कहो कौन्तेय-४० (महाभारत पर आधारित उपन्यास-अंश)

(कर्ण की दिग्विजय)

विपिन किशोर सिन्हा

दुर्योधन चला गया। रथों के पार्श्व से उड़ती हुई धूल अब भी दिखाई दे रही थी। हम चारो भ्राताओं ने युधिष्ठिर का आज्ञापालन अवश्य किया लेकिन हम प्रसन्न नहीं थे। जहां बड़े भ्राता पूर्णतः शान्त और संतुष्ट दीख रहे थे, वही हम सबके मुखमण्डल पर आश्चर्य और प्रश्नवाचक चिह्न स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहे थे। धर्मराज के निर्णय ने सभी की आशाओं पर तुषारापात कर दिया था। हम सभी मौन थे। द्रौपदी भी पति के निर्णय से संतुष्ट नहीं थी। दुष्टों को दण्ड देने के अवसर को युधिष्ठिर ने बड़ी सहजता से गंवा दिया था। वह अपने आवेग को रोक नहीं पाई, बोल पड़ी –

“आर्य! जितना ही आपके व्यक्तित्व को समझने का प्रयास करती हूं, उलझती चली जाती हूं। इस दुर्मति दुर्योधन ने आप सबको लाक्षागृह में जलाकर मार डालने का प्रयत्न किया, आर्य भीमसेन को अनेक बार छल से विष दिया, मुझे भरी सभा में अपमानित किया, दुबारा कपटद्यूत में हराकर हम सभी को गहन वनों में जीवन व्यतीत करने के लिए विवश किया। आज दैव योग से गंधर्वराज चित्रसेन ने हमारा मार्ग कंटकमुक्त कर दिया था लेकिन आपने सब किए कराए पर पानी फेर दिया। सहिष्णुता की भी कोई सीमा होती है। अत्याचारों को सहना हमारा स्वभाव बन गया है, इसीलिए दुर्योधन अत्याचारी बन गया है। हम समर्थ होकर भी अत्याचार का प्रतिकार नहीं करते हैं। आर्य भीमसेन का विचार समयानुकूल था। मुझे आशंका है कि द्यूत क्रीड़ा के निर्णय कि तरह ही इतिहास आपके इस निर्णय के औचित्य पर कही कोई प्रश्नचिह्न न लगा दे।”

“शान्त हो पांचाली,” युधिष्ठिर की संयत वाणी से वातावरण गूंज उठा –

“सभी निर्णय लाभ-हानि के दृष्टिकोण से नहीं लिए जाते। द्यूत में हार के पश्चात, भरी सभा में मैंने बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास स्वीकार किया था। मैं चाहता तो अपने महान पराक्रमी अनुजों और यशोदानन्दन श्रीकृष्ण के सहयोग से, उन्हीं क्षणों, अपना खोया राज्य पुनः प्राप्त कर लेता। किन्तु द्यूत खेलकर मैंने जो अपराध किया, जो विश्वासघात तुमसे और अपनी प्रजा से किया था, उसका प्रायश्चित शेष रह जाता। वनवास और अज्ञातवास उस पाप का प्रायश्चित है। जिस तरह समय से पूर्व प्रसव से उत्पन्न सन्तान स्वस्थ नहीं होती, उसी तरह समय से पूर्व प्राप्त फल भी शुभ नहीं होता। क्षमा मनुष्य का इश्वरीय गुण है। इसका प्रयोग के बाद पश्चाताप उचित नहीं। शरणागत कि रक्षा करना परम धर्म है। मैंने धर्म और कर्त्तव्य का पालन ही तो किया है।”

हम सभी शान्त और नतमस्तक थे।

वनवास के बाद हमारे और कौरवों के मध्य एक निर्णायक युद्ध होगा, यह रहस्य अब गुप्त नहीं रह गया था। दुर्योधन की हठधर्मिता से सभी परिचित थे। वन में रहकर हम ज्ञान के अतिरिक्त शक्ति-संचय भी कर रहे थे। चित्रसेन गंधर्व से पराजित और अपमानित होने के बाद, हस्तिनापुर लौटते समय, दुर्योधन ने आत्मघात करने का प्रयास किया। वह आत्मग्लानि से पीड़ित था। भरी सभा में पितामह भीष्म ने उसे लताड़ लगाई और युद्ध में पीठ दिखाकर पलायन करने के कारण कर्ण कि भर्त्सना की। उस दिन के बाद उन्होंने कर्ण को महारथी कहकर कभी संबोधित नहीं किया। वे उसे अर्धरथी कहते थे। युद्ध में पीठ दिखानेवाले को अर्धरथी ही कहा जाता था।

दुर्योधन का मनोबल धराशाई हो चुका था। कर्ण उसे बार-बार सान्त्वना देता, लेकिन उसके मुखमण्डल पर हर्ष की रेखाएं आती ही नहीं थीं। चित्रसेन के साथ युद्ध में मेरा शौर्य और कर्ण का पलायन वह देख चुका था। उसके मनोबल को बढ़ाने के लिए कर्ण ने एक साहसी निर्णय लिया। यह निर्णय था – दिग्विजय यात्रा का।

महारथी कर्ण ने अपनी दिग्विजय यात्रा पांचाल विजय से आरंभ की। महाराज द्रुपद को करदाता बनाया। वहां से उत्तर दिशा में जाकर भगदत्त समेत सारे राजाओं को पराजित किया। नेपाल को भी करदाता बनाया। हिमालय से नीचे आकर उसने पूर्व की ओर धावा बोला। अब अंग, बंग, कलिंग, शुण्डिक, मिथिला मगध आदि राज्य उसके अधीन थे। दक्षिण दिशा में प्रस्थान कर उसने अनेक महारथियों को परास्त किया। रुक्मी के साथ उसका भयंकर युद्ध हुआ, किन्तु अन्त में विजय कर्ण की हुई। रुक्मी को भी कर देने के लिए वाध्य होना पड़ा। पश्चिम दिशा में जाकर बर्बर यवन राजाओं से कर लिया। वह द्वारिका पर आक्रमण करने का साहस नहीं संजो सका। फिर भी उसकी दिग्विजय यात्रा को कम करके नहीं आंका जा सकता था। उसने एक बार पुनः सिद्ध कर दिया कि वह एक अत्यन्त पराक्रमी योद्धा था।

उसकी दिग्विजय के समाचार ने जहां दुर्योधन के मनोबलरूपी शुष्क तरु को पुनः पुष्पित पल्लवित कर दिया, वही हमारे शुभचिन्तकों के माथे पर चिन्ता की रेखाएं खींच दी। अबतक आर्यावर्त में मेरे ही शौर्य की चर्चा थी लेकिन अब कर्ण भी मेरे समकक्ष माना जाने लगा। राजसूय यज्ञ के पूर्व हमारी दिग्विजय की चर्चा अब इतिहास बन चुकी थी।

क्रमशः 

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