(हस्तिनापुर की द्यूत सभा)
विपिन किशोर सिन्हा
क्रोध अपनी सीमा पार कर क्षोभ का रूप धर लेता है। मैं क्या था उस क्षण, ठीक जान नहीं पाया। अनुगत भ्राता, वीरत्वहीन पुरुष, हतभाग्य नायक, द्रौपदी का प्राणप्रिय, इन्द्र की सन्तान, श्रीकृष्ण का परम प्रिय सखा या क्रीत दास – ज्ञात नहीं। लेकिन था तो बहुत कुछ जो मिलकर अति सूक्ष्म हो चुका था – जो कहता था, “वीरभोग्या वसुन्धरा” और स्वयं स्थान खोज रहा था – धरती के हृदय में छुप जाने को।
सभी पाण्डव क्रीतदास बन चुके थे। हमने अपना शरीर आवरणहीन, आभूषणहीन कर लिया था। मात्र अधोवस्त्र शेष था। दासों को वस्त्रालंकार का अधिकार कहां?
कर्ण की कुत्सित हंसी, उद्देश्यपूर्ति के राक्षसी आह्लाद से निकल रही थी। अपमानित करने के सुअवसर का संधान वह वर्षों से कर रहा था। मेरा मन तिलमिला रहा था – आवेश की पराकाष्ठा में मैंने वह प्रतिज्ञा कर ही तो डाली –
“शिशुपाल, कंस, जरासंध और इस नीच कर्ण में कोई अन्तर नहीं है। इस अधम कर्ण ने अपनी जिह्वा से सती साध्वी कृष्णा को वेश्या कहकर संबोधित किया है। इसका अपराध अक्षम्य है। युद्ध में मैं इस नीच का शिरच्छेद करके उसी तरह वध करूंगा जैसे श्रीकृष्ण ने कंस और शिशुपाल का और भैया भीम ने जरासंध का किया था। यह प्रतिज्ञा अपने पूर्वजों की इस सभा में सभी देवताओं और श्रेष्ठजनों को साक्षी मानकर करता हूं। हिमालय स्थानच्युत हो सकता है, सूर्य की प्रभा नष्ट हो सकती है, चन्द्रमा की शीतलता उससे दूर हो सकती है लेकिन पाण्डुनन्दन पृथापुत्र अर्जुन की यह प्रतिज्ञा कभी मिथ्या नहीं हो सकती।”
पूरी सभा स्तब्ध थी। एक से बढ़कर एक अनिष्ट हो रहे थे लेकिन धृतराष्ट्र ने राजदण्ड का प्रयोग नहीं किया। मेरी प्रतिज्ञा सुन, कर्ण कुछ क्षणों के लिए हतप्रभ हुआ। उसका मुखमण्डल पहले पीला पड़ा, फिर श्वेत हुआ लेकिन शीघ्र ही स्वयं को सन्तुलित किया। दुशासन को द्रौपदी को वस्त्रहीन करने का अपने आसन से बैठे-बैठे संकेत दिया।
दुशासन जैसे उसके संकेत की ही प्रतीक्षा कर रहा था। उस नीच ने पांचाली की साड़ी पकड़, उसका आंचल खींच लिया। जिस पुष्प-पराग सम देह को स्पर्श करते हुए भ्रमर भी सकुचाते थे, शिरीष पुष्पों के रेशों से भी कोमल शरीर को दुशासन अनावृत करने लगा। मेरी पांचाली निरुपाय थी उस क्षण। विवश पंचपतियों की हृदय-स्वामिनी हाट में बिकती क्रीत दासी से भी हीन दिखाई दे रही थी। उसकी सारी देह नीली पड़ती जा रही थी। सभासदों में कोई एक भी नहीं दौड़ा, उसकी सहायता के लिए। हम तो वचनबद्ध क्रीत दास थे, किन्तु अन्य? ऐसे में द्रौपदी क्या करती, कहां जाती? सहसा