादशी – अष्टमी – पूर्णिमा आदि को उपवास करना ही धर्म का पालन करना है और इसी से मुक्ति मिलेगी ।

11.7  अब से लगभग पांच – छह  सौ वर्ष पूर्व जब इस प्रकार के कर्मकांड का प्रचलन खूब बढ़ रहा था, तब कबीर,  दादू,  नानक, रैदास आदि अनेक संतों ने ” निराकार ईश्वर ” की उपासना की ओर समाज का ध्यान दिलाया । औपचारिक शिक्षा न पाने / अधिक पढ़े – लिखे न होने के बावजूद इन संतों ने तो  अवतार, मूर्ति पूजा, जाप, तीर्थ, माला, छाप, तिलक आदि आडम्बरों का विरोध किया ; पर बाद में इन संतों के भी सम्प्रदाय बन गए और विभिन्न देवताओं की मूर्तियों की ही तरह इनकी / इनसे संबंधित वस्तुओं की भी पूजा होने लगी ।

11.8  इस समुल्लास में स्वामी जी ने ऐसे ही लगभग 60  सम्प्रदायों के संस्थापकों का और उस सम्प्रदाय की प्रमुख मान्यताओं का परिचय देकर उनकी समीक्षा की है । कुछ सम्प्रदाय ऐसे भी हैं जिन्होंने  वेद , उपनिषद आदि के किन्हीं वाक्यों / शब्दों को अपने सम्प्रदाय का आधार तो बताया है, पर उनका मनमाना अर्थ किया है । स्वामी जी ने  उन वाक्यों / शब्दों आदि के सन्दर्भ सहित वास्तविक अर्थ बताए हैं । अंत में यह स्पष्ट किया है कि ” धर्म ” तो वास्तव में एक ही है जिसके मौलिक तत्वों को प्रायः विभिन्न सम्प्रदाय वाले भी स्वीकार करते हैं, पर अपनी विशिष्टता बनाए रखने के लिए वे अपने कर्मकांड को और अपनी संकीर्ण मान्यताओं को प्रमुखता देते हैं । उनके इन कर्मकांडों और मान्यताओं के कारण ही समाज में अंधविश्वास फैल रहे हैं और विरोध उत्पन्न हो रहे हैं ।

11.9  इस समुल्लास के अंत में स्वामी जी ने “ हरिश्चंद्रिका ” “ मोहनचंद्रिका “जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित राजवंशों का (महाराज युधिष्ठिर से लेकर यशपाल तक का) संक्षिप्त इतिहास भी दिया है और इसकी खोज करने वालों को धन्यवाद दिया है ।

12.0   बारहवें  समुल्लास में जैन और बौद्ध मत की समीक्षा की गई है ।

12.1  इन मतों के अनुयायियों ने अपने मत के प्रवर्तक के पूर्व जन्मों का इतिहास लिखकर इन्हें अति प्राचीन बताने का प्रयास किया है, पर इतिहास से यही सिद्ध होता है कि इनका  प्रारंम्भ लगभग 2,500 वर्ष पूर्व ही हुआ ।  इसका एक प्रमाण तो यही है कि रामायण और महाभारत जैसे प्राचीन ग्रंथों में इनकी कोई चर्चा नहीं, जबकि इन मतों से संबंधित प्रारंभिक ग्रंथों में रामायण और महाभारत की कथाएँ मिलती हैं ।

12.2  इन मतों के प्रवर्तकों ने स्वयं कोई ग्रन्थ नहीं लिखा, इनके उपदेशों के आधार पर इनके अनुयायियों ने बाद में ग्रंथ लिखे । जैन मत में आचार – विचार की मान्यताओं को महत्व दिया गया है । पुनर्जन्म और परलोक को स्वीकार करते हुए भी जैन मत ईश्वर को स्वीकार नहीं करता । जैन मत में कैवल्य ज्ञान प्राप्त साधु और तपस्वी ही ईश्वर माने जाते हैं । बौद्ध मत का प्रचार गौतम बुद्ध की शिक्षाओं से हुआ जो प्रारम्भ में नीति, सदाचार और मानवतावाद की शिक्षाओं पर आधारित थीं, पर बाद में उनमें विभिन्न दार्शनिक मान्यताओं का प्रवेश हो गया और तब उनके चार सम्प्रदाय – माध्यमिक, योगाचार सौत्रान्तिक एवं वैभाषिक बन गए ।

