कहो कौन्तेय-१९

विपिन किशोर सिन्हा

(द्रौपदी स्वयंवर के उपरान्त हस्तिनापुर की राजसभा)

मंत्रणा-समिति की सलाह दुर्योधन और कर्ण को सह्य नहीं थी। किन्तु सब मौन थे। निर्णय का अधिकार धृतराष्ट्र का था। निर्णय के पूर्व ही कर्ण बोल पड़ा –

“महाराज! भीष्म और द्रोणाचार्य को आपने सदैव धन और सम्मान प्रदान किया है। यही नहीं, उन्हें अपना परम हितैषी मानकर, सभी अवसरों पर उनसे परामर्श भी लिया करते हैं। इसके उपरान्त भी यदि ये गुरुजन, भले की सलाह न दें, इससे बढ़कर आश्चर्य की बात और क्या हो सकती है? जो अपने अन्तःकरण के दुर्भाव को छुपाकर दोषयुक्त हृदय से कोई सलाह देता है, वह अपने उपर विश्वास करने वाले साधु पुरुषों के अभीष्ट कल्याण की सिद्धि कैसे कर सकता है?

वर्षों पूर्व मगध राज्य की राजधानी राजगृह में अम्बुवीच नाम से प्रसिद्ध एक राजा राज करते थे। दुर्भाग्य से वे अस्वस्थ रहा करते थे। उनकी कोई भी इन्द्रिय कार्य करने में समर्थ नहीं थी। वे एक स्थान पर पड़े-पड़े लंबी सांसें खींचा करते थे, अत: प्रत्येक कार्य में उन्हें मंत्री के अधीन रहना पड़ता था। उनके मंत्री का नाम था महाकर्णि। वह वहां का एकमात्र राजा बन बैठा। उसे सैनिक बल प्राप्त था, अतः अपने को सबल मान राजा की अवहेलना करने लगा। वह मूढ़ मंत्री राजा के उपयोग में आने योग्य स्त्री, रत्न, धन तथा ऐश्वर्य भी स्वयं भोगता था। उसका लोभ निरन्तर बढ़ता चला गया। एक दिन उसने पूर्ण रूप से राज्य हड़पने की योजना बनाई। अधिकांश सैन्य-बल उसके समर्थन में था लेकि प्रजा राजा के साथ थी। वे प्रजा में अत्यन्त लोकप्रिय थे। अपनी दुर्दशा का कारण, निरंकुश महाकर्णि को ही मानती थी। जनता ने विप्लव कर दिया। एक बड़ा सैन्य-बल स्थिति की गंभीरता परख राजा के साथ हो गया। दुष्ट मंत्री मारा गया। राजा का राजत्व भाग्य के कारण सुरक्षित रहा। भाग्य से बढ़करत दूसरा कोई सहारा नहीं हो सकता। सारे कर्म भाग्य से प्रेरित होते हैं। इस समय महाराज द्रुपद पर आक्रमण कर पाण्डवों को बन्दी बना लेने का कार्य भी भाग्य प्रेरित हो सकता है। यदि आपके भाग्य में राज्य का विधान है, तो वह आपके पास ही रहेगा। यदि नहीं है, तो यत्न करके भी उसे आप प्राप्त नहीं कर पाएंगे।

हे राजन! आप बुद्धिमान हैं। अतः सभी आयामों पर गहन विचार मन्थन कर निर्णय लें। सलाह देने वाले मंत्रियों की साधुता पर भी विचार करना चाहिए। किसने दूषित हृदय से परामर्श दिया है और किसने पवित्र हृदय से, इसका निर्णय भी राजा के अधीन है।”

