कहो कौन्तेय-४६

विपिन किशोर सिन्हा

(विराट नगर पर त्रिगर्तों का आक्रमण)

एक के बाद एक मास व्यतीत हुए जा रहे थे। दुर्योधन के माथे पर चिन्ता की लकीरें और गहरी होती जा रही थीं। उसने आर्यावर्त के कोने-कोने में अपने गुप्तचर भेज रखे थे। कम्बोज, कश्मीर, गांधार, पंचनद, सिन्ध, कुलिन्द, तंगण, विदेह, पांचाल, कोसल, किरात, मथुरा, बंग, मगध, चेदि, दशार्ण, कलिंग, विदर्भ, अवन्ती, द्वारिका, सौराष्ट्र, विराट आदि देशों के वन-उपवन, गिरि-कन्दरा, राजपथ-जनपथ, राजगृह-जनगृह और समस्त गली कूचों में गुप्तचरों ने विकल होकर हमलोगों को ढूंढ़ा लेकिन हर ओर से असफलता के समाचार ही प्राप्त होते। दुर्योधन को विश्वास होने लगा कि स्वयं देवराज इन्द्र ने हमलोगों को अमरावती में छिपा लिया होगा। उसकी मानसिक अस्वस्थता बढ़ती जा रही थी।

अज्ञातवास का वर्ष भी समाप्तप्राय था। दुर्योधन की गणना से एक या दो दिन शेष रह गए थे कि सबको आश्चर्य में डालने वाली सूचना विराटनगर से प्राप्त हुई – किसी अज्ञात गंधर्व ने द्वंद्व-युद्ध में विराट के सेनापति कीचक का वध कर दिया। द्वन्द्व-युद्ध में तो कीचक जरासंध और भीम के समकक्ष था। उसको मृत्यु का द्वार दिखाने की क्षमता एकमात्र भीम में ही थी। सन्देह के मेघ घनीभूत होते जा रहे थे। भीम को विराटनगर में ही होना चाहिए। दुर्योधन के विचारों के चक्र एक बार फिर द्रूतगति से दौड़ने लगे।

महाराज धृतराष्ट्र को विश्वास में लेकर राजसभा आमन्त्रित की गई। त्रिगर्त देश का राजा महाबली सुशर्मा मत्स्य देश का सबसे बड़ा शत्रु था। उसे कीचक ने कई बार युद्ध में पराजित किया था। कीचक की मृत्यु के बाद उसे विराटनगर पर अधिकार करने का सुनहरा अवसर अनायास प्राप्त हो गया। उसने परामर्श दिया –

“राजन! कीचक बड़ा ही बलवान, क्रूर, असहनशील और दुष्ट प्रवृत्ति का पुरुष था। उसका पराक्रम जगद्विख्यात था। उसके जीवित रहते, मत्स्य देश पर अधिकार करने की हमारी योजना सफल नहीं हो सकती थी। उसका वध किसी गंधर्व ने या महाबली भीम ने कर दिया है। इस समय राजा विराट अत्यन्त दुखी और निरुत्साही होंगे। अतः इस सुअवसर को भुनाते हुए यदि हम मत्स्य देश पर आक्रमण कर दें, तो हमें निश्चित विजय प्राप्त होगी। हमें असंख्य गोधन, धन और रत्नादि भी प्राप्त होंगे। यदि भीम भ्राताओं सहित विराटनगर में होंगे, तो पाण्डव गायों और राजा विराट की रक्षा हेतु, निश्चित रूप से प्रकट होंगे और वचन-भंग के जाल में फंस जाएंगे। इस प्रकार उन्हें पुनः वनवास स्वीकार करना होगा।”

त्रिगर्तराज सुशर्मा का परामर्श धृतराष्ट्र, कर्ण समेत समस्त कौरवों को अत्यन्त सामयिक और उचित लगा।

अचानक रणवाद्य बजने लगे। हस्तिनापुर के लक्ष-लक्ष सैनिक राजभवन के सम्मुख भव्य प्रांगण में एकत्रित हो गए। कर्ण और दुर्योधन ने व्यूह-रचना की –

“कर्ण के नेतृत्व में सभी कौरव सेनापति एक नाके पर जाएंगे और महारथी सुशर्मा त्रिगर्तदेशीय वीरों और सेना के साथ दूसरे मोर्चे पर। पहले सुशर्मा आक्रमण करेंगे, उसके एक दिन बाद कौरव प्रस्थान करेंगे।”

राजा विराट कीचक-वध का राजकीय शोक पूरी तरह मना भी नहीं पाए थे कि त्रिगर्तनरेश सुशर्मा ने पूरी तैयारी के साथ उनपर आक्रमण कर दिया। वे असावधान थे। उन्होंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि शोक की इस अवधि में कोई उनपर आक्रमण करेगा। वे जबतक अपनी सेना को संगठित करते, योद्धाओं की सभा करते, सुशर्मा ने उनकी सहस्रों गौवों को हांक लिया। विराट ने शीघ्र ही मत्स्य देश के वीरों को एकत्र किया, युद्ध के वाद्य बजवाए और युद्ध सामग्री से सन्नद्ध हो युद्ध के लिए निकल पड़े। कंक, बल्लव, तंतिपाल और ग्रन्थिक ने भी उनके छोटे भाई शतानीक के साथ दिव्य रथों में आरूढ़ हो युद्ध के लिए प्रस्थान किया। पूरी सेना गौवों के खुर के चिह्न देखती आगे बढ़ने लगी। सूर्य ढलते-ढलते विराट की सेना ने त्रिगर्तों को घेर लिया। देवासुर संग्राम की तरह भयंकर और रोमांचकारी युद्ध हुआ। पूरे युद्ध स्थल का आकाश धूल और बाणों से आच्छादित हो गया। सर्वत्र अंधेरा छा गया। बात की बात में सारी रणभूमि कटे हुए मस्तक और बाणों से बिंधे हुए शवों से पट गई।

