कहो कौन्तेय-८५

विपिन किशोरे सिन्हा

कर्ण के लिए अर्जुन का अन्तिम प्रश्न

मेरी अनकही अभिव्यक्ति को कर्ण बूझ गया, ऐसा मुझे लगा। सूर्यपुत्र कर्ण से अपने वार्त्तालाप के उद्देश्य को संप्रेषित करते हुए मैंने कहा –

“मृत्युंजय! तुम्हारे जीवन के एक सबसे महत्त्वपूर्ण सत्य से आवरण हटाने के लिए मैंने इस निर्जन स्थान का चयन किया है। उस अस्त होते हुए सूर्य की ओर देखो और ध्यान से मेरी बात सुनो। कर्ण! तुम सूतपुत्र नहीं हो, तुम राधा और अधिरथ के भी पुत्र नहीं हो। तुम राजमाता कुन्ती के प्रथम पुत्र हो। उस पश्चिम के क्षितिज पर ध्यान से देखो। साक्षात सूर्यदेव के हिरण्यगर्भ के तेजःपुत्र हो तुम। तुम सूर्यपुत्र हो। तुम राधेय नहीं, कौन्तेय हो – पाण्डवों के सगे भ्राता – सबसे ज्येष्ठ पाण्डव।

कौमार्यावस्था में कुन्ती देवी ने दुर्वासा के दिव्य मंत्र का प्रभाव परखने के लिए बालसुलभ कौतुहलवश सूर्य की आराधना की। सूर्य देवता प्रकट हुए और मंत्र के प्रभाव से तुम्हारा जन्म हुआ। कौमार्यावस्था में पुत्र-प्राप्ति, समाज की दृष्टि से राजकन्या को कलंकित करने वाली घटना थी। तुम्हें अपनाना उन्हें मर्यादा हीन नारी की संज्ञा देता। यह समाज उन्हें जीने नहीं देता……..फिर तुम्हारे भी अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लग जाता। इसलिए उस निरीह अबला मां ने, हृदय पर पाषाण रख, एक सुन्दर पेटिका में स्वर्ण मुद्राओं और बहुमूल्य रत्नों के साथ, अपने जीवन के सबसे अनमोल रत्न को, नदी की धारा में बहा दिया। गंगा की धाराओं में बहती पेटिका अधिरथ के पास पहुंची। तुम्हें देख राधा के स्तनों में दूध उतर आया। उसने तुम्हें छाती से चिपका लिया। तबसे लेकर आजतक एक सूतपुत्र के रूप में तुम बड़े हुए हो। अपने दिव्य कुल का उत्तरधिकार ज्ञात न होने के कारण, दुर्योधन के भ्रमजाल में पड़कर, अन्याय के पक्ष में खड़े हो गए। अज्ञानता वश तुम पाण्डवों का विरोध करते आए हो, अपने ही सहोदरों से द्वेष करते आए हो। अर्जुन से अस्वस्थ स्पर्धा और ईर्ष्या के वशीभूत हो, तुमने दुर्योधन की शरण ली और सदैव अहंकार को पौरुष माना। अब सत्य का साक्षात्कार कर, क्या तुम वैसे ही रहोगे? मैं तुम्हारा ममेरा भाई कृष्ण, तुम्हारा आह्वान करता हूं – चलो, अपने घर को लौट चलो। तुम्हारे जन्म से लेकर आज तक चिर विरह की अग्नि में दग्ध होती, अपनी माता कुन्ती के पास चलो। बन्धुप्रेम के लिए आतुर, अपने बान्धवों के पास चलो। हस्तिनापुर के राजसिंहासन पर ज्येष्ठ भ्राता के रूप में वे तुम्हारा ही अभिषेक करेंगे। विनीत भाव से धर्मराज युधिष्ठिर, हाथ में चंवर ले, तुम्हारे सिर पर डुलाया करेगा। सामर्थ्यशाली महाबली भीमसेन, तुम्हारे मस्तक पर विनम्रतापूर्वक छ्त्र रखेगा, और जिसे तुम अज्ञानतावश अपना सबसे बढा शत्रु मानते आए हो, वह कनिष्ठ भ्राता धनुर्धर अर्जुन, तुम्हारे रथ का सारथ्य करेगा। नकुल, सहदेव, अभिमन्यु और द्रौपदी के पांचों पुत्र तुम्हारे अनुचर बनेंगे। सम्राटों के सम्राट के रूप में आर्यों की अनेक पीढ़ियां तुम्हारे नाम का स्मरण कर धन्य-धन्य होंगी। आओ कौन्तेय, मेरे रथ पर सवार हो, अपने रक्तसंबन्धियों के पास चलो।”

