कहो कौन्तेय-४७

(कौरवों द्वारा विराटनगर पर आक्रमण)

विपिन किशोर सिन्हा

राजा विराट युद्ध भूमि से नहीं लौटे थे । सेनापति और सेना तो उनके ही साथ थी। राजधानी में विराट का युवापुत्र उत्तर ही अकेले उपस्थित था। युद्ध ले लिए वह तत्पर तो हुआ लेकिन उसके पास योग्य सारथि का अभाव था। एक कुशल सारथि के बिना कौरव महारथियों के साथ युद्ध कैसे जीता जा सकता था? वह अन्तःपुर में ही डटा रहा।

द्रौपदी ने मुझे उसकी मनोदशा की सूचना दी। मैं अविलंब उसके सामने उपस्थित हुआ और अपनी सेवाएं अर्पित की –

‘‘युवराज! आप युद्ध की तैयारी कीजिए – मैं आपका सारथि बनूंगा। मैंने दिग्विजय के समय पृथापुत्र अर्जुन के रथ का सारथ्य कीया था। आज मैं उसी कुशलता से आपके रथ का संचालन करूंगा। आलस्य और भय त्याग कर युद्धभूमि के लिए प्रस्थान करें; विजयश्री आप ही के गले में माला डालेगी।’

मेरे कथन से राजकुमार उत्तर के मन में उत्साह का संचार हुआ। उसने सूर्य के समान चमचमाता हुआ सुन्दर कवच धारण किया, रथ पर सिंह की ध्वजा लगाई और मुझे सारथि बना रणभूमि के लिए प्रस्थान किया। जाते समय राजकुमारी उत्तरा ने मचलकर आग्रह किया –

‘’बृहन्नले! तुम संग्रामभूमि में आए हुए, दुर्योधन, भीष्म, द्रोण, कर्णादि को जीतकर, उनके रंग-बिरंगे महीन और कोमल रेशमी वस्त्र अवश्य ले आना। मैं उससे अपनी गुड़ियों को सजाऊंगी।’‘

राजकुमार उत्तर को ले, मैं यमुना की दिशा में उन्मुख हुआ। अश्वों की वल्गा ढीली कर, एक हल्का धौल जमाया, रथ पवन गति से चल पड़ा।

मुझे सहसा हस्तिनापुर की राजसभा, द्यूतक्रीड़ा, द्रौपदी का चीरहरण, दुर्योधन और कर्ण के अट्टहास याद आने लगे। मेरी गणना के अनुसार हमारे अज्ञातवास का समय पूरा हो चुका था। मेरा पुरुषत्व मुझे पुनः प्राप्त हो चुका था। मैं ही जानता था – अज्ञातवास का एक-एक दिन मैंने कैसे बिताया था। श्रीकृष्ण का परम सखा अर्जुन, विश्व का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर सव्यसाची, नियति की मार से विवश हो , पौरुषहीन अवस्था में, हास्यजनक अंगभंगिमा, नारीसुलभ स्वर, छ्न्दमय पदचाप के साथ नपुंसक बृहन्नला के रूप में, राजकुमारी उत्तरा को नृत्य-संगीत की शिक्षा देने के साथ-साथ, महल में त्यौहार और उत्सवों के अवसर पर मनभावन नृत्य उपस्थित कर, रानी और पुरनारियों का मनोरंजन करने के लिए वाध्य था। सभी मेरी अपूर्व नृत्य-भंगिमा पर हर्षित हो ताली बजाते, लेकिन मैं? रात्रि के विश्राम के क्षण नियति से प्रश्न करता -‘जिस अर्जुन का पौरुष और शौर्य ही उसके गर्व का विषय था, उसी को पौरुषहीन बना दिया।’ किसी ने भी मेरे नेत्रों को कभी नम होते नहीं देखा था। लेकिन मैं कैसे भूल सकता हूं – वे नम होते थे।

