कहो कौन्तेय-७८

विपिन किशोर सिन्हा

दुशासन का वध

मेरे मन में न जाने क्यों आज कुछ शंकाएं घर करती जा रही थीं। आज ही सूर्यास्त के पूर्व कर्ण-वध की प्रतिज्ञा कर ली थी, लेकिन उसको नहीं मार पाया तो? इस महासमर में मैंने जयद्रथ, भगदत्त, सुशर्मा समेत असंख्य महारथियों का वध किया था लेकिन कर्ण उन सबसे अलग था। उसके साथ युद्ध में पल भर की चूक प्राण ले सकती थी। उसके प्रहारों में अद्भुत शक्ति निहित थी। रणभूमि में जाते समय मैं तनिक चिन्तित था। अन्तर्यामी श्रीकृष्ण से मेरी अन्तर्दशा छिपी न रह सकी। कर्ण से युद्ध करने के पूर्व मुझे वर्तमान मनोदशा से उबारना अत्यन्त आवश्यक था। उन्होंने अत्यन्त सधी हुई वाणी में मुझे संबोधित किया –

“गाण्डीवधारी अर्जुन! तुम कितने बड़े शूरवीर हो, यह तुम भी नहीं जानते। सिर्फ मैं जानता हूं कि तुम कौन हो और तुम्हारी क्षमता क्या है? तुमने अपने पराक्रम से जिन-जिन वीरों पर विजय पाई है, उन्हें जीतने वाला इस लोक में तुम्हारे अतिरिक्त कोई दूसरा जीवधारी नहीं है। जो तुम्हारे जैसे वीर हैं, तुम्हीं बताओ, उनमें से कौन ऐसा मनुष्य है जो देवराज इन्द्र, ग्न्धर्वराज चित्रसेन, कालिकेय वीरों भीष्म, द्रोण, विन्द-अनुविन्द, काम्बोज, सुदक्षिण, भगदत्त तथा अच्युतायु का सामना करके सकुशल लौट सकता था? तुमने अपनी अद्भुत युद्ध कला से साक्षात महादेव जी को प्रसन्न किया है। तुम पाशुपतास्त्र समेत अनेक दिव्यास्त्रों के स्वामी हो। तुममें चीते-सी फूर्ती, विद्युत समान चपलता और अतुलित शक्ति है। तुम्हें समस्त अस्त्र-शस्त्रों का पूर्ण ज्ञान है, तुम्हें लक्ष्य को भेदने और गिराने की कला ज्ञात है। लक्ष्यभेद करते हुए तुम्हारा चित्त आश्चर्यजनक ढंग से एकाग्र रहता है। युद्ध के समय तुम्हें घबराहट नहीं होती। तुम्हारी इच्छाशक्ति अत्यन्त प्रबल है। तुम चाहो तो देवताओं और गन्धर्वों सहित संपूर्ण चराचर जगत का विनाश पलक झपकते कर सकते हो। इस भूमण्डल में तुम्हारे समान कोई दूसरा योद्धा है ही नहीं। तुम्हारे पास महान गाण्डीव धनुष है जिसकी रचना स्वयं ब्रह्माजी ने की थी। आज इस धनुष से तुम दुष्टात्मा कर्ण का वध कर धर्म की पुनर्स्थापना करने का दुष्कर कार्य करने जा रहे हो। विजय ही विजय है। मन की सारी शंकाओं को निकालकर युद्ध में प्रवृत्त हो जाओ।

पार्थ! यह वही कर्ण है जिसने माता सहित तुमलोगों को लाक्षागृह में भस्म करने की योजना बनाने में दुर्योधन का साथ दिया था। इसी कर्ण ने भरी सभा में पतिव्रता पांचाली को तुम्हारे सामने वेश्या कहकर संबोधित किया था। इसी के बल पर विश्वास में भरा हुआ दुर्योधन मुझे भी बन्दी बनाने के लिए उद्यत हुआ था। इसी कर्ण ने द्रोणाचार्य से अभिमन्यु-वध का रहस्य ज्ञात कर उसका धनुष काट उसे शस्त्रहीन किया था। इतना ही नहीं, छः निर्दयी महारथियों के साथ मिलकर इस पापी ने अस्त्र-शस्त्र विहीन वीर बालक को अपनी आंखों के सामने अधर्म का आश्रय लेते हुए हत्या कराई थी। तुम लोगों पर दुर्योधन ने जितने अत्याचार किए हैं, उसका मूल कारण कर्ण ही रहा है।

