कहो कौन्तेय-२२

विपिन किशोर सिन्हा

(व्रत भंग और अर्जुन का वन गमन)

खाण्डवप्रस्थ के रूप में हमें हस्तिनापुर राज्य का आधा भाग प्राप्त हुआ जिसमें पठारों और अनुर्वर भूमि की बहुलता थी। श्रीकृष्ण के निर्देश पर हमने इसे स्वीकार किया। एक शुभ मुहूर्त्त में महर्षि व्यास ने स्वयं धरती नाप कर शास्त्रविधि से भूमिपूजन संपन्न कराया। श्रीकृष्ण के निर्देशन में हमारे राजमहल का निर्माण कार्य आरंभ हुआ। द्वारिका को शून्य वैभव से शिखर तक पहुंचाने का अगाध अनुभव उस सांवले सलोने युग पुरुष के पास था। उनकी दिव्य दृष्टि, अनुभव, व्यवस्था, निर्देशन और कल्पनाशीलता का परिणाम था – हमारा स्वर्ग से सुन्दर राजमहल। इन्द्रप्रस्थ नाम रखा गया इसका – चारो ओर से सुरक्षित, चहुंओर समुद्र के समान चौड़ी खांई और गगनचुंबी चहारदीवारी से युक्त। शोभा और सुरक्षा दोनों अतुलनीय। बड़े-बड़े उद्यान, उपवन, हरे-भरे फूल-पत्तों से लदे वृक्ष नेत्रों को सुख पहुंचाते थे। पक्षियों का कलरव निराला था, कहीं कोकिलाएं कुहू-कुहू करती थीं, कहीं पपीहे ’पी कहां’ की रट लगाते थे, तो कहीं मस्त मयुर नृत्य में मगन रहते थे। भांति-भांति के शीशमहल, लता कुंज, चित्रशालाएं, कृत्रिम पहाड़, झरने, बावलियां स्थान-स्थान पर परिसर की शोभा में चार चांद लगा रहे थे, श्वेत, लाल, पीले, नीले कमल सुगन्धि का विस्तार कर रहे थे।

नगर बस गया। इन्द्रप्रस्थ दिन-प्रतिदिन उन्नति कर रहा था। श्रेष्ठ विद्वानों, कलाकारों, शिल्पकारों, ब्राह्मणों का स्वागत करने हेतु सभी प्रस्तुत थे। एक आदर्श, सर्व सुविधा संपन्न राज्य के रूप में इन्द्रप्रस्थ ख्याति प्राप्त कर रहा था। हमें पूरी तरह स्थापित कर एवं संतुष्ट होने के उपरान्त ही अग्रज युधिष्ठिर से अनुमति ले, श्रीकृष्ण ने भ्राता बलराम के साथ द्वारिकापुरी के लिए प्रस्थान किया।

इन्द्रप्रस्थ में निवास करते कई वर्ष बीत गए। सुख के दिन पंख लगाकर निकल जाते हैं, दुख के दिन पहाड़ बन जाते हैं। द्रौपदी का स्वयंवर, अग्रज का राज्याभिषेक – ऐसा लगता था, जैसे कल ही की घटना हो। द्रौपदी को पाकर हम सभी अत्यन्त प्रसन्न थे। उसकी व्यवहार कुशलता अद्वितीय थी – सदैव सभी के अनुकूल रहना उसकी सबसे बड़ी विशेषता थी। मुझे यह भ्रान्ति थी कि एक व्यक्ति सारे व्यक्तियों को प्रसन्न नहीं रख सकता। लेकिन कृष्णा के सान्निध्य ने इसे मिथ्या सिद्ध कर दिया। पूर्वाग्रहमुक्त पात्रों को सद्व्यवहार द्वारा संतुष्ट करना असंभव नहीं है। अग्रज युधिष्ठिर ने मुझे राज्य की रक्षा का दायित्व सौंपा था। मैं भक्तिभाव और पूरी निष्ठा से अपना कार्य करता था। एक दिन कुछ दस्युओं ने एक ब्राह्मण के गोधन का अपहरण कर लिया। इन्द्रप्रस्थ में चोरी, और वह भी ब्राह्मण की गायों की? क्रोध से मेरा रक्त उबल गया। मैंने स्वयं गायों की रक्षा और द्स्युओं को दंड देने का संकल्प लिया। जिस स्थान पर मुझे सूचना मिली, उसके सबसे निकट महाराज युधिष्ठिर का कक्ष था। मेरे पास विचार हेतु समय नहीं था। अत्यन्त त्वरित गति से मैं कक्ष में गया, वहां रखे अस्त्र-शस्त्रों को उठा, अपने अभियान पर निकल पड़ा। दस्युओं ने कोई विशेष प्रतिकार नहीं किया। उन्हें बन्दी बना, गायों के साथ मैं राजमहल लौटा।

