कहो कौन्तेय-४२

 (महाभारत पर आधारित उपन्यास अंश)

(दुर्योधन द्वारा दुर्वासा का दुरुपयोग)

विपिन किशोर सिन्हा

वन में हमारी दिनचर्या सामान्य रूप से चल रही थी। देखते ही देखते हमलोगों ने ग्यारह वर्ष आनन्द के साथ व्यतीत कर दिए। वनगमन की घड़ी में बारह वर्षों की कल्पना से ही मन सिहर उठता था लेकिन अब हमें वन की हवा, धूप और जल प्रिय लगने लगे थे। हमारे स्मृति कोष में वनवास के दिन अमूल्य रत्नों के रूप में सुशोभित थे। युधिष्ठिर तो एक राजा की भांति दान-पुण्य के कार्य भी करते रहते थे। विद्वान तपस्वियों और ब्राह्मणों की सेवा करना अपना धर्म मानते थे। वनवासियों के साथ हम ऐसे घुलमिल गए थे जैसे कभी हम इनसे अलग थे ही नहीं। बारह वर्षों के बाद हमसे विलग हो जाने का कष्ट उन्हें अधीर कर जाता। राज्यप्राप्ति के पश्चात उन्हें इन्द्रप्रस्थ आने का आमन्त्रण देकर, हमने उनके कष्ट को थोड़ा कम करने का प्रयास किया। वनवासी स्त्रियां द्रौपदी के स्नेहसिक्त आचरण और व्यवहार से अत्यन्त प्रसन्न रहती थीं। श्यामवर्ण और उसके अन्नपूर्णा रूप के कारण वे स्वयं को द्रौपदी से अभिन्न ही मानती थीं। वन में भी हमने एक साम्राज्य स्थापित कर दिया जिसकी आधारभूमि पारस्परिक प्रेम, स्नेह, सद्‌व्यवहार, समता एवं आत्मीयता थी।

हमें वन को भेजकर भी दुर्योधन संतुष्ट नहीं हो सका। उसके लिए गुप्तचरों से प्राप्त यह सूचना ही ईर्ष्या-द्वेष की अग्नि में प्रज्ज्वलित होने के लिए पर्याप्त थी कि हमलोग वन में भी उसी प्रकार दान-पुण्य करते हुए आनन्द से रह रहे थे जैसे नगर के निवासी रहा करते हैं। हम लोगों के अनिष्ट के लिए उसका मस्तिष्क नित नई योजनाएं बनाता रहता था। एक दिन अनायास तपस्वी दुर्वासा अपने दस सहस्र शिष्यों के साथ हस्तिनापुए जा पहुंचे। दुर्योधन के नेत्रों में कुटिलता की चमक उत्पन्न हो गई। शकुनि, कर्ण और दुशासन से मंत्रणा कर उसने युक्ति सोच निकाली – पाण्डवों के विनाश के लिए महर्षि का उपयोग।

अपने समस्त भ्राताओं के साथ दुर्योधन, परम क्रोधी महर्षि दुर्वासा की सेवा में उपस्थित हुआ और अत्यन्त विनम्रता से उन्हें आतिथ्य के लिए निमन्त्रित किया। महर्षि ने उसका आग्रह स्वीकार कर लिया। वह विधिपूर्वक उनकी पूजा करता और एक कर्त्तव्यनिष्ठ दास की भांति उनकी सेवा में खड़ा रहता। उसके वर्तमान आचार-व्यवहार में उसके मूल स्वभाव, आलस्य का कही नाम भी नहीं था। महर्षि की विचित्र गतिविधियों, कठोर वचन और क्रोध से वह अविचलित रहा, दिन-रात उनकी सेवा-भक्ति में तत्पर रहा। उसके मन में न कभी क्रोध आया और न विकार। कई दिनों के अपने प्रवास में महर्षि दुर्वासा ने कई बार उसकी परीक्षा ली, लेकिन प्रत्येक अवसर पर वह सफल रहा। अन्त में दुर्वासा ऋषि प्रसन्न हुए और बोले –

“भक्तवर! मैं तुम पर अत्यन्त प्रसन्न हूं, तुम्हें वर देना चाहता हूं, जो इच्छा हो मांग लो।”

दुर्वासा का वचन सुन दुर्योधन ने मन ही मन ऐसा समझा, मानो उसका नया जन्म हुआ हो। मुनि संतुष्ट हों तो उनसे क्या मांगना चाहिए, इस बात के लिए कर्ण, शकुनि और दुशासन के साथ पूर्व योजना बन चुकी थी। दुर्योधन ने करबद्ध विनम्र निवेदन किया –

“यशस्वी ब्रह्मन्‌! हमारे कुल में धर्मराज युधिष्ठिर सबसे श्रेष्ठ हैं। वे सदा धर्म-कर्म और दान-पुण्य में लीन रहते हैं। अतिथियों की सेवा करना वे अपना परम धर्म मानते हैं। वे बड़े गुणवान और सुशील हैं। इस समय वे भार्या द्रौपदी और सभी बन्धुओं के साथ वन में निवास कर रहे हैं। अपने समस्त शिष्यों के साथ जैसे आपने मेरा आतिथ्य स्वीकार किया है, उसी तरह वन में उनका भी आतिथ्य स्वीकार करें। वे आपको अतिथि रूप में पाकर अत्यन्त प्रसन्न होंगे। यदि आप मुझपर प्रसन्न हों और मुझपर असीम कृपा हो तो मेरी एक प्रार्थना पर अवश्य ध्यान दीजिएगा। जिस समय परम सुन्दरी, यशस्विनी सुकुमारी, राजकुमारी द्रौपदी समस्त ब्राह्मणों और पांचो पतियों को भोजन कराके, स्वयं भी भोजन करने के उपरान्त सुखपूर्वक विश्राम कर रही हो, उसी समय आपका वहां पधारना उचित होगा।”