12.3   मूर्तिपूजा और षोडशोपचार की प्रथा जैनियों से प्रारंभ हुई जिसे पौराणिकों ने भी अपना लिया और जैनियों के ही अनुकरण पर विष्णु के राम, कृष्ण आदि 24 अवतारों की कल्पना कर डाली ( विभिन्न ग्रंथों में अवतारों की संख्या अलग – अलग बताई है जो 8  से लेकर 24 तक है )। स्वामी जी ने बौद्धों और जैनियों की जो मान्यताएं तर्कसंगत नहीं हैं, उनका उल्लेख उनके ग्रंथों के उद्धरण देते हुए किया है और फिर उनकी समीक्षा की है ।

एक उदाहरण प्रस्तुत है : “ विवेकसार पृष्ठ 55 में लिखा है कि गंगा आदि तीर्थ और काशी आदि क्षेत्रों में सेवने से कुछ भी परमार्थ सिद्ध नहीं होता, और (रत्नसार पृष्ठ 29 में) अपने गिरनार, पालीताणा और आबू आदि तीर्थ क्षेत्र मुक्ति पर्यंत के देने वाले लिखे हैं ।

समीक्षक : यहाँ विचारना चाहिए कि जैसे शैव, वैष्णव आदि के तीर्थ क्षेत्र जल स्थल जड़ स्वरूप हैं, वैसे जैनियों के भी हैं, इनमें से एक की निंदा और दूसरे की स्तुति करना मूर्खता का काम है (स.प्र., पृ. 426) ।  “

13.0   तेरहवें समुल्लास में बाइबिल की समीक्षा की गई है। आज हम लोग सामान्यतया बाइबिल को केवल ईसाइयों का ग्रन्थ मानते हैं, जबकि यह मूलतः यहूदियों का ग्रन्थ है ।

13.1  वस्तुतः बाइबिल कोई स्वतंत्र ” पुस्तक ” न होकर अनेक पुस्तकों का संग्रह है जो विभिन्न समय पर अलग – अलग लोगों द्वारा लिखी गईं । इसीलिए इन पुस्तकों की वास्तविक संख्या को लेकर भी मतभेद रहे हैं और इसके अनेक संस्करण तैयार होते रहे हैं । इसके प्रारंभिक अध्याय हिब्रू भाषा में थे और शेष में से कुछ अध्याय ग्रीक में और कुछ  लैटिन भाषा में थे । आज अंग्रेजी में जो बाइबिल हम लोग देख रहे हैं उसे ग्रेट ब्रिटेन के किंग जेम्स (1566 – 1625)  के समय 17 वीं शताब्दी में वर्तमान रूप दिया गया । इसके दो भाग हैं – ओल्ड टेस्टामेंट और न्यू  टेस्टामेंट । ओल्ड टेस्टामेंट का विशेष सम्बन्ध यहूदियों से है और न्यू टेस्टामेंट का ईसाइयों से ।

13.2  न्यू टेस्टामेंट की प्रारम्भिक चार पुस्तकों में ईसा मसीह की जीवनी दी हुई है । ईसा मसीह का जन्म अब से लगभग दो हज़ार वर्ष पूर्व हुआ था ।  बाइबिल में नीति, सदाचार और मानव प्रेम की सामान्य शिक्षाएं दी हुई हैं। ऐसा कहा जाता है कि ईसा मसीह अध्ययन के लिए भारत भी आए थे जहाँ उस समय बौद्ध मत भी काफी फैल चुका था । यही कारण है कि ईसाई मत की अनेक नैतिक मान्यताएं बौद्ध / वैदिक मान्यताओं के अनुरूप ही हैं ।

13.3  कुछ वर्ष बाद ईसाइयों ने ईसा को ईश्वर का एकमात्र पुत्र कहना शुरू कर दिया और यह कहने लगे कि ईश्वर से भी अधिक महत्व उसके पुत्र का है और उस पर (अर्थात ईसा पर) विश्वास लाने से पाप क्षमा हो सकते हैं, मुक्ति हो सकती है। स्वामी जी ने बाइबिल के कतिपय असंगत, तर्कहीन, परस्पर विरोधी अंश उद्धृत करते हुए उनकी समीक्षा की है ।

एक उदाहरण  प्रस्तुत है : ” देख मैं शीघ्र आता हूँ और मेरा प्रतिफल मेरे साथ है जिससे हर एक को जैसा उसका कार्य ठहरेगा वैसा फल देउंगा ।  ( यो. प्र . प. 22 / आ. 12 ) ”

समीक्षक : जब यही बात है कि कर्मानुसार फल पाते हैं तो पापों की  क्षमा कभी नहीं होती , और जो क्षमा होती है तो इंजील की बातें झूठी । यदि कोई कहे कि क्षमा करना भी इंजील में लिखा है तो पूर्वापर विरुद्ध अर्थात ‘ हल्फ़ दरोगी ‘ हुई तो झूठ है, इसका मानना छोड़ देओ। (स.प्र., पृ. 497)। “   .