सभा-जन स्तब्ध रह गए। स्पष्ट शब्दों में हस्तिनापुर की राजसभा में आज से पूर्व किसी ने भी पितामह भीष्म की निष्ठा पर संदेह नहीं व्यक्त किया था, आचार्य द्रोण की साधुता पर उंगली नहीं उठाई थी। कर्ण की यह कटूक्ति दुर्योधन को भी अच्छी नहीं लगी। उसने संकेत से उसे मौन रहने का निर्देश दिया। कर्ण मौन हो गया। महाराज धृतराष्ट्र का मुखमण्डल भावहीन था। वे एक पाषाण की भांति स्थिर थे। महात्मा विदुर उद्विग्न थे। वे कुछ कहना तो चाहते थे लेकिन बिना मांगे सलाह वे नहीं देते थे। अचार्य द्रोण से नहीं रहा गया। वे इस अपमान को सह नहीं सके। उन्होंने कर्ण को संबोधित करते हुए कहा –

“मूढ़मति कर्ण! विद्याध्ययन के समय से ही तेरी गतिविधियों पर मेरी सूक्ष्म दृष्टि रही है। तेरे गुण-दुर्गुण, स्वभाव, चरित्र, पराक्रम, भीरुता और त्रुटियों का जितना ज्ञान मुझे है, उतना तुझे भी नहीं है। तू मेरा शिष्य रहा है। आज मेरी निष्ठा पर संदेह उत्पन्न कर, कैसी गुरुदक्षिणा चुका रहा है तू? ऐसी बातें क्यों करता है तू? तुझे मुझसे अधिक कौन जानता है? पाण्डवों के लिए तेरे मन में जो द्वेष संचित है, उसी से प्रेरित हो मेरी राजनिष्ठा को दोषयुक्त बता रहा है।

बचपन से ही तू अर्जुन से स्पर्धा करता है। स्वस्थ स्पर्धा सदैव प्रशंसनीय होती है लेकिन अस्वस्थ स्पर्धा मनुष्य में ईर्ष्या-द्वेष उत्पन्न करती है जो बुद्धि के विकास को कुण्ठित करती है। शिक्षा समाप्ति के पश्चात संपन्न परीक्षा में तुम लक्ष्यभेद में सफल नहीं रहे – अर्जुन ने दक्षतापूर्वक इसे संपन्न किया। मेरी गुरुदक्षिणा चुकाने हेतु आत्मश्लाघा करते हुए, सेना के साथ द्रुपद को बन्दी बनाने के लिए पांचाल गए। वहां से पराजित होकर लौटे। अर्जुन ने भ्राताओं के साथ यह असंभव-सा कार्य बड़ी सुगमता से पूर्ण किया। रंगभूमि में तुमने अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने हेतु, अर्जुन को द्वंद्वयुद्ध की चुनौती दी थी। भगवान भास्कर के अस्ताचलगामी हो जाने के कारण तुम्हारी यह इच्छा पूरी नहीं हो सकी। लेकिन द्रौपदी के स्वयंवर के अवसर पर तुम और अर्जुन आमने-सामने थे। तुम्हारे नेत्रों के सामने तुम्हारा पुत्र सुदामन, अर्जुन के हाथों वीरगति को प्राप्त हुआ। तुम उसकी रक्षा नहीं कर सके। सबने देखा – तुम धनुष उठा रहे थे, अर्जुन तुम्हारी प्रत्यंचा काट दे रहा था। तुम आक्रमण ही नहीं कर पा रहे थे। तुम लाचार हो गए। पराजय स्वीकार करने के अतिरिक्त, तुम्हारे पास कोई विकल्प नहीं था। एक योद्धा के लिए सबसे अप्रिय विकल्प – पराजय स्वीकार की तुमने। अर्जुन ने तुझे जीवन-दान दिया। डींग मारने और बड़बोलेपन से युद्ध नहीं जीते जाते। तुम्हारी हीनता की भावना ने तुम्हारे अंदर ईर्ष्या और द्वेष की ज्वाला भड़का रखी है। अपने अन्यायपूर्ण प्रतिशोध के लिए तू दुर्योधन को पासा बना रहा है। तुझे अच्छी तरह ज्ञात है कि पाण्डवों से प्रत्यक्ष युद्ध में दुर्योधन का विनाश निश्चित है। तू कैसा मित्र है रे, जो मित्र को परोक्ष रूप से विनाश का परामर्श देता है। तुम न तो एक उत्तम मित्र हो, न उत्तम सलाहकार हो, न उत्तम योद्धा हो और न ही उत्तम वृत्ति वाले पुरुष हो।