मुझे इस अधोगति में पहुंचाने वाले कारक, कुछ ही दूरी पर दृष्टिगत हुए। अपने अपमान का प्रतिशोध लेने का सुअवसर अनायास ही उपस्थित था। मेरे रोम-रोम से स्फुर्लिंग निकलने लगी। मैंने शीघ्र ही अपने आप को संयत किया। क्रोध से विवेक नष्ट होता है और विवेकहीन योद्धा कभी विजय प्राप्त नहीं कर सकता।

कौरवों की विशाल सेना अब पूरी तरह दिखाई देने लगी। कर्ण, दुर्योधन, कृपाचार्य, भीष्म और अश्वत्थामा के साथ आचार्य द्रोण उसकी रक्षा कर रहे थे। विशाल वाहिनी को देख, उत्तर के तो रोंगटे खड़े हो गए। भयाक्रान्त होकर मुझसे बोला –

‘मेरी सामर्थ्य नहीं है कि कौरवों की विशाल सेना से मैं लोहा ले सकूं। इसमें तो अगणित वीर दिखाई दे रहे हैं। देवतागण भी इसका सामना नहीं कर सकते। मैं तो अभी बालक हूं। भय से मेरे अंग शिथिल हुए जाते हैं। इसलिए बृहन्नले! तुम मुझे लौटा ले चलो।’

मैंने उसके उत्साहवर्धन के अनेक प्रयास किए लेकिन सारे निष्फल रहे। जैसे-जैसे हम कौरव सेना के समीप पहुंच रहे थे, वह घर लौटने के लिए विकल हुआ जा रहा था। अन्त में वह धनुष-बाण छोड़कर रथ से कूद पड़ा। मैंने तेजी से दौड़कर सौ ही कदम पर उसे पकड़ लिया, वह कायरों की भांति दीन-हीन होकर रोने लगा, बोला –

‘हे बृहन्नले! कौरव महारथियों के समक्ष अपने आप को झोंककर, मैं आत्महत्या नहीं करूंगा। जीवन शेष रहा तो अच्छे दिन देखने को मिल जाएंगे। मैं प्रार्थना करता हूं, तुम रथ को लौटा ले चलो।’

वह तरह-तरह से अनुनय-विनय करता रहा लेकिन मैं हंसते हुए उसे रथ के समीप ले आया। उसे सांत्वना दी –

‘राजकुमार! तुम्हारी ओर से युद्ध मैं करूंगा। भयमुक्त होकर तुम सिर्फ सारथि का कार्य कर दो। मैं सामने खड़ी दुर्जय सेना में घुसकर कौरवों को पराजित करूंगा और तुम्हारे गोधन को मुक्त कराऊंगा।’

बड़ी कठिनाई से वह मेरा सारथि बनने के लिए तैयार हुआ। शीघ्र ही हम शमी वृक्ष के पास गए। अपने गाण्डीव और अक्षय तुणीर से स्वयं को सुसज्जित किया, अन्य अस्त्रों को रथ के पार्श्व में रखा। तेजस्वी अस्त्र-शस्त्रों को खोलते ही उनकी दिव्य कान्ति फैल गई। विस्मित उत्तर ने पूछा –

‘इस दिव्य धनुष और इन दिव्यास्त्रों का स्वामी कौन है?’

‘इस दिव्य धनुष और इन दिव्य अस्त्रों का स्वामी मैं स्वयं हूं,’ मैंने कहा।

‘और तुम कौन हो?’ उत्तर ने अगला प्रश्न किया।

‘मैं हूं पाण्डुपुत्र अर्जुन। अपने अज्ञातवास के एक वर्ष में, अपनी पहचान गुप्त रखने के उद्देश्य से मैंने बृहन्नला का रूप लिया। हमारा अज्ञातवास अब समाप्त हो चुका है। अब तुम्हें बृहन्नला कभी दिखाई नहीं पड़ेगा।’ मैंने उसे समझाया।”

