कहो कौन्तेय-३

विपिन किशोर सिन्हा

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मैंने आँखें बंद कर ली। सर्वप्रथम महर्षि दुर्वासा को प्रणाम किया, पश्चात प्रभात बेला में उगते हुए सूर्य की ओर दृष्टि उठाई और द्रूतगति से मंत्रों का उच्चारण प्रारंभ कर दिया। मन की संज्ञा धीरे-धीरे लुप्त होती चली गई और जब आँख खुली तो देखा, अतिशय तेजस्वी देदीप्यमान पुरुष कानों में स्वर्ण कुण्डल पहने, सुनहरी केशराशि का स्वामी वह विलक्षण अपने नेत्रों से तेजस्वी किरणें बिखेर रहा था। उसका आलोकित आभामंडल जिस पर दृष्टि ठहर नहीं पाती थी, मेरे आश्चर्य का रहस्य था। क्षणांश में मुझे भान हो गया कि ये तो मेरे अभीष्ट सूर्यदेव मेरे सामने सक्षात थे।

सूर्यदेव ने आशीर्वाद के लिए अपना दाहिना हाथ उपर उठाया और बोले, “मंत्र द्वारा मेरा आमन्त्रण करनेवाली पवित्र प्रकृति से समन्वित मानवी! मैं सूर्यदेव हूँ। दुर्वासा ऋषि के अभिमंत्र से प्रेरित हो आज तुमने मुझे स्मरण किया है। यह स्मरण निश्चय ही पुत्र-प्राप्ति के उद्देश्य से है।”

सूर्यदेव के मन्दस्मित मुख को भयमिश्रित आश्चर्य से ताकती कुन्ती के मुख से तब इतना ही निकल पाया –

“कौमार्यावस्था में पुत्र की प्राप्ति? अविवाहित मातृत्व? पिता क्या कहेंगे?” आसन्न विपत्ति के आभास मात्र से कुन्ती पीली पड़ने लगी। अत्यन्त कातर हो भगवान सूर्य से प्रार्थना करने लगी –

“समूची सृष्टि को प्रकाशित करनेवाले हे आदित्य! फल, फूल, वनस्पति, जीवमात्र को प्राण देनेवाले हे अरुण! महर्षि दुर्वासा ने मुझे आशीर्वाद स्वरूप देवताओं के आह्वान का मंत्र प्रदान किया। आज अल्पबुद्धि और स्त्रीसुलभ जिज्ञासा के कारण मैंने वही मंत्रोच्चार किया। मुझे इसके परिणाम की गंभीरता का शतांश भी ज्ञात नहीं था। मुझसे भयंकर अपराध हुआ। मैंने महर्षि के आशीर्वाद पर अविश्वास किया। अब मैं करबद्ध निवेदन करती हूँ कि आप मुझे क्षमा करें। मेरी अबोधता को विस्मृत कर दें। श्रेष्ठजन स्त्रियों के गुरुतर अपराध को भी तुच्छ समझकर क्षमा कर देते हैं।”

कुन्ती की क्षमायाचना ने सूर्यदेव को गंभीर कर दिया, बोले –

“शुभे! मेरा प्रत्यागमन नहीं हो सकता क्योंकि तुमने विशिष्ट मंत्र द्वारा मेरा स्मरण किया है। तुम्हारा आह्वान व्यर्थ होने पर तुम्हें ही पातक लगेगा। शुचिस्मिते! हमारे संयोग से उत्पन्न पुत्र दिव्य पुरुष होगा। माता अदिति के दिए हुए कुण्डलों और मेरे कवच को धारण किए हुए उसका जन्म होगा। उसका कवच कोई भी अस्त्र-शस्त्र भेद नहीं पाएगा। वह परम यशस्वी, दानवीर तथा स्वाभिमानी होगा। मेरी कृपा से तुम्हें दोष भी नहीं लगेगा। वह तुम्हारे कर्ण से उत्पन्न होगा और इस जगत में कर्ण नाम से विख्यात होगा। तुम निश्चिन्त रहो देवी! पुत्रजन्मोपरान्त पुनः कुमारीत्व की प्राप्ति स्वतः ही हो जाएगी।”

स्मृति सागर में डुबकियां लगाने लगी कुन्ती। शब्द धीर-धीरे मौन हो गए। दृश्य साकार हो गया —

कुन्ती का समूचा शरीर नहा उठा सूर्यदेव के प्रकाश सरोवर में। आँखें चुधियाँ रही थीं, वयःसन्धि पर खड़ी कुन्ती भला क्या जानती थी – एक जिज्ञासा का मूल्य चुकाना कितना भारी होता है? दुर्वासा ने आशीर्वाद स्वरूप यह कैसा मंत्र दिया – वरदान या अभिशाप? प्रकाश में आवेग से देहलता कांपी, थरथराहट…..भय की एक तीखी नोंक आपाद्मस्तक बेध गई। नयन भर आए विवशता के अश्रुओं से, यह क्या है सूर्यदेव! आँखें बंदकर बुदबुदाने लगी कुन्ती, “हे प्रभु! क्षमा करो, मेरी समस्त भूलों को क्षमा करो, हे दीनबन्धु!!”