“नहीं केशव, नहीं। जिस मार्ग पर जाना नहीं, उसके विषय में ज्ञान एकत्र करने से क्या लाभ? मै पाण्डुनन्दन नहीं, लेकिन कुन्तीपुत्र हूं – सूर्य के वरद स्वरूप, माता कुन्ती का ज्येष्ठ आत्मज बनकर अनचाही सन्तान के रूप में, मैं पृथ्वी पर आया हूं। इस तथ्य से स्वयं सूर्यदेव ने वर्षों पूर्व अवगत कराया था मुझे।

आप कहते हैं, मैं लौट चलूं, रक्तसंबन्धी पाण्डुनन्दन भ्राताओं के पास! मेरा लौटना अब संभव नहीं, यशोदानन्दन! मैं और पाण्डव – दो ऐसी समानान्तर रेखाएं हैं, जो चलती तो हैं एक दूसरे के साथ-साथ, लेकिन मिलती कहीं नहीं। उनके मिलन के लिए उनका कोणिक होना अनिवार्य है। मैं सूर्यपुत्र हूं, सूर्य की तेजस्वी किरणों का साक्षात प्रतिरूप। मेरी स्वाभाविक गति ही सूर्य-किरणों की गति है। मेरे व्यक्तित्व का एकरैखीय एवं तेजोदीप्त होना, मेरे पितृदेव के अनुरूप ही है। सूर्य की किरणें कभी टेढ़ी-मेढ़ी होती हैं क्या? एक बार जिस दिशा में चल पड़ीं, चलती चली जाती हैं। राज्य, संपत्ति, कीर्ति, प्रेम के बंधन – कोई भी पाश सूरज की किरणों को बांध नहीं सकता, विचलित नहीं कर सकता।

मधुसूदन! संबन्ध दो प्रकार के होते हैं – नैसर्गिक और निर्मित। नैसर्गिक संबन्ध जन्म से पूर्व ही निर्धारित हो जाते हैं, जैसे – पिता, पुत्र माता, सहोदर इत्यादि। निर्मित संबन्ध वे हैं जिन्हें हम अपने सामाजिक होने की प्रक्रिया में स्वयं बनाते हैं – मित्र, शत्रु, पड़ोसी, गुरु, शिष्य इत्यादि। नैसर्गिक संबन्धों की परिधि से तो मुझे जन्म लेते ही अवशिष्ट पदार्थ की भांति फेंक ही दिया गया था। बच रहे थे स्वनिर्मित संबन्ध, तो सत्य कहूं, उन्हीं संबन्धों ने मुझे जीवनी शक्ति दी। विपरीत परिस्थितियों में भी जिजीविषा की अग्नि को बुझने नहीं दिया। पिता अधिरथ, माता राधा और बन्धु दुर्योधन – इन्होंने ही तो इस निष्ठुर समाज में मुझे अपनी अस्मिता बनाए रखने में सहयोग दिया। मैं इनके ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकता।

धर्म क्या है, अधर्म क्या है – सूतपुत्र कर्ण जानता है, अच्छी तरह से। पाण्डव और कौरव – दोनों पक्ष के सत्यासत्य से भी परिचित हूं मैं। किन्तु तथ्य और सत्य में भेद होता है। सत्य यह है कि पाण्डवों के साथ अन्याय हुआ है और हो सकता है, यह धर्मयुद्ध उन्हीं के पक्ष में निर्णय दे। किन्तु तथ्य यह है कि दुर्योधन ने मुझे ‘मित्र’ कहकर सम्मान दिया है। मैं क्षत्रिय हूं, शपथ भंग नहीं करूंगा। दुर्योधन चाहे जिस पथ का पथिक हो, उसका सहयात्री मैं बनूंगा ही। वह मित्रता ही क्या जिसे समय, लोभ एवं परिस्थितियों कि झंझा अस्थिर कर तोड़ दे। मित्रता ग्रहण की है, तो मित्र के गुण-अवगुण मेरे निज के हैं। मित्र को प्रवंचित कर मेरी आत्मा भग्न हो जाएगी।

