कहो कौन्तेय-५४

(संजय को श्रीकृष्ण और अर्जुन का उत्तर)

विपिन किशोर सिन्हा

श्रीकृष्ण हमारे लिए भगवान बन चुके थे। वे हमारे प्रत्येक कार्य के कारक और नियंत्रक की भूमिका में आ चुके थे। वे हम पांचो भ्राताओं और द्रौपदी के आत्मबल थे। संकट के समय लगता था, कृष्ण ही एकमात्र संबल हैं। संजय के कुटिल प्रस्ताव का उत्तर हम श्रीकृष्ण के मुख से सुनना चाहते थे। हम सबकी दृष्टियां उनके मुखमण्डल पर केन्द्रित हो गईं। एक अलौकिक दिव्य दीप्ति से आलोकित हो रहा था उनका आनन। मुस्कुराते हुए उन्होंने संजय को संबोधित किया –

“संजय! मैं पाण्डवों और कौरवों, दोनों का शुभचिन्तक हूं। मैं चाहता हूं कि पाण्डवों का न्यायोचित अधिकार उन्हें शीघ्रातिशीघ्र प्राप्त हो और हस्तिनापुर समेत समस्त अर्यावर्त में स्थाई शान्ति की स्थापना हो। मैं धृतराष्ट्र के अभ्युदय की भी शुभकामना करता हू। पर शान्ति की स्थापना कठिन प्रतीत होती है। द्यूतक्रीड़ा के प्रावधानों के अनुसार इन्द्रप्रस्थ का राज्य तेरह वर्षों के लिए महाराज धृतराष्ट्र के पास धरोहर के रूप में था। इस राज्य पर पाण्डवों का प्राकृतिक और नैसर्गिक अधिकार है। महाराज धृतराष्ट्र को सम्मानपूर्वक पाण्डवों की धरोहर स्वेच्छा से लौटा देनी चाहिए। आर्यावर्त में शान्ति स्थापना का यही एक विकल्प है।

लुटेरा छिपे रहकर धन चुरा ले जाय अथवा सामने आकर बलपूर्वक डाका डाले, दोनों ही स्थिति में निर्विवाद रूप से वह निन्दा का पात्र होता है। संजय, निष्पक्ष होकर तुम्हीं बताओ, दुर्योधन और इन दस्युओं में क्या अन्तर है? उसने युद्ध के लिए जिन राजाओं को एकत्र किया है, वे मूर्ख हैं। वे अनायास ही मृत्यु के मुख में आ फंसे हैं।

संजय, सदा उत्साहपूर्वक धर्म का पालन करने वाले धर्मराज युधिष्ठिर के धर्मलोप की शंका तुम्हें क्यों हो रही है? द्यूतसभा में कौरवों ने पतिव्रता पांचाली और पाण्डवों से जो व्यवहार किया था, उस पापकर्म पर तुम्हारी दृष्टि क्यों नहीं जाती? पाण्डवों की प्रिय पत्नी सुशीला द्रौपदी रजस्वला अवस्था में भी बलपूर्वक सभा में लाई गई, पर भीष्म आदि प्रधान कौरवों ने भी उसकी ओर उपेक्षा दिखाई। उस समय यदि बालक से लेकर वृद्ध तक सभी कौरव, दुशासन को रोक देते, तो मेरा प्रिय कार्य होता और धृतराष्ट्र के पुत्रों का भी हित होता। सभा में बहुत से राजा एकत्रित थे, परन्तु दीनतावश किसी ने भी उस अन्याय का विरोध नहीं किया। केवल धर्मात्मा विदुर ने अपने धर्म का निर्वाह किया था। उन्होंने दुर्योधन को स्पष्ट शब्दों में मना किया था। वास्तव में धर्म को बिना समझे ही तुम इस सभा में युधिष्ठिर को ही धर्म का उपदेश देना चाहते हो। जिसने धर्मपूर्वक अश्वमेध और राजसूय जैसे यज्ञों का अनुष्ठान किया हो, जीवन में कभी अन्याय नहीं किया हो, अधर्म के आचरण के विषय में कभी सोचा भी न हो, ऐसे धर्मराज युधिष्ठिर को तुम धर्म की शिक्षा, धृतराष्ट्र के कहने पर दे रहे हो।

