(द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा और कर्ण की पराजय)
विपिन किशोर सिन्हा
अब मेरे सामने लाल अश्वों से युक्त रथ पर आरूढ़ परमपूज्य गुरुवर द्रोणाचार्य थे। मैंने उनके रथ की परिक्रमा की, प्रणाम किया और सम्मुख उपस्थित हो निवेदन किया –
“हे मेरे परमपूज्य गुरुवर! युद्ध में आप सदैव अजेय रहे हैं। आपको ज्ञात है कि दुर्योधन के षड्यंत्रों का शिकार बन, हमलोग वन-वन भटकते रहे, अपार कष्ट झेलते रहे। आज दैव ने अनायास ही बदला लेने का सुअवसर मुझे उपलब्ध करया है। अतः हे पूज्यपाद! मुझे उसतक पहुंचने का मार्ग प्रदान करें।”
आचार्य द्रोण पर मेरे आग्रह का प्रभाव नहीं पड़ा। मुझे देख, एक क्षण के लिए उनकी आंखें प्रसन्नता से चमकीं, लेकिन दूसरे ही क्षण उन्होंने भावनाओं पर नियंत्रण किया और कठोर वाणी में बोले –
“पृथापुत्र पार्थ! इस समय हमदोनों युद्ध की इच्छा से रणभूमि में आमने-सामने खड़े हैं। एक कुशल योद्धा की तरह मुझसे युद्ध करो। या तो तुम मुझसे पराजि होकर वापस लौटोगे या मुझे पराजित कर आगे का मार्ग पाओगे। मेरा शिष्य युद्धभूमि में वचनों से नहीं, बाणों से संभाषण करता है। युद्ध करो।”
“गुरुवर आप मुझपर क्रोध न करें। मैं आपसे युद्ध का श्रीगणेश कैसे कर सकता हूं? जबतक आप मुझपर प्रहार नहीं करेंगे, मैं आप पर अस्त्र नहीं छोड़ सकता। अतः प्रथम प्रहार आप ही करें। मैंने गुरुवर से निवेदन किया।
आचार्य द्रोण ने मुझे लक्ष्य करके इक्कीस बाण मारे। मैंने मार्ग के मध्य में ही उन्हें नष्ट कर दिया। वे भलीभांति जानते थे कि साधारण अस्त्रों के प्रयोग से वे मुझे विचलित नहीं कर सकते। उन्होंने एक-एक करके ऐन्द्र, वायव्य, और आग्नेय जैसे दिव्यास्त्रों का प्रयोग किया। मैंने पुनः उन्हें नमन किया और अपने दिव्यास्त्रों के प्रयोग से गुरुवर के अस्त्रों को निष्प्रभावी किया। अगले चरण में मृदु युद्ध करते हुए भी मैंने उनके कवच को छिन्न-भिन्न किया, ध्वजा काट गिराई, उनके शरीर को भी बाणों से बींध दिया। उनके आक्रमण को रोकने के लिए सामने से बाण-वर्षा कर एक अभेद्य दीवार बना दी। गुरुवर शीघ्रगामी अश्वों को हांककर रणभूमि से बाहर चले गए।
पिता की पराजय से पुत्र अश्वत्थामा का क्रोधित होना स्वाभाविक ही था। वह मेघ के समान प्रचण्ड बाण-वर्षा करते हुए मुझ पर चढ़ आया। उसका वेग वायु के समान प्रचण्ड था। उसने आते ही एक तीक्ष्ण बाण मारकर मेरी प्रत्यंचा काट डाली। चहुंओर उसकी जय-जयकार होने लगी। मैंने अविलंब गाण्डीव को झुकाकर उसपर प्रत्यंचा चढ़ाई, बाण-वर्षा कर अश्वत्थामा को आच्छादित कर दिया। हमदोनों ने एक ही गुरु से शिक्षा पाई थी। मेरे बाणों की काट उसके पास थी। वह अद्भुत शौर्य का प्रदर्शन कर रहा था। मेरे पास दो दिव्य तूणीर थे, उसके पास मात्र एक था। अश्वत्थामा क्रोध और अमर्ष में भरकर इतनी तीव्रता से प्रहार कर रहा था कि उसके सारे बाण समाप्त हो गए। विवश हो उसे भी रणभूमि छोड़नी पड़ी।
मैं अश्वत्थामा को रणभूमि छोड़कर जाते हुए दूर तक देखता रहा। मैं पितामह भीष्म के दर्शन करना चाह रहा था। लेकिन कर्ण पुनः मार्ग में आ गया। प्राथमिक उपचार के बाद वह युद्धभूमि में लौट आया था। मैं समझ गया – इसबार वह करने या मारने की मुद्रा में था। घायल शेर और आहत नाग को जीवित छोड़ देना सदैव खतरनाक होता है। अवसर पाते ही वह इन्द्र द्वारा प्रदत्त अमोघ शक्ति का प्रयोग मुझपर करेगा, इसका आभास मुझे हो रहा था। अतः मैंने पहले धावा बोलने का निर्णय लिया। मैं उसे सुरक्षात्मक युद्ध लड़ने के लिए विवश कर देना चाहता था। एक ही क्षण में लक्ष-लक्ष बाणों का संधान करके शत्रु को निरुत्तर करने की कला मुझे आचार्य द्रोण ने विशेष रूप से सिखाई थी। मैंने निरन्तर अभ्यास से इसमें निपुणता प्राप्त की थी। गुरु द्रोण कहते थे – “पार्थ! तुम्हारी यही विशेषता तुम्हें अन्य धनुर्धरों से पृथक करती है। तीव्र गति से शरसंधान कर तुम शत्रु को सम्मोहित कर देते हो फिर अपनी इच्छानुसार उसे रणभूमि छोड़ने को विवश कर देते हो या आवश्यकता पड़ने पर उसका वध कर देते हो।”