कर्ण! मैं अपनी समझ से कुरुकुल की वृद्धि करने वाली परम हित की बात करता हूं। यदि तू इसे दोषयुक्त मानता है, तो बता क्या करने से कौरवों का परम हित होगा?”

कर्ण के पास कोई उत्तर नहीं था। सिर झुकाए शान्त भाव से अपने आसन पर बैठा रहा।

अब महात्मा विदुर की बारी थी। धृतराष्ट्र ने उनसे अपनी सम्मति देने का अग्रह किया। महात्मा विदुर ने दृढ़ स्वर में अपने विचार प्रकट किए –

“राजन! आपका हित चाहने वाले, परिवार के ज्येष्ठ पुरुष, सम्मानित आचार्य, मंत्रियों और बंदु-बांधवों का यह कर्तव्य है कि वे आपको संदेहरहित हित की बात बताएं। लेकिन आप सुनना नहीं चाहते, इसलिए आप पर उनके परामर्श का प्रभाव नहीं पड़ रहा है। कुरुश्रेष्ठ शान्तनुनन्दन भीष्म तथा आचार्यश्रेष्ठ द्रोण ने आपके लिए उत्तम हितकारी परामर्श दिया है। किन्तु राधानन्दन कर्ण उसे आपके लिए हितकारी नहीं मानते। महाराज मैं बहुत सोचने, विचारने पर भी आपके किसी ऐसे परम सुहृद व्यक्ति को नहीं देखता जो बुद्धि और विवेक में इन महापुरुषों से अधिक हो। राजेन्द्र। अवस्था, बुद्धि और ज्ञान-शास्त्र – सभी बातों में ये दोनों श्रेष्ठ जन अतुलनीय हैं। धर्मपालन और सत्यवादिता में ये पुरुष सिंह दशरथनन्दन राम तथा राजा गय के समतुल्य हैं। इन्होंने पूर्व में कभी ऐसा परामर्श नहीं दिया जो आपके लिए अनिष्टकारी सिद्ध हुआ हो। इसके विपरीत जो लोग इन दोनों महापुरुषों की मंत्रणा पर आक्षेप लगा रहे हैं, उनकी मंत्रणा की विवेचना करें। पाण्डवों को लाक्षागृह में भस्म करने की सलाह जिन लोगों ने दी, उनका वास्तविक मन्तव्य पहचानने का प्रयत्न करें महाराज! आज हस्तिनापुर के नगर-नगर, ग्राम-ग्राम में, चौराहे पर, हाट में, बालक, युवक, वृद्ध, बालिका, वनिता, सबकी जिह्वा पर इस षड्यंत्र की चर्चा है। आप अपने उत्तरदायित्व से पलायन नहीं कर सकते। अगर अच्छे कार्य का श्रेय राजा को प्राप्त होता है, तो बुरे कार्यों का दायित्व दूसरों पर कैसे थोपा जा सकता है? दुर्योधन, कर्ण और शकुनि द्वारा दिए गए परामर्श का क्रियान्यवन तो आपके ही आदेश से हुआ था। पुरोचन के हाथों जो कुछ कराया गया, उससे आपका अपयश चारो ओर फैल गया है। उस कलंक को धो डालने का सुअवसर दैवयोग से प्राप्त हुआ है। उसका उपयोग करें महाराज! जो लोग युद्ध द्वारा पाण्डवों को पराजित कर बन्दी बनाने के दिवास्वप्न देख रहे हैं, क्या उनको पता नहीं है कि दाएं, बाएं, दोनों हाथों से बाण-वर्षा करने वाले कुन्तीपुत्र धनन्जय को इस पृथ्वी पर कोई जीत नहीं सकता। दस हजार हाथियों के समान बलवान महाबाहु भीमसेन को युद्ध में क्या देवता भी पराजित कर सकते हैं? युद्ध-कला में निपुण यमराज के पुत्रों की भांति, महान पराक्रमी नकुल-सहदेव क्या पराजित हो सकते हैं? जिस ज्येष्ठ पाण्डव युधिष्ठिर में धैर्य, दया, क्षमा, सत्य और पराक्रम आदि गुण नित्य निवास करते हैं, उन्हें रणभूमि में कैसे परास्त किया जा सकता है? कांपिल्यनगर में, पांचाली के स्वयंवर में लक्ष्यभेद के पश्चात आर्यावर्त्त के समस्त नरेशों ने युद्ध का बिगुल बजाया था। एक ओर थे घातक अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित भरतभूमि के दुर्योधन, शल्य, शिशुपाल, जरासंध, कर्ण इत्यादि समस्त नरेश और दूसरी ओर थे ब्राह्मण वेशधारी निःशस्त्र भीम और अर्जुन। न भीम के पास गदा थी और न अर्जुन के पास अपना धनुष। इस घनघोर युद्ध के परिणाम से आप भी अवगत हैं, मैं भी अवगत हूं। वहां पुत्र-वध के पश्चात भी पीठ दिखाकर युद्धभूमि छोड़ने वाले वीर, आपको युद्ध की सलाह दे रहे हैं। मुझे कहने में तनिक भी संकोच नहीं है कि दुर्योधन, कर्ण और सुबल पुत्र शकुनि अधर्मपरायण, खोटी बुद्धिवाले और मूर्ख हैं। अतः उनके परामर्श न मानिए महाराज। यह कटु सत्य आपको और उन्हें भी अप्रिय लगेगा लेकिन मैं ऐसा कहने के लिए विवश हूं। स्वादिष्ट और गुणकारी औषधि दुर्लभ होती है। सत्य भी कटु होता है। आप कुरुश्रेष्ठ शान्तनु नन्दन भीष्म और आचार्य द्रोण के परामर्श के अनुसार ही आचरण करें, यही मेरी सम्मति है।”