आज कर्ण-वध का सुअवसर शीघ्र ही तुम्हारे सम्मुख उपस्थित होने वाला है। मेरी प्रबल इच्छा है कि आज दुरात्मा कर्ण अपने शरीर पर गाण्डीव धनुष से छूटे हुए भयंकर बाणों की चोट सहता हुआ आचार्य द्रोण तथा पितामह भीष्म के वचनों को याद करे। तुम्हारे सायकों से पीड़ित नृपगण आज दीन और विषादग्रस्त होकर हाहाकार मचाते हुए कर्ण को रथ से नीचे गिरता हुआ देखें।”

केशव के ओजस्वी और दृढ़ वचनों ने मेरी समस्त शंकाओं का समाधान कर दिया था। मेरे शरीर में अद्भुत स्फूर्ति और मन में प्रचण्ड आत्मविश्वास ने स्थान बनाया। गाण्डीव की टंकार के साथ केशव को आश्वस्त किया –

“गोविन्द! जिसके संरक्षक, सलाहकार और स्वामी आप हैं, उसकी विजय के प्रति कैसा सन्देह? आज मेरी और आपकी एक ही इच्छा है – कर्ण का वध। आज मेरे गाण्डीव से छूटे हुए बाण कर्ण को निश्चित ही मृत्यु का दान देंगें।”

मैंने उत्साह में भरकर देवदत्त का उद्घोष किया। मेरे व्रत का समर्थन करते हुए श्रीकृष्ण ने भी पांचजन्य का प्रलयंकारी घोष किया।

रणभूमि में कुछ अवधि के लिए मेरी अनुपस्थिति का लाभ लेने के लिए कर्ण, दुर्योधन, शकुनि, कृतवर्मा और अश्वत्थामा आदि महारथियों ने अथक प्रयास किया लेकिन भीमसेन के नेतृत्व में सात्यकि, धृष्टद्युम्न, उत्तमौजा, नकुल, सहदेव और द्रौपदी पुत्रों ने वीरतापूर्वक उनका सामना किया। उत्तमौजा के पराक्रम का शिकार बना कर्ण का पुत्र सुषेण। उसे मृत्यु का वरण कर उत्तमौजा से युद्ध का मूल्य चुकाना पड़ा। कृपाचार्य भी उत्तमौजा का प्रवाह रोकने में असमर्थ थे। अश्वत्थामा ने अपने मातुल की रक्षा की अन्यथा वे भी वीरगति को प्राप्त हो गए होते।

शकुनि का दुर्भाग्य उसे भीमसेन के पास खींच ले आया। उसके कपट पासे फेंकने वाले हाथों को बाण मारकर भीम ने पंगु बना दिया। जीवन भर द्यूत खेलने वाला भिड़ा भी तो किससे? भीम का एक शक्तिशाली बाण उसके सीने में धंसा और वह मूर्च्छित हो रथ के नीचे आ पड़ा। भीम उसे मृत समझ आगे बढ़ गए। दुर्योधन उसे अपने रथ पर लाद युद्धभूमि से बाहर ले गया। दुर्योधन की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहा – शकुनि की सांस चल रही थी।

भीम को दूसरी दिशा में जाते देख कर्ण को अवसर मिला। वह धरती को कंपित करता हुआ अग्रवर्ती सेना में प्रलय मचाते हुए शीघ्रता से घुस गया। सात्यकि, धृष्टद्युम्न और नकुल ने उसे रोकने का बहुत प्रयास किया लेकिन उसने हमारी सेना का संहार जारी रखा। उसके हाथ तभी रुके जब उसके कानों ने देवदत्त और पांचजन्य का समवेत स्वर सुना और आंखों ने दूर लहराते हुए हमारे कपिध्वज को देखा।

युद्धभूमि में ही उसने दुर्योधन, दुशासन, कृपाचार्य, कृतवर्मा और अश्वत्थामा को बुलाकर आपात्कालीन मंत्रणा की और आदेश दिया –