14.0   सत्यार्थ प्रकाश के अंतिम चौदहवें  समुल्लास में कुरआन की समीक्षा की गई है ।

14.1 ऐसा माना जाता है कि यह अब से लगभग 1,400 वर्ष पूर्व अरब देश में जन्मे हज़रत मुहम्मद साहब की कृति है जो उन पर “ खुदा ने नाजिल “ की । मुहम्मद साहब यों तो पढ़े-लिखे नहीं थे, पर अंतर्दृष्टि संपन्न थे । उस समय अरब देश की सामाजिक स्थिति बहुत खराब  थी। बहु विवाह और दास प्रथा का प्रचलन था । स्त्रियों को केवल वासना पूर्ति का साधन माना जाता था। पूजा के नाम पर अनेक देवताओं की और विभिन्न मूर्तियों की पूजा होती थी ।

14.2  मुहम्मद साहब ने धार्मिक विश्वास के रूप में एक निराकार ईश्वर की उपासना करने पर बल दिया और सामाजिक स्थिति को सुधारने का प्रयास किया । उन्होंने ईसाइयों और यहूदियों के अनेक विश्वासों को भी यथावत स्वीकार कर लिया और इस्लाम की धर्म पुस्तक के रूप में कुरआन की रचना की । (इस्लाम की जिन बातों को लेकर विश्व में विवाद बढ़ा है उनमें से एक है “ जिहाद (धर्मयुद्ध) “ जिसका कुरआन में 44 बार उल्लेख हुआ है और जो आज आतंकवाद का प्रमुख कारण माना जाता है, यद्यपि उसके अर्थ और स्वरूप को लेकर विद्वानों में मतभेद भी है) ।

14.3  मुसलमान मुहम्मद साहब को ईश्वर का अंतिम दूत मानते हैं और दिन में पांच बार  नमाज़ पढ़ने, रोजा रखने,  हज यात्रा करने आदि को विशेष महत्व देते हैं । स्वर्ग, नरक, देवदूत आदि के सम्बन्ध में इस्लाम की मान्यताएं विचित्र हैं । जैसे,  इस संसार में तो शराब पीना बुरा बताया है, पर बहिश्त ( स्वर्ग ) में शराब की नदियाँ बहती हैं, जितनी चाहो उतनी पी सकते हो । यहाँ स्त्रियों की स्थिति सुधारने का दावा किया जा रहा है, और बहिश्त में भोग करने के लिए ” हूरें ” भरी पड़ी हैं, आदि । स्वामी जी ने इस्लाम के मान्य  ग्रन्थ ” कुरआन ” की कुछ आयतों को तर्क की कसौटी पर कसकर दिखाया है ।

एक उदाहरण प्रस्तुत है; “और लड़ो उनसे यहाँ तक कि न रहे फितना अर्थात बल काफिरों का और होवे दीन तमाम वास्ते अल्लाह के । और जानो तुम यह कि जो कुछ तुम लूटो किसी वस्तु से निश्चय वास्ते अल्लाह के है पांचवां हिस्सा उसका और वास्ते रसूल के ।   ( मं. 2/ सि. 9/ सू. 8 / आ. 39/41) “

समीक्षक :  ऐसे अन्याय से लड़ने – लड़ाने वाला मुसलमानों के खुदा से भिन्न शान्ति भंग कर्ता दूसरा कौन होगा ? अब देखिए यह मजहब कि अल्लाह और रसूल के वास्ते सब जगत को लूटना लुटवाना क्या लुटेरों का काम नहीं है ? और लूट के माल में खुदा का हिस्सेदार बनना जानो डाकू बनना है और ऐसे लुटेरों का पक्षपाती बनना खुदा अपनी खुदाई में बट्टा लगाता है । बड़े आश्चर्य की बात है कि ऐसा पुस्तक, ऐसा खुदा, ऐसा पैगम्बर संसार में ऐसी उपाधि और ऐसी शान्ति भंग करके मनुष्यों को दुःख देने के लिए कहाँ से आया ? जो ऐसे – ऐसे मत जगत में प्रचलित न होते तो सब जगत आनंद में बना रहता  (स.प्र. पृ. 524 – 525) ।