मन्त्रणा कक्ष में सर्वत्र शान्ति छा गई। महात्मा विदुर के कथन के विपरीत विचार व्यक्त करने का साहस किसी में नहीं रहा। कुछ क्षणों तक विचारों में डूबे रहने के उपरान्त महाराज धृतराष्ट्र ने ही मौन भंग किया –

“विदुर! पितामह भीष्म परम ज्ञानी हैं और द्रोणाचार्य तो ऋषि ही ठहरे। अतः इनके वचन परम हितकारक हैं। तुमने भी जो कुछ कहा, वह सत्य है। कुन्ती के महान पराक्रमी महारथी पुत्र जैसे पाण्डु के पुत्र हैं, उसी प्रकार धर्म की दृष्टि से मेरे भी हैं। इसमें संशय नहीं है। इस राज्य पर जितना अधिकार मेरे पुत्रों का है, उतना ही उनका भी है। इसलिए हे भरतवंशी विदुर! राजकोष से कुलवधू पांचाली, देवी कुन्ती तथा समस्त पाण्डवों के लिए जो भी उपयुक्त समझो, रत्न और अलंकारादि की भेंट लेकर महाराज द्रुपद के पास जाओ और हस्तिनापुर की कुलवधू को पूर्ण राजकीय सम्मान के साथ विदा कराकर श्वसुर गृह में ले आओ। मैं अनुजवधु देवी कुन्ती, अनुजपुत्रों और देवरूपिणी वधू कृष्णा के स्वागत के लिए व्याकुल हूं।”

क्रमशः

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