उत्तर को मेरे कथन पर विश्वास नहीं हो रहा था। युद्ध के भय और मुझपर अविश्वास के कारण उसका मुखमण्डल विवर्ण हो रहा था। उसका मुख शुष्कप्राय हो गया था। थूक घोंटते हुए वह पुनः बोला –

“मैंने अर्जुन के दस नाम सुने हैं। यदि तुम उन दस नामों को, उनकी उत्पत्ति के कारणों के साथ बता सको, तो मैं विश्वास कर लूंगा कि तुम अर्जुन ही हो।”

“मैं अपने दस नाम तो बता सकता हूं लेकिन उनकी उत्पत्ति का कारण आज तक किसी को नहीं बताया क्योंकि ऐसा करने पर आत्म प्रशंसा की गंध आती है। इस समय युद्ध की स्थिति है, समय का अभाव है, अतः ईश्वर से क्षमा याचना के साथ तुम्हारे सन्देह को दूर करने और तुम्हारे मन में विश्वास उत्पन्न करने हेतु, तुम्हारी इच्छानुसार अपना परिचय देता हूं –

“राजकुमार! सारे देशों को जीतकर, उनसे धन लाकर मैं धन ही के बीच स्थित था, इसलिए ‘धनंजय’ कहा गया।

मैं जब भी संग्राम में जाता हूं, वहां युद्धोन्नमत्त क्षत्रियों को जीते बिना, कभी नहीं लौटता, इसलिए ‘विजय’ हूं।

संग्राम भूमि में युद्ध करते समय मेरे रथ में सुनहरी सज्जायुक्त, श्वेत अश्व जोते जाते हैं, अतः मैं ‘श्वेतवाहन’ हूं।

मेरा जन्म, दिन के समय हिमालय पर्वत पर उत्तरा फाल्गुनि नक्षत्र में हुआ था, इसलिए लोग मुझे ‘फाल्गुनि’ भी कहते हैं।

निवात कवच नामक दैत्यों से युद्ध के पूर्व देवराज इन्द्र ने मेरे मस्तक पर सूर्य के समान तेजस्वी किरीट पहनाया था, अतएव मैं ‘किरीटी ’ नाम से विख्यात हूं।

मैं युद्ध करते समय कोई बीभत्स कर्म नहीं करता, इसी से देवताओं और मनुष्यों में मैं ‘बीभत्सु’ नाम से प्रसिद्ध हूं।

गाण्डीव को खींचने में मेरे दोनों हाथ कुशल हैं, इसलिए देवता और मनुष्य मुझे ‘सव्यसाची’ नाम से पुकारते हैं।

चारो समुद्र पर्यन्त पृथ्वी में मेरे जैसा शुद्ध वर्ण दुर्लभ है। मैं कर्म भी शुद्ध ही करता हूं, अतः लोग मुझे ‘अर्जुन’ नाम से जानते हैं।

मैं दुर्लभ, दुर्जय, दमन करने वाला इन्द्र का पुत्र हूं, इसलिए संपूर्ण जगत में ‘जिष्णु’ नाम से विख्यात हूं।

मेरा दसवां नाम ‘कृष्ण’ है, जो पिताजी द्वारा दिया गया है। मैं उनका लाड़ला, चित्त को आकर्षित करने वाला जन्मना उज्ज्वल कृष्ण वर्ण का शिशु था”

राजकुमार उत्तर का संशय अब दूर हो चुका था। वह भयमुक्त भी हो चुका था। मुझे न पहचान पाने के कारण क्षमायाचना की। आदरपूर्वक रथ में पहले मुझे आरूढ़ करा, स्वयं सारथि के स्थान पर बैठ गया। कुशलतापूर्वक रथ का संचालन करते हुए वह मुझे कौरव सेना के सम्मुख ले गया। उत्तर का रथ-संचालन एक मंजे हुए सारथि जैसा था।

क्रमशः

 

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