कहो कौन्तेय-२७

विपिन किशोर सिन्हा

(हस्तिनापुर की द्यूत-सभा)

स्मरण है मुझे महाभारत युद्ध का प्रथम दिवस – दोनों सेनाओं के मध्य में खड़ा हुआ जब मैं मोहग्रस्त हुआ था तो श्रीकृष्ण ने मुझे ’नपुंसक’ कहकर संबोधित किया था। उनके इस सम्बोधन का प्रतिकार मुझे करना चाहिए था – आर्यावर्त के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर को उसी का सारथि नपुंसक कहकर सम्बोधित कर रहा था। लेकिन मुझे तनिक भी क्रोध नहीं आया। मैं उनका मन्तव्य शीघ्र ही पहचान गया। वे युद्ध की बेला में मोहग्रस्त पार्थ को अप्रिय शब्द सुना, उसके सुप्त क्षत्रियत्व को जागृत करना चाहते थे। वे चाहते थे कि उनके शब्दों की प्रतिक्रिया में, मैं शीघ्र ही गाण्डीव उठाकर युद्ध के लिए सन्नद्ध हो जाऊं। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मैं शान्त चित्त से अपने संदेहों को उनके सम्मुख रखता गया। मुझे मोहमुक्त करने के लिए उन्हें युद्धभूमि में ही गीता के अठारह अध्याय सुनाने पड़े। आज मैं सोचता हूं तो पाता हूं कि उस समय मैं निश्चित रूप से मोहग्रस्त था, नपुंसकता को प्राप्त नहीं था। जीवन में यदि गाण्डीवधारी पृथापुत्र अर्जुन ने कभी नपुंसकता का प्रदर्शन किया था तो वह अवसर था – पांचाली का चीरहरण। अब मैं सोचता हूं, अनुशासनप्रियता का अर्थ अत्याचार सहन तो नहीं होता? मैं निश्चित रूप से माता कुन्ती और अग्रज युधिष्ठिर के अनुशासन से बंधा था। मैंने प्रतिज्ञा ले रखी थी कि इन दोनों की इच्छाओं और आज्ञाओं का अक्षरशः पालन करूंगा। लेकिन द्रौपदी के प्रति क्या मेरा कोई दायित्व नहीं था? वह पांचो पाण्डवों की भार्या अवश्य थी लेकिन लक्ष्यभेद करके कुलवधू बनानेवाला मैं ही था। उसकी रक्षा का सर्वाधिक दायित्व मेरा ही था। जिस समय उसे मेरी सबसे अधिक आवश्यकता थी, मैं मूक रहा। क्या हो गया था इस धरा के महापराक्रमी, महाधनुर्धर, गाण्डीवधारी धनंजय को? बचपन से कठोर नियम, कष्टसाध्य यत्नों से प्राप्त पुरुषार्थ एक ही क्षण में पराभव के काले कुण्ड में गोते लगा रहा था। मैं द्रोणाचार्य का प्रिय शिष्य, श्रीकृष्ण का परम सखा, शत्रुओं का काल, पांचाली का प्रिय पति महान से महान विपत्तियों को धैर्यपूर्वक पराक्रम द्वारा सदा के लिए समाप्त कर देनेवाला पृथापुत्र पार्थ! एक ही क्षण में पराजित, अपमानित नपुंसक अर्जुन में परिवर्तित हो गया। मैं भीत, कापुरुष था, उस क्षण, अर्जुन नहीं था। विच्छुरित वह्नि सुलग रही थी नत नयनों में। उत्तरीयविहीन रोमिल वक्षस्थल, सभामध्य नग्न था पांचो पाण्डवों का। समय आगे नहीं बढ़ रहा था। धरती का घूर्णन स्थगित हो गया था। क्या सोच रहा था उस समय जब मेरी प्रिया पांचाली का चीरहरण, भरी सभा में किया जा रहा था। सोते-जागते, उठते-बैठते, यही प्रश्न करता आया हूं, अपने आप से। द्रौपदी क्या मात्र मेरी भोग्या स्त्री थी, मेरा सख्य भाव नहीं था उसके साथ? हम क्या प्रतिश्रुत नहीं थे एक दूसरे के लिए? अग्नि के समक्ष क्या वचन नहीं दिया था उसे, इसी मुख से कि जीवनपर्यन्त उसकी रक्षा करूंगा? क्या कर पाया रक्षा उसकी? आत्मसम्मान हत हुआ, सभामध्य मेरी प्रिया का घर्षण किया गया – मैं निर्वाह कर पाया क्या उन वचनों का? मैं तो नपुंसक ही हूं न, सखा श्रीकृष्ण! मुझे कैसे विस्मृत हो गए द्रौपदी के भावविह्वल नेत्र जिनसे गिरते अश्रुओं ने वन-विहार की वेला में मुझसे कहा था –