पाण्डव स्वधर्मानुसार कर्त्तव्य का पालन करते रहे और क्षत्रियोचित युद्ध कर्म में प्रवृत्त होकर यदि दैववश मृत्यु को भी प्राप्त हो जाएं, तो इनकी वह मृत्यु उत्तम ही मानी जाएगी। यदि तुम सबकुछ छोड़कर शान्ति धारण करने को ही धर्म मानते हो, तो यह बताओ कि धर्म युद्ध करने से राजाओं का धर्म उचित ढंग से पालन होता है या युद्ध छोड़कर भाग जाने से? जगद्जननी सीता को बिना मुक्त कराए, यदि श्रीराम वनवास के बाद अयोध्या लौट आते, तो रावण से युद्ध नहीं करना पड़ता, भीषण नरसंहार नहीं हुआ होता, और जिसे तुम शान्ति कहते हो, वह शान्ति भी भंग नहीं होती। अन्याय के विरुद्ध संघर्ष में प्राणों की आहुति देना क्षत्रियों का धर्म होता है। पाण्डव धर्मराज युधिष्ठिर के नेतृत्व में अपने सहज क्षत्रिय धर्म का पालन करेंगे। महाराज धृतराष्ट्र और दुर्योधन की हठधर्मिता के कारण युद्ध को टालना असंभव लग रहा है, फिर भी इस बिगड़े हुए कार्य को बनाने के लिए मैं स्वयं हस्तिनापुर चलना चाहता हूं। यदि पाण्डवों का हित नष्ट किए बिना ही कौरवों के साथ संधि कराने में सफल हो सका, तो मैं अपने इस कार्य को अत्यन्त पुनीत और अभ्युदयकारी समझूंगा। कौरव लताओं के समान हैं और पाण्डव वृक्ष की शाखा के समान। इन शाखाओं का सहारा लिए बिना लताएं नहीं बढ़ सकतीं। पाण्डव युद्ध के लिए तैयार हैं और संधि के लिए भी। महाराज धृतराष्ट्र को जो अच्छा लगे, स्वीकार करें। तुम ये सारी बातें उन्हें अच्छी तरह समझा देना। मैं शीघ्र ही औपचारिक संधि-प्रस्ताव के साथ हस्तिनापुर की राजसभा में उपस्थित होऊंगा।”

संजय के माध्यम से धृतराष्ट्र का कुटिल प्रस्ताव सुन, मेरे शरीर का सरा रक्त जैसे उबल गया। हमें युद्ध जैसे निकृष्ट कार्य से विरत होने का सुझाव दिया जा रहा था। हमें भिक्षावृत्ति अपनाने का परामर्श भेजने वाले वृद्ध धृतराष्ट्र की आत्मा क्या सदा के लिए सो गई थी? पूरा हस्तिनापुर हमारा था। लेकिन हमने आधे से संतोष किया। न्यायतः हमारा इन्द्रप्रस्थ हमें वापस मिल जाना चाहिए था। हमने इसी संदेश के साथ अपना दूत भेजा था लेकिन सारी चेष्टाएं व्यर्थ गईं। अहंकारी, ईर्ष्यालू, दुराचारी कौरवों के स्वार्थ और अधर्म बुद्धि के सम्मुख धर्म और न्याय की बात बेतुकी थी। महासमर के अतिरिक्त कोई मार्ग शेष नहीं बचा था।

मैंने अपने भावों को बहुत दिनों से अपने मन में दबाए रखा था। अब वे अभिव्यक्ति चाहते थे। संजय हस्तिनापुर जाने को उद्यत थे। मैं उन्हें एकान्त में ले गया और दुर्योधन के लिए अपना संदेश सुनाया –