लेकिन जब ईश्वर ही साक्षात हो, तो विनती किससे?

क्या उतना तेज सहने की सामर्थ्य थी कुन्ती में……..नहीं थी, फिर भी सहना पड़ा, वही नहीं और भी बहुत कुछ शिरोधार्य करना पड़ा — वह सब जिसे सहना नियति थी।

युधिष्ठिर के तीव्र निःश्वास ने कुन्ती के मौन को मुखर बना दिया –

“समय की पहाड़ी से दिन शिलाखंड की तरह लुढ़कते चले गए। नौ माह व्यतीत हो गए। उचित समय पर कर्ण का जन्म हुआ। उसके जन्म का रहस्य मेरे और मेरी प्राणप्रिया अभिन्न धात्री के अतिरिक्त किसी को ज्ञात नहीं हो सका। समाज और पिता के भय से धात्री से परामर्श कर, मैंने हृदय पर पत्थर रख नवजात शिशु को एक पेटिका में असंख्य स्वर्ण मुद्राओं के साथ बंद कर बहा दिया, अश्व नदी की चंचल धाराओं में। पेटिका हस्तिनापुर के राजकुमार धृतराष्ट्र के सारथि अधिरथ के हाथ लगी। बहती धाराओं से उसने उसे बाहर निकाला। वह निःसन्तान था। शिशु को पाकर हर्षित-मुदित हो मगन हो गया। दैव योग से पुत्र-रत्न उसे प्राप्त हुआ, उसके जीवन को इतना आनन्दमय बना दिया कि अधिरथ और राधा अकस्मात मिले कवच कुण्डलधारी शिशु को वर्षों का संचित स्नेह देने लगे। मेरा कर्ण सारथि के पुत्र के रूप में ही पले, कैसे भी पोषित हो – जीवित रहे – बस यही कामना थी मेरे मन में। धात्री ने बताया, अधिरथ और राधा को कोई निधि मिल गई है, मैंने कही परितृप्ति का श्वास लिया था तब।

कर्ण की जन्म की कथा ने स्तब्ध कर दिया सबको। प्रश्नातीत संवाद मौन थे। क्यों, कब, कहाँ जैसे शब्द पीछे छूट गए। कुरुकुल में ऐसी घटना! धर्मराज युधिष्ठिर क्या करेंगे अब! शान्तचित्त युधिष्ठिर का मन अपमान के आधिक्य से दग्ध होकर रक्ताभ नेत्रों से क्रोधाश्रु बहाने लगा। वे आँसू दुख के नहीं, बल्कि धिक्कार और क्रोध, पश्चाताप और रोष के थे। आवेग को बौद्धिक जामा पहनाकर जनसमूह के सामने ही प्रश्न कर बैठे —

“माते! कर्ण तो धीर-गंभीर उदधि थे। यशस्वी-तेजस्वी कर्ण अत्यन्त पराक्रमी थे। युद्ध में अर्जुन के अतिरिक्त इस धरा का कोई धनुर्धर उनका सामना नहीं कर सकता था। वे आपकी कुक्षि से उत्पन्न हुए औए इसलिए हम सबके अग्रज थे। आपने इस रहस्य को गोपन रखकर हमारा बहुत बड़ा अकल्याण किया है। आज कर्ण की मृत्यु से हम सबको अपार कष्ट हो रहा है। अभिमन्यु, द्रौपदी के पांचो पुत्र, पांचालवीर और कौरवों के निधन से मुझे जितना दुख पहुंचा है, उससे सौ गुणा क्लेश कर्ण की मृत्यु से हो रहा है। अब तो मुझे कर्ण का ही शोक है। उनके शोक की अग्नि में मैं जल रहा हूं। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि इस अग्नि में जलते हुए वाणी और विवेक भी मेरा साथ छोड़ देंगे। अगर युद्ध के पूर्व यह रहस्य आपने बता दिया होता, तो हम अपना सर्वस्व अपने उस यशस्वी अग्रज को अर्पित कर देते। फिर कुरुकुल को उच्छेद करनेवाला यह भीषण संहार भी नहीं होता। माते! अब एक और रहस्य खोलने का कष्ट करें कि क्या अग्रज कर्ण को यह रहस्य ज्ञात था? क्या आप उनसे कभी मिली थीं?”