देखा, द्रौपदी अपना आवेष्ठन बचाने का भरसक प्रयत्न करती गोविन्दबल्लभ कृष्ण को पुकार रही है। क्या था उस स्वर में जो आज भी कानों में गूंज रहा है। आर्त करुण स्वर! मर्म को शत-शत शलाकाओं से भेदने वाली ध्वनि जो सभाकक्ष की भीतों, वातायन, द्वारों और अट्टालिकाओं की सीमा लांघ रही थी; देश, काल और वातावरण के ज्ञान को शून्यप्राण कर रही थी। उसकी आंखों के सामने से सभासद, कुरु राजसभा, पांच पति – सब लुप्त हो गए थे, रह गए थे अनन्य सखा श्रीकृष्ण। आत्मा जिसका अंशमात्र थी। अंग और अंगी का भेद दूर हो गया था। भौतिक रूप से अनुपस्थित श्रीकृष्ण को संबोधित कर कृष्णा कह रही थी –
“हे गोविन्द! हे द्वारिकावासी श्रीकृष्ण! हे गोपांगनाओं के प्राणवल्लभ केशव। कौरव मेरा अपमान कर रहे हैं, क्या तुम्हें ज्ञात नहीं? हे नाथ! हे रमानाथ! हे संकटनाशन जनार्दन! मैं कौरवरूपी समुद्र में डूबी जा रही हूं, मेरा उद्धार करो। हे सच्चिदानन्द स्वरूप श्रीकृष्ण! महायोगिन्! विश्वात्मन! विश्वभावन! गोविन्द! कौरवों के बीच कष्ट पाती हुई मुझ शरणागत अबला की रक्षा करो। हे श्याम! दौड़ो, यमुना की गरजती हुई लहरों पर दौड़ते आओ। कर्कश, कठोर रव करते हुए, झंझावात के साथ दौड़ते आओ। आकाश की नीली छत से, पाताल की अनन्त रिक्तता से, दसों दिशाओं से दौड़ो! दौड़ो!! दौड़ो!!! मुझ अबला के शील की रक्षा करो।”
मैंने नेत्र बंद कर लिए। कानों में उंगलियां डाल दी। मुझसे द्रौपदी का विलाप न देखा जा रहा था, न सुना जा रहा था। उसका करुण स्वर सभाकक्ष की भव्य प्राचीरों से टकरा-टकरा कर मुझ तक लौट आता था। नहीं बचा पा रही थी वह अपनी मर्यादा, सम्मान। ऐसे में उसकी आत्मा पुकार रही थी मातृविहीन शिशु की तरह अपनी माता को, शरणविहीन पक्षी की तरह अपने शरणदाता को, पंखविहीन शिशु चातक की तरह अपनी जीवनदायिनी को और जीवात्मा पुकार रही थी अपने अंशी को, परमात्मा को। आत्मा ईश्वर में लीन हुआ चाहती थी। भौतिक आवरण की चिन्ता छोड़ दी द्रौपदी के इहलौकिक शरीर ने। वह वक्षस्थल से दोनों हाथ उठा पुकार ही तो उठी, “आ जाओ मेरे कृष्ण, मैं तुम्हारी ही शरणागता हूं।”
पांचाली का पूर्ण समर्पण उसकी देह को अकस्मात एक दिव्य कान्ति से मण्डित कर उठा। सभाकक्ष में प्रकाश ही प्रकाश फैल गया। चतुर्दिक अगरुगंध! बांसुरी की मीठी तान और सुदर्शन चक्र की ध्वनि अचानक सुनाई पड़ने लगी। यह क्या, श्रीकृष्ण आ गए! तो आ गए प्रभु, कृष्णा के रक्षार्थ! भक्त के संपूर्ण समर्पण का क्षण, ईश्वर का अंश बनने का क्षण होता है। विशाल बाहु ने द्रौपदी की ओर हाथ बढ़ाया। सभा चकित एवं स्तब्ध थी। यह क्या? दुशासन