“यदि दुर्योधन हमारा इन्द्रप्रस्थ हमें वापस लौटाने के लिए तैयार नहीं है, तो यह स्पष्ट है कि राजसभा में पांचाली का अपमान करने के अतिरिक्त कोई ऐसा और भी पापकर्म शेष है जिसका फल उसे भोगना बाकी है। वह शान्ति प्रस्ताव को ठुकराकर हमारा मनोरथ ही सिद्ध करना चाहता है। उसने ऐसे-ऐसे अपराध किए हैं जो क्षमा योग्य नहीं हैं। दुर्योधन, दुशासन और कर्ण को मृत्युदंड देने के लिए, भीम की गदा फड़कती है और मेरा गाण्डीव कड़कता है। पांचाली के आंसू प्रतिशोध मांगते हैं। तेरह वर्षों से उसके खुले केश, दुशासन के रक्त के प्यासे हैं। अगर हमने उसकी प्रतिज्ञा पूरी नहीं की, तो क्षत्रियकुल में हमारे जन्म को धिक्कार है। मैंने अबतक के अपने जीवन काल में किसी भी युद्ध में अपने समस्त अस्त्रों का प्रयोग नहीं किया है, लेकिन आसन्न महासमर में मैं उनका प्रयोग करूंगा। जिस प्रकार ग्रीष्म ऋतु में अग्नि प्रज्ज्वलित होकर गहन वन को जला डालती है, उसी प्रकार पाशुपतास्त्र, ब्रह्मास्त्र, इन्द्रास्त्र आदि अलौकिक दिव्यास्त्रों का प्रयोग कर, मैं समस्त कौरवों को उनके शुभचिन्तकों के साथ भस्म कर दूंगा। हे संजय! दुर्योधन को यह बता देना कि ऐसा किए बिना मुझे शान्ति नहीं मिलेगी।”

हस्तिनापुर की राजसभा एक बार फिर आहूत की गई। महाराज धृतराष्ट्र, पितामह भीष्म, गुरु द्रोण, कृपाचार्य, कर्ण, शकुनि, जयद्रथ, अश्वत्थामा आदि सभासदों के मध्य दुर्योधन अपने समस्त भ्राताओं के साथ उपस्थित था। धृतराष्ट्र के निर्देश पर संजय ने शब्दशः मेरा, युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण का संदेश उन्हें सुनाया। ज्येष्ठ पिताश्री युद्ध की आशंका से भयभीत हो रहे थे। जैसी अपेक्षा थी – पितामह और महात्मा विदुर ने हमारा इन्द्रप्रस्थ हमें ससम्मान वापस करने का सत्परामर्श दिया। धृतराष्ट्र ने भी हमारा राज्य हमें लौटाने का सुझाव दिया। लेकिन कर्ण को यह परामर्श स्वीकार नहीं था। भरी सभा में वह पितामह के साथ वाक्युद्ध में प्रवृत्त हो गया। पितामह लगातर उसे अर्धरथी कहकर संबोधित कर रहे थे। भरी सभा में अपनी निन्दा से क्षुब्ध हो उसने, उनके नेतृत्व में कभी युद्ध न करने की प्रतिज्ञा कर डाली। दुर्योधन ने उसे समझाने का पूरा प्रयास किया लेकिन वह पैर पटकता हुआ, राजसभा से चला गया।

दुर्योधन के पासे अब उल्टे पड़ रहे थे। सत्ता मद और अहंकार ने उसे दृष्टिहीन बना दिया था। विनाश सम्मुख खड़ा मुस्कुरा रहा था। बुद्धि तो विपरीत होनी ही थी। उसपर ना तो पितामह की बातों का कोई असर पड़ रहा था, ना ही महात्मा विदुर के सत्परामर्श का। वह युद्ध के लिए दृढ़प्रतिज्ञ था। कर्ण ने उसे विश्वास दिला रखा था कि वह अकेले ही भ्राताओं समेत मेरा वध करने में सक्षम है। संजय ने धृतराष्ट्र और दुर्योधन को शब्दशः हमारे संदेश सुनाए थे लेकिन उधर से कोई प्रत्युत्तर नही आया। हां, कौरवों में विघटन अवश्य हुआ था। कर्ण ने पितामह के नेतृत्व में युद्ध न करने की प्रतिज्ञा की थी। यह कूटनीतिक स्तर पर हमारी पहली सफलता थी।

क्रमश:

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विपिन किशोर सिन्हा
जन्मस्थान - ग्राम-बाल बंगरा, पो.-महाराज गंज, जिला-सिवान,बिहार. वर्तमान पता - लेन नं. ८सी, प्लाट नं. ७८, महामनापुरी, वाराणसी. शिक्षा - बी.टेक इन मेकेनिकल इंजीनियरिंग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय. व्यवसाय - अधिशासी अभियन्ता, उ.प्र.पावर कारपोरेशन लि., वाराणसी. साहित्यिक कृतियां - कहो कौन्तेय, शेष कथित रामकथा, स्मृति, क्या खोया क्या पाया (सभी उपन्यास), फ़ैसला (कहानी संग्रह), राम ने सीता परित्याग कभी किया ही नहीं (शोध पत्र), संदर्भ, अमराई एवं अभिव्यक्ति (कविता संग्रह)

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