“नरश्रेष्ठ महारथियो! अर्जुन-वध का सुअवसर शीघ्र ही उपस्थित होने वाला है। अपनी मृत्यु को निमंत्रण देता हुआ वह श्रीकृष्ण के साथ मेरी ओर बढ़ता आ रहा है। आप सभी उन दोनों पर धावा कर उन्हें चारों ओर से घेर लें और सभी दिशाओं से युद्ध छेड़कर अपने प्रबल प्रहारों से उसे अच्छी तरह थका डालें। आपलोगों के प्राणघातक बाणों से जब वे बहुत घायल हो जाएंगे तब मैं युद्ध के लिए उनके सम्मुख आऊंगा और दोनों को सुगमता से मृत्यु-दान दे दूंगा।”

सभी कौरव महारथियों ने कर्ण के आह्वान का उत्साह के साथ पालन किया। उसे पार्श्व में रखकर सभी वीर वेगपूर्वक मेरी ओर बढे। सबने पूरी क्षमता से बाण-वर्षा कर आकाश को पूरी तरह ढंक दिया। अश्वत्थामा के बाण मुझे, श्रीकृष्ण और अश्वों को घायल कर गए। अब प्रत्याक्रमण की मेरी बारी थी। अश्वत्थामा का सारथि गतप्राण हुआ, उसका धनुष कटा। निरंकुश अश्वों ने उसे रणक्षेत्र से बाहर किया। कृपाचार्य, दुर्योधन और कृतवर्मा को भी मैंने शस्त्रहीन और रथहीन करके पीछे हटने के लिए वाध्य किया। कौरवों की बची-खुची सेना छिन्न-भिन्न होकर पलायन करने लगी। कर्ण का पुत्र प्रसेन सात्यकि के हाथों वीरगति को प्राप्त हुआ। शत्रुपक्ष का कोई भी योद्धा मेरे, सात्यकि और भीमसेन के सम्मुख आने का साहस नहीं कर पा रहा था।

महासंग्राम अपने चरम पर था। हम सामुद्रिक ज्वार की भांति कौरव सेना में घुसते जा रहे थे। मैं शीघ्रातिशीघ्र कर्ण के पास पहुंचना चाह रहा था कि विशाल सेना के साथ दुशासन बीच में आया। भीम ने दूर से ही दुशासन को ललकारा। आज महाकाल दुशासन को भीम के पास खींच ले आया था। मैंने और सात्यकि ने भीम के रथ की रक्षा का दायित्व लिया और उन्हें स्वतंत्र रूप से आक्रमण करने का अवसर दिया।

“नीच दुशासन! आज मैं तेरा रक्तपान करूंगा, पांचाली के अपमान का बदला लूंगा।” भीम ने दिल को दहला देने वाली गर्जना की और प्राणघातक बाणों से उसपर भयानक हमला बोल दिया। सारी सेना ने एक भयंकर युद्ध देखा। मैंने बाण-वर्षा करके कौरव वीरों को आगे बढ़ने से रोक दिया। वे युद्ध को देख सकते थे, किसी तरह की सहायता नहीं पहुंचा सकते थे।

दुशासन ने अपने जीवन में इतना पराक्रम कभी नहीं दिखाया था जितना आज दिखा रहा था। एक बार तो अपने प्रबल प्रहार से भीम को क्षण भर के लिए अचेत भी कर डाला था। मृत्यु को सम्मुख पा मनुष्य या तो हथियार डाल देता है, या प्राणपण से उसका प्रतिकार करता है। आज दुशासन जीवन और मृत्यु का संघर्ष कर रहा था। धनुर्युद्ध में भीम से रंचमात्र भी कम नहीं पड़ रहा था। हम सभी चकित थे, सांस रोककर युद्ध देख रहे थे। अचानक भीम का क्रोध उबाल खाने लगा। प्रबल हुंकार के साथ अपनी भयानक गदा दुशासन पर पूरी शक्ति से चलाई। दुशासन ने एक शक्ति के प्रहार से गदा को तोड़ने का प्रयास किया लेकिन गदा महावीर भीम की थी। शक्ति को टूक-टूक करती हुई दुशासन के मस्तक से टकराई। उसका रथ उलट गया, कवच छिन्न-भिन्न हो गया, आभूषण बिखर गए और रत्नजटित वस्त्र तार-तार हो गए। भीमसेन का यह प्रहार भयंकर और निर्णायक था। वेदना से कांपता और छटपटाता दुशासन रथ से नीचे आ चुका था।