“तुम्हीं मेरे पति हो अर्जुन। तुम्हीं ने मेरा वरण किया है। पंच पाण्डवों की पत्नी बनना तो नियति की क्रीड़ा मात्र है। मेरा हृदय, मेरी अभिलाषाएं, मेरा जीवन तो तुम्हीं से बद्ध है। तुम मुझे न छोड़ना अर्जुन।”

मैंने भावातिरेक में उसे आलिंगन्बद्ध करते हुए कहा था –

“वचन देता हूं प्रिये। तुम ही आजीवन मेरे हृदय सिंहासन की साम्राज्ञी रहोगी। मृत्यु के बाद भी यदि कोई लोक है, तो वहां भी तुम्हारा हाथ थामे ही जाऊंगा।”

द्रौपदी की आंखों में मेघ भरे आकाश-सा कुछ तिर आया था। मैंने देखा – उसकी दृष्टि में सैकड़ों नीलकमल खिल आए थे। मेघ सम घनी केशराशि की वेणी के पुष्प मन्द हास कर हमारे प्रणय बन्ध के साक्षी बन रहे थे।

वचन देना जितना सहज था, क्या उतना ही सहज न था उसका निर्वहन करना? मैं भरी सभा में कौरवों का प्रतिकार न कर सका। हारे तो अग्रज युधिष्ठिर, क्रीत हुए हम पाण्डव, प्रताड़ित, अपमानित हुई पांचाली। तुमने ठीक कहा श्रीकृष्ण – मैं नपुंसक ही तो हूं। मैंने पीठ दिखाई जीवन के युद्ध में। और कोई जाने न जाने, मैं जानता हूं कि मैं अस्तित्वहीन था, अस्मिताहीन था जब मेरी दृष्टि के सम्मुख एक नारी के चीरहरण का लज्जास्पद कृत्य किया जा रहा था और मैं मस्तक झुकाए, नेत्रों को पृथ्वी में गड़ाए, जीवन के सबसे बड़े अपमान का गरल चुपचाप पी रहा था। यह मेरी सहनशक्ति नहीं थी जिसपर मैं गर्व कर सकूं – यह मेरी नपुंसकता थी, जिसके लिए जीवन भर मैं लज्जित रहूंगा। पांचाली महान नारी है, उसने मुझे क्षमा कर दिया है लेकिन मैं क्या स्वयं को क्षमा कर पाऊंगा? शायद कभी नहीं।

दुर्योधन की आज्ञा से दुशासन पांचाली को घसीटकर सभाकक्ष में ला रहा था। एक कान में द्रौपदी की आर्त्त पुकारें सुनाई पड़ रही थीं, तो दूसरे कान में दुर्योधन, कर्ण और दुशासन के घृणित अट्टहास के स्वर टकरा रहे थे। प्रवेश द्वार को दोनों हाथों से पकड़, चौखट पर पांव टिकाकर, सभाकक्ष में आने का द्रौपदी ने पूरी शक्ति से प्रतिकार किया लेकिन वह अबला दुष्ट दुशासन से कबतक संघर्ष करती? वह लाचार छिन्नमूल सी हो रही थी। अपने एकमात्र परिधान को अतयन्त कठिनाई से अपने वक्ष पर टिकाए रखने की चेष्टा कर रही थी। माथे का आंचल फिसल गया था। मुख, ग्रीवा, बाहु – सब उन्मुक्त थे। केश बिखर चुके थे। तूफान के थपेड़ों को सह्ती लता की तरह वह लज्जा और क्रोध से कांप रही थी। चक्रवर्ती महाराज युधिष्ठिर की पटरानी, पांच पाण्डवों की प्राणप्रिया द्रौपदी, इन्द्रप्रस्थ की महारानी, पांचाल देश की राजकुमारी, तेजस्वी धृष्टद्युम्न की प्राणाधिक प्रिय भगिनी, भरतवंश की कुलवधू और पूर्ण पुरुष श्रीकृष्ण वासुदेव की सखी, आज एकवस्त्रा होकर, रजस्वला अवस्था में, असहाय भाग्यहीन नारी की तरह सभाकक्ष में सबके सामने उपस्थित थी।