स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश :

अंत में स्वामी जी ने यह बात फिर दोहराई है कि मेरा अभिप्राय कोई नवीन मत चलाने का नहीं है, मैं तो उन्हीं सिद्धांतों को मानता हूँ जो सर्वतंत्र सिद्धांत हैं, जिन्हें लोग सदा से मानते आए हैं, और इसीलिए जिन्हें “ सनातन नित्यधर्म “ कहते हैं । स्वामी जी ने याद दिलाया है कि मनुष्य को मननशील होना चाहिए, अपने समान ही दूसरों के सुख-दुःख, हानि-लाभ को समझना चाहिए, और सत्य की रक्षा के लिए अन्यायकारी बलवान से भी नहीं डरना चाहिए, इस काम में भले ही प्राण भी चले जाएँ ।  इसी दृष्टि से उन्होंने वेद आदि शास्त्रों के आधार पर 51 ऐसे सिद्धांतों का संक्षेप में वर्णन किया है  जिन्हें हमारे ऋषि – मुनि हमेशा से मानते आए हैं, पर जिनके वास्तविक अर्थ को आज हम भूल  चुके हैं । जैसे , ईश्वर, वेद, धर्म, जीव, ईश्वर और जीव का स्वरूप, अनादि पदार्थ, मुक्ति, मुक्ति के साधन, देवपूजा, पदार्थ,  सृष्टि, सृष्टि का प्रयोजन, स्वर्ग, नरक, जन्म, मृत्यु, पुरुषार्थ,  प्रारब्ध, आर्य, आर्यावर्त, प्रार्थना, स्तुति, उपासना आदि। अंत में उन्होंने यह आशा व्यक्त की है कि परमात्मा की कृपा और विद्वानों के सहयोग से ये सिद्धांत सारे विश्व में पुनः प्रतिष्ठित हो जाएँ जिससे सभी लोग धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को सिद्ध करके सदा उन्नति करते रहें और आनंदित रहें ।

 

एक उदाहरण प्रस्तुत है ; “ ईश्वर कि जिसके ब्रह्म परमात्मादि नाम हैं, जो सच्चिदानन्दादि लक्षण युक्त है, जिसके गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं, जो सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनंत, सर्वशक्तिमान, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्ता, धर्ता, हर्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से बलदाता आदि लक्षणयुक्त है, उसी को परमेश्वर मानता हूँ । “

 

 

 

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डा. रवीन्द्र अग्निहोत्री
जन्म लखनऊ में, पर बचपन - किशोरावस्था जबलपुर में जहाँ पिताजी टी बी सेनिटोरियम में चीफ मेडिकल आफिसर थे ; उत्तर प्रदेश एवं राजस्थान में स्नातक / स्नातकोत्तर कक्षाओं में अध्यापन करने के पश्चात् भारतीय स्टेट बैंक , केन्द्रीय कार्यालय, मुंबई में राजभाषा विभाग के अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त ; सेवानिवृत्ति के पश्चात् भी बैंक में सलाहकार ; राष्ट्रीय बैंक प्रबंध संस्थान, पुणे में प्रोफ़ेसर - सलाहकार ; एस बी आई ओ ए प्रबंध संस्थान , चेन्नई में वरिष्ठ प्रोफ़ेसर ; अनेक विश्वविद्यालयों एवं बैंकिंग उद्योग की विभिन्न संस्थाओं से सम्बद्ध ; हिंदी - अंग्रेजी - संस्कृत में 500 से अधिक लेख - समीक्षाएं, 10 शोध - लेख एवं 40 से अधिक पुस्तकों के लेखक - अनुवादक ; कई पुस्तकों पर अखिल भारतीय पुरस्कार ; राष्ट्रपति से सम्मानित ; विद्या वाचस्पति , साहित्य शिरोमणि जैसी मानद उपाधियाँ / पुरस्कार/ सम्मान ; राजस्थान हिंदी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर का प्रतिष्ठित लेखक सम्मान, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान , लखनऊ का मदन मोहन मालवीय पुरस्कार, एन सी ई आर टी की शोध परियोजना निदेशक एवं सर्वोत्तम शोध पुरस्कार , विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का अनुसन्धान अनुदान , अंतर -राष्ट्रीय कला एवं साहित्य परिषद् का राष्ट्रीय एकता सम्मान.

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