भीमसेन भी रथ से कूदकर नीचे आए। उन्हें दुशासन के पाप एक-एक कर याद आने लगे। क्रोध के कारण उनके रोम-रोम से अग्नि स्फुर्लिंग निकलने लगे। हाथ में नंगी तलवार लिए वे दुशासन के पास पहुंचे, मेघ गर्जन-सी आवाज में कर्ण, दुर्योधन, कृपाचार्य, अश्वत्थामा आदि महारथियों को चुनौती देते हुए कह रहे थे –

“योद्धाओं! इस पापी ने प्रदूषित मन से पतिव्रता पांचाली का स्पर्श किया था। वह अनाचार आपकी आंखों के सामने हुआ था। उस समय हम महाराज युधिष्ठिर के कारण विवश और लाचार थे, लेकिन आज स्वतंत्र हैं। मैं आपलोगों के सम्मुख इस दुरात्मा का वध कर रहा हूं। आप सब लोग मिलकर इसे बचा सकते हों, तो बचा लीजिए।”

कोई महारथी हिल तक नहीं पाया। मैंने अपनी बाण-वर्षा से उनके सारे मार्ग बन्द कर दिए थे। मूक दर्शक बने रहने के अतिरिक्त उनके पास कोई विकल्प शेष नहीं था।

“बोल दुरात्मन, बोल। राजसूय यज्ञ में अवभृथ स्नान से पवित्र हुई महारानी द्रौपदी के केशों को तूने किस हाथ से खींचा था? बता, आज भीमसेन तुझसे इसका उत्तर चाहता है।” गरजते हुए भीम ने दुशासन से पूछा।

दुशासन मरणासन्न था लेकिन उसकी अकड़ ढीली नहीं पड़ी थी। आवेश में आकर बोला –

“यह है वह हाथ जिसने असंख्य क्षत्रिय वीरों का संहार किया है। भीमसेन! जब तुम नपुंसकों की भांति पत्नी का अपमान देख रहे थे, मैंने इसी दाहिने हाथ से तुम्हारी प्रिया द्रौपदी के केश खींचे थे।”

भीम ने खड्ग फेंका, चपलता से दुशासन की दाईं भुजा दोनों हाथ से पकड़ी, दायां पैर उसकी कांख में दबाकर ऊंचे स्वर में घोषणा की –

“पतिव्रता पांचाली की पवित्र केशराशि को स्पर्श करने वाली तुम्हारी इस पापी भुजा को मैं समूल उखाड़कर फेंक देता हूं”

असीम शक्तिशाली गदावीर ने एक ही झटके में दुशासन की भुजा को समूल उखाड़कर घुमाते हुए दूर फेंक दिया। रक्त के अनेक सोते फूट पड़े।

भीमसेन पर इस समय किसी का नियंत्रण नहीं था – उनकी अपनी बुद्धि का भी नहीं। भुजा उखाड़ने के दूसरे ही पल दुशासन की गदा उठाई और एक ही प्रहार से उसके गर्वोन्नत वक्ष को छिन्न-भिन्न कर दिया……..उसके प्राण पखेरू उड़ गए।

गदा फेंक भीमसेन दुशासन के शव के पास बैठे। उसके वक्ष से बहते रक्त में मुंह डालकर इस प्रकार रक्तपान करने लगे जैसे कोई भूखा बालक दुग्धपान करता हो।

मैंने आंखें बन्द कर ली। कई योद्धा मूर्च्छित हो गए। श्रीकृष्ण ने रथ से उतरकर भीम को नियंत्रित किया। भीम अट्टहास कर रहे थे। एक पात्र में दुशासन के रक्त को एकत्रित कर विशेष संदेशवाहक से उसे द्रौपदी के पास भिजवाया, पश्चात अपने रथ पर आरूढ़ हो पुनः कौरव सेना पर प्रलय बन टूट पड़े।

क्रमशः

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here