राजा विराट और उनके छोटे भाई शतानीक ने अद्भुत पराक्रम का प्रदर्शन किया। त्रिगर्तों की सारी व्यूह-रचना छिन्न-भिन्न हो गई। सैनिकों ने गौवों को मुक्त करा लिया। सुशर्मा की सेना पलायन करने लगी। अपनी सेना के उत्साहवर्धन के लिए सुशर्मा स्वयं नई व्यूह-रचना के साथ अग्रिम मोर्चे पर आकर डट गया। उसके पराक्रम के आगे राजा विराट असहाय-से हो गए। उसने विराट के रथ के अश्वों, सारथि और अंगरक्षक का वध कर उन्हें जीवित पकड़ लिया और अपने रथ में डालकर शंख और दुन्दुभि बजाते हुए अपने देश की ओर चल पड़ा।

युधिष्ठिर यह सारा कार्य-व्यापार देख रहे थे। उन्होंने भीमसेन को राजा विराट को मुक्त कराने का आदेश दिया। भीम तो जैसे उनकी आज्ञा की प्रतीक्षा ही कर रहे थे। पहले सुसज्जित रथ पर बैठकर उन्होंने सुशर्मा को युद्ध के लिए ललकारा। युधिष्ठिर, नकुल और सहदेव भी अलग-अलग रथों में बैठकर युद्ध के लिए चल पड़े। क्षत्रिय युद्ध की ललकार सुन पीठ कैसे दिखा सकता था? सुशर्मा लौट पड़ा। अपने सारे भ्राताओं के साथ सबसे पहले भीम से उलझ पड़ा। भीम ने गदा लेकर, उसके सामने ही, उसके सारे भ्राताओं को एक निमिष में मृत्युलोक भेज दिया। उस प्रलयंकारी युद्ध में, अकेले भीमसेन ने सात सहस्र त्रिगर्तों को धराशाई किया, युधिष्ठिर ने एक हजार योद्धाओं को महाकाल का ग्रास बनाया, नकुल ने सात सौ वीरों को मृत्यु प्रदान की और सहदेव ने तीन सौ सैनिकों को वीरगति प्राप्त कराई। त्रिगर्तों में हाहाकार मच गया।

सुशर्मा कुछ देर तक भीमसेन के साथ धनुर्युद्ध में संलग्न रहा। लेकिन महाबली भीम के समक्ष वह कबतक टिकता? रथहीन होकर युद्धक्षेत्र से पैदल ही पलायन करने लगा। राजा विराट को मुक्त करा, भीम पूरे वेग से सुशर्मा की ओर झपटे, लपककर उसके बाल पकड़ लिए। धरती पर पटक, उसकी छाती पर चढ़ बैठे और ऐसा भीषण मुष्टिप्रहार किया कि वह अचेत हो गया।

त्रिगर्तों की बची सेना अनाथ और भयभीत होकर भागने लगी। युधिष्ठिर ने विराट की सेना का नेतृत्व करते हुए गौवों को लौटा लिया। सुशर्मा अब पराजित राजा था। उसका सारा धन अब विराट के राजकोष का अंग था। उसे दण्ड देने के लिए राजा विराट के सम्मुख उपस्थित किया गया। अपने प्राणों की याचना करते हुए उसने अपने कृत्य के लिए क्षमा मांगी और विराट की दासता स्वीकार की। राजा ने युधिष्ठिर से मंत्रणा कर उसे जीवन दान दिया।

त्रिगर्त नरेश सुशर्मा मस्तक पर पराजय का बोझ और हृदय में अपमान की पीड़ा लिए स्वदेश के लिए प्रस्थित हुआ।

युद्ध समाप्त होते-होते रात्रि का आरंभ हो चुका था। थके और घायल सैनिकों के उपचार के लिए मार्ग में ही पड़ाव डाल दिया गया। विजय का समाचार देने के लिए शीघ्रगामी दूत विराट नगर भेज दिए गए।

नगर में त्रिगर्तों पर विजय की घोषणा कर दी गई। सर्वत्र मंगल वाद्य बजने लगे। नगरवासी अपने विजयी राजा के स्वागत के लिए नगर को भांति-भांति से सजाने लगे। दिन का अभी एक प्रहर ही बीता था कि समाचार मिला – दुर्योधन ने भीष्म, द्रोण, कर्ण, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, दुशासन, विविंशति, विकर्ण, चित्रसेन, दुर्मुख, दुशल तथा अनेक महारथियों के साथ यमुना ओर से विराटनगर पर आक्रमण कर दिया है। आक्रमण के प्रथम चरण में विराट की साठ हजार गौवों का अपहरण कर कौरवों ने युद्ध का न्योता भेजा।

क्रमशः

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