धिक्कार था मेरे पौरुष पर। धिक्कार था मेरे पराक्रम पर। जो क्षत्रिय अपनी पत्नी की शील की रक्षा नहीं कर पाया, उसके क्षत्रियत्व पर धिक्कार। मुझे ऐसा लग रहा था, मेरे शरीर पर किसी ने तप्त लौह का घोल उंड़ेल दिया हो। मैं फिर भी मूक था। लेकिन भीम को कौन रोक सकता था? उन्होंने हाथ की गदा पैरों के पास पत्थर पर पटकी और दुशासन की ओर बढ़ने के पूर्व घोषणा की –

“मूढ़ दुशासन! जिस अपवित्र भुजाओं से तूने पांचाली की पवित्र केशराशि को पकड़, उसे घसीटा है, उन भुजाओं को मैं जड़ से उखाड़कर आकाश में फेंक दूंगा और जिस छाती को दर्प से फुलाकर तू मेरी पतिव्रता पत्नी को एकवस्त्रा और रजस्वला अवस्था में यहां खींच लाया है, तेरी उसी छाती को अपनी गदा से फोड़, उससे प्रवाहित रक्त को मैं सार्वजनिक रूप से सोमरस की भांति गटागट पीऊंगा।”

अग्रज युधिष्ठिर ने शीघ्र ही भीम की भुजा पकड़, अपने पास बैठा लिया। दुशासन सुरक्षित बच गया। वह भीम से भयभीत था। सहमकर पीछे हट गया। तभी दुर्योधन ने अट्टहास किया –

“यह द्रौपदी आज से हमारी दासी है। इसे हमने द्यूत में, इसके पति इन्द्रप्रस्थ के पूर्व महाराज युधिष्ठिर को पराजित कर जीता है। इसका स्थान मेरे चरणों में है। लेकिन यह दासी चूंकि अत्यन्त सुन्दर, पूर्णयौवना और सुगन्धित है, इसलिए हम इसे तनिक ऊंचा आसन प्रदान करते हैं। इसे मेरी जंघा पर लाकर बैठा दो।”

जंघा को निर्वस्त्र करते हुए उसने द्रौपदी को उसपर बैठने का संकेत किया।

भीम के धैर्य का बांध टूट रहा था। उन्होंने गदा उठाकर पुनः प्रतिज्ञा की –

“अधर्मी दुर्योधन! तूने नीचता की पराकाष्ठा कर दी है। दर्प में उन्मत्त होकर अपनी जिस जंघे को तूने भरी सभा में मेरी पत्नी को दिखाया है, उसी जंघे को, गदा से चूर-चूर कर यदि मैंने तेरा वध नहीं किया, तो मुझे अपने पूर्वजों, पिता-पितमहों की श्रेष्ठ गति न मिले।”

वे गदा उठाकर दुर्योधन की ओर दौड़े। क्रोध से वे अपने होंठ चबा रहे थे। होंठ से टपकते रक्तकणों को सभाकक्ष के श्वेत प्रस्तर खण्डों पर चिह्नित होते स्पष्ट देखा जा सकता था। विशाल मांसल भुजाएं आवेश से फड़क रही थीं। मांसपेशियों में प्रवाहित रक्तध्वनि जैसे सुनाई पड़ रही हो। क्रुद्ध भीम दुर्योधन के निकट जा पहुंचे। नग्न जंघा ठोंकता, अट्टहास करता, कामुक दुर्योधन, पर स्त्री पर कुदृष्टि रखने वाला हमारा चचेरा भाई, जीवन के हर मोड़ पर हार का बदला कपट से चुकाने वाला, कुत्सित दुराचारी निःशस्त्र था। अगर युधिष्ठिर ने एक क्षण का भी विलंब किया होता, तो भैया भीम की गदा से क्षत-विक्षत दुर्योधन का शव सभाकक्ष में लुण्ठित दृष्टिगत होता।

क्रमशः

 

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