कर्ण-वध की प्रबल इच्छा से मैं उसकी ओर बढ़ा। वह अपने स्वभाव के अनुसार पहले वाक्युद्ध करता था, फिर धनुर्युद्ध में प्रवृत्त होता था। ऊंचे स्वर में वह मुझे संबोधित कर रहा था –
“भरी सभा में जो अपनी पत्नी की लाज की रक्षा नहीं कर सका, वह मुझसे युद्ध क्या करेगा? कापुरुषों के लिए उचित स्थान गिरि-कन्दराएं हैं या यमलोक। आज मैं तेरा वध कर महाराज दुर्योधन का ऋण चुकाऊंगा और तुझे तेरे गंतव्य को भेजूंगा।”
यह कर्ण नहीं, उसका अहंकार बोल रहा था। अमोघ शक्ति प्राप्त होने के बाद उसके आत्मविश्वास और अहंकार, दोनों में वृद्धि हुई प्रतीत हो रही थी। उसके वाक्बाणों के प्रहार से मैं तिलमिला उठा। कभी-कभी शत्रु के वाक्बाण धातु के बने उसके संहारक बाणों से अधिक पीड़ा पहुंचाते हैं। युद्ध के समय अविचल और शान्त रहना, मैंने अपना स्वभाव बना लिया था लेकिन कर्ण के कटुवचनों ने मुझे विचलित कर दिया। मैंने उसके निकट जाकर ऊंचे स्वर में कहा –
“राधापुत्र! अभी एक ही प्रहर पूर्व तू प्राण बचाने हेतु युद्धभूमि से पीठ दिखाकर भाग गया था। तेरा अनुज तेरे सामने मेरे हाथों वीरगति को प्राप्त हुआ। भला, तेरे सिवा ऐसा कौन योद्धा होगा जो अपने अनुज को मरवाकर, पीठ दिखाकर भाग जाय और सत्पुरुषों के बीच खड़ा होकर डींग हांकता फिरे। क्या द्रौपदी-स्वयंवर के अवसर पर मेरे हाथों मिली पराजय को भूल गए?
भरी सभा में तुमलोगों ने प्रत्येक विधि से पांचाली का अपमान किया था। उस समय धर्म के बंधन में बंधे रहने के कारण, सबकुछ सहने को मैं विवश था लेकिन आज उस क्रोध का फल तुझे मिलेगा। आज मेरे संहारक बाणों के प्रहार से या तो तू यमलोक का निवासी बनेगा या पुनः युद्धभूमि से पीठ दिखाने के लिए वाध्य होगा।”
मैंने अपना अन्तिम वाक्य पूरा होने के पहले ही उसपर असंख्य बाणों की वर्षा कर दी। वह सुरक्षात्मक युद्ध के लिए वाध्य हो गया। मेघों के समान उमड़ते बाण समूहों को काटने के लिए उसने भी असंख्य बाण चलाए लेकिन उसके हाथों में गति का अभाव था। मुझे उसपर प्रहार करने का मौका मिला – मैंने झुकी हुई गांठ और तीक्ष्ण नोंक वाले बाणों से उसके घोड़ों को बींध डाला, उसकी भुजाओं में गहरी चोट पहुंचाई, उसके हस्तत्राण को पृथक-पृथक विदीर्ण कर दिया। मेरे बाणों को काटने में उसका तूणीर रिक्त हो गया। मैं क्षण भर रुका। शस्त्रहीन पर आक्रमण करना मेरी नीति के विरुद्ध था। उसने दूसरा तूणीर लिया और मेरी ओर मुड़ते हुए विद्युत गति से तीव्र प्रहार किया। मेरे हाथों में उस्सके कई बाण घुस गए। मेरी मुष्टि ढ़ीली पड़ गई। कर्ण का यह प्रहार अप्रत्याशित था। मुझे थोड़ा शिथिल देख उसने एक प्राणघातक शक्ति मुझपर प्रक्षेपित की। मैंने उसे वायुमार्ग में ही अपने दिव्य शरों से नष्ट कर दिया, एक पक के शतांश में ही स्वयं को संतुलित किया और पुनः दूने वेग से कुछ अचूक शरों से बाण-वर्षा की। कर्ण का धनुष कट चुका था। उसके सहायतार्थ सैनिकों का समूह उसके पास पहुंचा। मैंने क्षण भर में सबको यमलोक का निवासी बना दिया। मेरे सारे बाण लक्ष्य पर लग रहे थे। कर्ण ने दूसरा धनुष उठाया, मैंने उसे भी काटा। उसने तीसरा धनुष उठाया, वह भी कटकर दूर जा गिरा। उसकी व्यग्रता बढ़ती जा रही थी। उसने एक प्राणघातक भल्ल उठाया। मुझे लक्ष्य कर वह फेंकने ही वाला था कि मैंने कान तक गाण्डीव को खींचकर अग्निबाण का प्रहार किया। वह बाण कवच को छेदकर कर्ण की छाती में जा धंसा। वह रथ के पार्श्वभाग में गिरकर अचेत हो गया। मैंने समझा, उसकी इहलीला समाप्त हो गई। सारथि ने उसका रथ मोड़ा और युद्धभूमि से दूर चला गया। मैंने सिंहनाद किया और शंखध्वनि से अपनी विजय की सूचना कौरवों को दी।
क्रमशः