परिस्थितियों से पराजित कुन्ती के वात्सल्य ने आज मौन तोड़ने की ठान ली थी. अश्रु पोंछ उन्होंने अपनी बात आगे बढ़ाई –

“पुत्र युधिष्ठिर, तुम पांचों उसे अपने भ्राता के रूप में आज से पूर्व नहीं जानते थे लेकिन कर्ण को यह ज्ञात था। पिता सूर्यदेव ने किशोरावस्था में उसकी उत्पत्ति का विवरण उसे बता दिया था। तुम्हारे परम हितैषी कृष्ण को भी यह रहस्य ज्ञात था और उसने युद्ध के पूर्व कर्ण से मिलकर तुमलोगों के पक्ष में आने का उससे आग्रह भी किया था। मैं भी युद्ध की पूर्वसंध्या में उसके पास गई थी, सन्धि कराने हेतु। मैंने उसे बताया कि तुम राधा के नहीं, मेरे पुत्र हो। युद्ध में अर्जुन के बाणों से तुम वीरगति को प्राप्त करो या तुम्हारे बाणों से अर्जुन, दोनों ही स्थितियों में वेदना तो तुम्हारी माँ कुन्ती को ही होगी। मैंने उसको युद्धविमुख होने और महासमर को रोकने के लिए अत्यन्त करुण स्वरों में विनती की लेकिन उसने मेरी अभिलाषा पूरी नहीं की। वह सन्धि के लिए सहमत नहीं हुआ। युद्ध के लिए हठ करता ही रहा।”

माँ से यह प्रसंग सुन युधिष्ठिर के भीतर क्रोधाग्नि की तीव्र लहर उठी। बोल ही तो उठे अकस्मात –

“सभी देवता सुनें, आकाश, धरती, वायु, जल, अग्नि सभी साक्षी रहें, मैं धर्मराज युधिष्ठिर समूची नारी जाति को यह शाप देता हूँ कि भविष्य में कोई भी स्त्री अपने हृदय की बात गोपन नहीं रख पाएगी।”

युधिष्ठिर ने भागीरथी के पवित्र जल से पुनः कर्ण को जलांजलि दी। उनका मूक विलाप देर तक भागीरथी को मथता रहा। विकल चित्त से सभी पांडव गंगा के तट पर आए।

युधिष्ठिर तो अपने मन की व्यथा व्यक्त कर पाए, क्रोध, दुख और आवेश में संपूर्ण नारी जाति को शाप भी दे डाला। उनके मन का बोझ कुछ कम हो गया होगा, लेकिन पार्थ! वह अपनी व्यथा किससे कहे? सदा मौन रहकर कर्त्तव्य पथ पर अग्रसर रहने वाले अर्जुन की आँखें मेघाछन्न थीं। मन विह्वल हो रहा था। वह आगे बढ़ा, भीड़ से अलग, अकेला। गंगा की रेत पर बैठ कभी अस्तप्राय सूर्य को देख रहा था, तो कभी लहरों पर प्रकट होती उनकी छाया को। गीता के अठारह अध्याय सुनाकर श्रीकृष्ण ने उसके चंचल मन को स्थिर बना दिया था लेकिन आज उसका मन गंगा की लहरों की भांति अस्थिर हो रहा था। न सूना आकाश मन को सांत्वना दे पा रहा था और ना ही बहती गंगा की धाराएं दहकती हुई आत्मा को शीतलता प्रदान कर रही थीं। आँखों से अनवरत बहती अश्रुधारा सामने के प्रत्येक दृश्य को धुंधला बना दे रही थी। वर्तमान अत्यन्त बोझिल लग रहा था और भविष्य अंधकारमय। आज की घटना ने अर्जुन को भीतर तक मथ दिया, मेरा अग्रज था कर्ण और मैंने ही……हा….धिक्कार रही है आत्मा। क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, क्या पा लिया मैंने यह युद्ध जीतकर? किसकी विजय मनाऊँ, किसकी जय? वह तो हार कर भी जीत गया। जाने मन क्यों बार-बार खिंचा जाता है उस अतीत की ओर जहाँ थी शान्ति और स्थिरता।”

अतीत चाहे दुखद ही क्यों न हो उसकी स्मृतियां बहुत मधुर होती हैं। ऐसी ही मधुर स्मृतियों में बरबस चला गया पार्थ का मन, करने लगा विचरण स्मृतियों के अरण्य में, आने लगीं अनगिनत छवियां रंग बदल-बदलकर, मानस पटल पर। युवा पराक्रमी, धरती का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर कुछ देर के लिए बन गया गंधमादन पर्वत पर खेलता हुआ छोटा बालक …..

क्रमशः

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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