ज्यों-ज्यों द्रौपदी को अनावृत करने की चेष्टा करता, वस्त्र खींचता जाता, वैसे-वैसे ही द्रौपदी वस्त्रावृता होती जाती। विविधरंगी दिव्य परिधानों से वह आवेष्ठित होती जाती। द्रौपदी के करयुग्म प्रणाम की मुद्रा में बद्ध थे, उसकी रक्षा के लिए स्वयं ईश्वर आ गए थे। परमात्मा ने आत्मा को ग्रहण कर लिया था। श्रीकृष्ण की करुणामय मुस्कान अब दुशासन को देख रही थी जो द्रौपदी के वस्त्रों को खींचते-खींचते क्लान्तप्राय हो चुका था – असंख्य वस्त्रों का ढेर सभाकक्ष के मध्य में लग गया था। फिर भी दुशासन खींचता जा रहा था उसका वस्त्र। अवसन्न और अत्यन्त थक जाने तक खींचता रहा – दोनों हाथों से। उसकी शक्ति ने उसका साथ देने से मना कर दिया। द्रौपदी को छोड़, घिसटता हुआ, जैसे-तैसे अपने आसन के पास पहुंचा। आसन के हत्थे पर हाथ रखकर वह कमर झुकाकर खड़ा रहा। उसके स्वेद से भरे मस्तक से कुछ बूंदें उसी के आसन पर टपक पड़ीं। वह खड़ा-खड़ा ही कटे वृक्ष की तरह उन बूंदों पर गिर पड़ा – जैसे उसकी सारी शक्ति निचोड़ ली गई हो।
मुझे उन दुर्लभ क्षणों का स्मरण हो आया जब श्रीकृष्ण ने कृष्णा को ’सखी’ कहकर संबोधित किया था। आज पांचाली के सखा ने उपयुक्त समय पर अपने सखा-धर्म का निर्वाह किया था।
महात्मा विदुर आरंभ से ही अपने विचार प्रकट करने को आतुर थे। वे बार-बार अपने आसन से उठते, विचलित से टहलते, पितामह भीष्म को देखते और उनसे संकेत न पा, पुनः अपने आसन पर बैठ जाते। अन्त में अधीर हो, क्रोध में भरकर उन्होंने सभा को संबोधित किया –
“इस सभा में पधारे हुए भूपालगण! द्रुपदकुमारी कृष्णा यहां अपना प्रश्न उपस्थित कर अनाथ की भांति विलाप कर रही है, परन्तु आप लोग उसका विवेचन नहीं करते। यहां धर्म की हानि हो रही है। निश्चय ही प्रारब्ध की प्रेरणा से भरतवंशियों के समक्ष यह महान संकट उपस्थित हुआ है।
धृतराष्ट्र के पुत्रो! तुमलोगों ने मर्यादा का उल्लंघन कर कपट-द्यूत खेला है। एक सती साध्वी का अपमान कर रहे हो। तुम्हारे योग और क्षेम पूर्णतया नष्ट हो गए हैं। आज सबको ज्ञात हो गया कि कौरव शकुनि और कर्ण के साथ सदैव पापपूर्ण मंत्रणा करते हैं। तुमलोग धर्म की महत्ता समझने का प्रयास करो। नहीं करोगे तो अर्जुन और भीम की प्रतिज्ञा के कारण विनाश को प्राप्त होवोगे। स्वयं को हार जाने के बाद, द्रौपदी को द्यूत में दांव पर लगाने का युधिष्ठिर का अधिकार समाप्त हो गया था। यह द्यूत नहीं, कपटद्यूत था। अतः इसे एक दुःस्वप्न समझ भूल जाओ। द्रौपदी और उसके पतियों को मुक्त कर ससम्मान इन्द्रप्रस्थ के लिए विदा करो। इसी में तुमलोगों का कल्याण है।”
क्रमशः