“तुम पर अत्यधिक प्रेम होने के कारण मैं ऐसा ही करूंगा।” महर्षि ने कहा और द्वैतवन के लिए प्रस्थान कर दिया।

दुर्योधन की चाण्डाल-चौकड़ी हर्षोत्सव मनाने लगी। उन्हें विश्वास था कि दस सहस्र शिष्यों को साथ में लिए महर्षि दुर्वासा को आतिथ्य से वन में संतुष्ट करना, दूसरी सृष्टि के निर्माण से कम असाध्य नहीं था। पाण्डव निश्चित रूप से दुर्वासा का कोपभाजन बनेंगे और उनकी क्रोधाग्नि में दग्ध होकर सदा के लिए समाप्त हो जाएंगे।

एक नियत समय पर महर्षि दुर्वासा का हमलोगों की पर्णकुटी में आगमन हुआ। युधिष्ठिर ने उनका स्वागत किया। उन्हें श्रेष्ठ आसन पर बैठाकर हम सबने आदरपूर्वक भक्तिभाव से उनका पूजन किया और उनके पधारने का प्रयोजन पूछा। उन्होंने बताया कि वे स्वयं और उनके दस हजार शिष्य क्षुधा से व्याकुल हैं। वे भोजन की आशा में उपस्थित हुए हैं। युधिष्ठिर को भोजन की व्यवस्था करने का आदेश दे, वे शिष्यों सहित, नदी में स्नान करने चले गए।

दिन का यह वह समय था, जब द्रौपदी भोजन कर चुकी थी, सूर्य द्वारा प्रदत्त हमारा अक्षय पात्र रिक्त था। द्रौपदी के भोजन के पूर्व, हम उस अक्षय पात्र की सहायता से अनगिनत जनों के भोजन की व्यवस्था करने में सक्षम थे, लेकिन द्रौपदी के भोजनोपरान्त, अक्षय पात्र एक पक्षी के भोजन की भी व्यवस्था नहीं कर सकता था। हम धर्मसंकट में पड़ गए थे। ऋषि-कोप का भय साक्षात काल की भांति सताने लगा। दुर्वासा के क्रोध का अर्थ था – संपूर्ण विनाश। वे शाप देने में विलंब नहीं करते थे।

द्रौपदी की व्याकुलता बढ़ती जा रही थी। एक बार फिर हम पांचो उसकी सहायता करने में अपने को असमर्थ पा रहे थे। विनाश की घड़ी आसन्न थी। उसकी बड़ी-बड़ी मृग जैसी आंखों से टप-टप अश्रुबून्दें टपक रही थीं। विह्वल होकर उसने अपने परम सखा श्रीकृष्ण का स्मरण किया –

“हे कृष्ण! हे महाबाहु श्रीकृष्ण! हे देवकीनन्दन! हे अविनाशी वासुदेव! चरणों में पड़े हुए दुखियों का दुख दूर करने वाले, हे जगदीश्वर! तुम्हीं संपूर्ण जगत की आत्मा हो। अविनाशी प्रभो! तुम्हीं इस विश्व की उत्पत्ति और संहार करने वाले हो। शरणागतों की रक्षा करने वाले हे गोपाल! तुम्हीं समस्त प्रजा का पालन करने वाले परमेश्वर हो। मन और बुद्धि के प्रेरक परमात्मन्‌! मैं तुम्हें प्रणाम करती हूं। जिन्हें तुम्हारे सिवा कोई सहायता देनेवाला नहीं है, उन असहाय भक्तों की सहायता करो। पुराणपुरुष! मैं तुम्हारी शरणागत हूं। कृपा करके मुझे बचाओ।

नीलकमल के सदृश श्यामसुन्दर! कमलपुष्प के भीतरी भाग के समान किंचित लाल नेत्रों वाले पितांबरधारी श्रीकृष्ण! तुम्हारे वक्षस्थल पर कौस्तुभमणिमय आभूषण शोभा पाता है। प्रभो! तुम्हीं सबके परम आश्रय हो। तुम्हीं परत्पर, ज्योतिर्मय, सर्वात्मा और परमेश्वर हो। ज्ञानी पुरुष तुम्हें ही इस जगत का परम बीज और संपूर्ण संपदाओं की निधि बताते हैं। देवेश्वर! यदि तुम मेरे रक्षक हो, तो मुझ पर सारी विपत्तियां टूट पड़ें, तो भी मुझे उनसे भय नहीं है। भगवन! पहले कौरव सभा में दुशासन के हाथों से जैसे तुमने बचाया था, उसी प्रकार इस वर्तमान संकट से मेरा उद्धार करो।

क्रमशः

 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here