गायें ब्राह्मण देवता को सौपं दी गईं, मेरे व्रत भंग के मूल्य पर। महाराज युधिष्ठिर द्रौपदी के साथ अपने कक्ष में थे – जब मैंने अस्त्र-शस्त्र हेतु वहां प्रवेश किया था। मैं व्रत-भंग का दोषी था। मैंने द्रौपदी और युधिष्ठिर के निर्धारित सहवास की अवधि में, बिना अनुमति के उनके कक्ष में प्रवेश किया था। मुझे प्रायश्चित करना ही था। प्रेय और श्रेय में मैंने स्वयमेव श्रेय को चुना। पांचाली के हृदय को तो आघात लगा ही होगा। उसके नेत्रों से गिरती अश्रू-बूंदें धरती सोख रही थी, इसे अनदेखा करना ही मेरा समसामयिक कर्त्तव्य था। उदारमना युधिष्ठिर और अभिन्न श्रीकृष्ण ने मुझे व्रत-भंग के प्रायश्चित से मुक्त करने का विधान किया लेकिन मेरी आत्मा को मर्यादा का उल्लंघन स्वीकार्य नहीं था। अपनी प्राणप्रिया द्रौपदी से बारह वर्ष का वियोग! कल्पना मात्र ही हृदय को विदीर्ण कर रही थी। लेकिन हृदय और बुद्धि, मन और मस्तिष्क में से किसी एक का ही चुनाव करने की विवशता हो, तो यह पाण्डुपुत्र पार्थ बुद्धि का ही चुनाव करता आया था। समस्त भावों को श्रीकृष्ण के चरणों में अर्पित कर मैंने वनवास का निर्णय लिया। सभी भ्राताओं और माता कुन्ती के लिए यह अत्यन्त आकस्मिक था। जन्म से लेकर आज तक मैं माता से अलग इतनी लंबी अवधि के लिए कभी नहीं रहा। एकाकी होकर अश्वत्थ वृक्ष के नीचे मैं रोया भी, लेकिन अपनी विवशता छिपाए ही रखी, सभी से, सिवाय उस लीलाधारी श्रीकृष्ण के जो मेरी आत्मा का अभिन्न अंग था, जिसके विश्वास पर मैं छोड़े जा रहा था अपनी कृष्णा को।

वन के लिए प्रस्तुत हुआ मैं क्या जानता था कि विधाता मुझे भविष्य की तैयारी के लिए पर्याप्त अवकाश दे विहँस रहा है।

प्रकृति सदा मन की दशाओं के अनुरूप ही दीख पड़ती है। वन में मेरे प्रियावियोग के सहचर बने विभिन्न जाति-प्रकृति के वृक्ष, मेघ, स्रोतस्विनियां, वन्य जीव एवं मेरा कवि मन। वन मेरे जीवन के अभिन्न अंग थे। जन्म से लेकर बचपन के अनेक वर्ष वन में ही तो बिताए थे, लाक्षागृह से निकलने के पश्चात एक वर्ष वन-वन ही तो मारे-मारे फिरे थे। तीसरी बार पुनः वन का आश्रय लेना पड़ा। लेकिन मैं प्रसन्न था। गुरु द्रोण के आश्रम में शस्त्र-विद्या का संपूर्ण ज्ञान तो प्राप्त हुआ था – शास्त्र-विद्या में मैं निपुण नहीं था। इस वनवास में मुझे वेद-वेदांग मर्मज्ञ, आध्यात्मिक, भगवद्भक्त, त्यागी, कथावाचक, ब्राह्मणों और वाणप्रस्थियों के सान्निध्य, आतिथ्य, मार्गदर्शन और आशीर्वाद प्राप्त हुए। मेरी ज्ञान-पिपासा शान्त हुई। मैंने सहस्रों वन, सरोवरों, नदी, पुण्यतीर्थ, देश एवं समुद्र के दर्शन किए। मुझे नागकन्या उलूपी एवं मणिपुर की युवराज्ञी चित्रांगदा भार्या रूप में प्राप्त हुईं। वभ्रुवाहन के जन्म के पश्चात मैंने चित्रांगदा से विदा ली। मेरा मन श्रीकृष्ण से मिलने के लिए व्याकुल हो रहा था। मैंने शीघ्र प्रभासक्षेत्र के लिए प्रस्थान किया।

मेरे प्रभासक्षेत्र में पहुंचने के पूर्व ही श्रीकृष्ण का आगमन वहां हो चुका था। मैंने पूर्व सूचना नहीं दी थी। मुझे आभास हो रहा था, वे अन्तर्यामी हैं। हमदोनों परस्पर गले मिले, कुशल-मंगल, तीर्थयात्राओं पर विस्तार से चर्चा हुई। दोनों मित्र रैवतक पर्वत पर बहुत दिनों तक एक साथ रहे। कितने आनन्द से परिपूर्ण थे वे दिन। आज सोचता हूं, काश! उनकी पुनरावृत्ति संभव हो पाती।

क्रमशः

 

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