जाइये माधव, अब आप जाइये। मैं नहीं चाहता की आपकी मधुर रसभरी बातों से मेरे हृदय के किसी कोने में पाण्डुपुत्रों के लिए कोई कोमल भाव विकसित हो। हां, मेरा एक आग्रह है, विनती करता हूं, आप अवश्य मानिएगा – कृपा कर, पाण्डवों को यह कभी मत बताइएगा कि मैं उनका ज्येष्ठ भ्राता हूं। मैं युधिष्ठिर को अच्छी तरह जानता हूं। वे महान धर्मात्मा हैं। सत्य ज्ञात होते ही, वे हस्तिनापुर का एकछत्र राज्य मुझे दे देंगे। हे माधव! मुझे राज्य का लोभ नहीं है। उनके द्वारा प्रदत्त राज्य मैं दुर्योधन को अर्पित कर दूंगा। पांचों भ्राताओं का शेष जीवन वन में ही व्यतीत हो जाएगा। मैं इस पाप का भागी नहीं बनना चाहता। हे श्याम सुन्दर! इतनी कृपा अवश्य करें, इस रह्स्य को स्वयं तक ही सीमित रखें।”

मैंने उसे बहुत समझाया, पर वह अविचल रहा, अपने निर्णय पर पुनर्विचार नहीं किया। मेरा हाथ छुड़ा, जाने के लिए उद्यत हुआ। मुझे प्रणाम किया, झुककर मेरा चरण-स्पर्श भी किया। प्रणम्य होते समय उसकी आंखें अश्रुपूरित थीं। उसकी आंखों से निकले आंसुओं की कुछ मोटी बून्दें मेरे पैरों पर पड़ीं। ये अश्रु प्रेम के थे, संवेदना के थे, विवशता के थे या पश्चाताप के, कह नहीं सकता।

कर्ण तीव्र गति से लौट गया। उसकी पद ध्वनि दूर तक सुनाई देती रही। वह पीछे मुड़कर देखना नहीं चाहता था, उसे अपने बिखर जाने का भय था।

उसे सन्मार्ग पर लाने का राजमाता कुन्ती ने भी प्रयास किया। उसके हृदय-परिवर्तन के उद्देश्य से, युद्ध के पूर्व उसके पास गईं। उसके जन्म का रहस्य अपने श्रीमुख से उसे बताया। सूर्यमण्डल से गूंजती आवाज ने उनका समर्थन भी किया। भला कौन मां चाहेगी कि उसके हृदय के दो टुकड़े आपस में प्राणघातक युद्ध करें, एक-दूसरे के उष्ण रक्त से अपने-अपने हाथ रंगें। आंचल फैलाकर, युद्धविमुख होने या पाण्डवों के पक्ष में विनती की थी उस वृद्धा मां ने। उनके अनुनय-विनय एवं वात्सल्यपूर्ण वाणी का उसपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। मां की ममता एक बार पुनः पराजित हुई – कर्ण का अहंकारी हठ विजयी रहा। आंखों में आंसू लिए राजमाता विदुरजी की कुटिया में लौट आईं।

निस्सन्देह कर्ण एक महान योद्धा था, इस पृथ्वी का सबसे बड़ा दानवीर था, लेकिन व्यक्तित्व सर्वगुण संपन्न नहीं था। तुम्हारे प्रति ईर्ष्या-द्वेष और अपने अन्दर की हीन भावना से ग्रस्त हो उसने दुर्योधन के उत्तरीय से अपने जीवन की गांठ बांध दी, और यहीं से आरंभ हुआ उसके व्यक्तित्व और विचारों में स्खलन का सिलसिला। संगत मनुष्य के सुप्त संस्कारों के कारण प्राप्त होती है। उसे दुर्योधन की संगत मिली और तुम्हें मेरी।

किरीटी! तुमने उसका वध कर कोई अनर्थ नहीं किया है। अपने अन्तर में किसी प्रकार का अपराध बोध पनपने मत दो। अगर वह जीवित रहता, तो दुर्योधन और शकुनि के साथ मिलकर, पता नही कितने और षडयंत्रों और पापों मे उनकी भागीदारी करता। तुमने उसे अभिशप्त जीवन से मुक्ति प्रदान की है, उसे स्वर्ग का अधिकारी बनाया है। पश्चाताप और शोक के अनल में जलते हुए अपने मन को शान्त करो। महाविनाश के बाद, नवनिर्माण बाहें फैलाए, तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है। उठो, जागो और तबतक कर्त्तव्य-पथ पर चलते रहो, जबतक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए”

 

श्रीकृष्ण के शीतल-मधुर वचनों से मन को शान्ति मिली है। उनके स्नेहिल स्पर्श से नई ऊर्जा का संचार हुआ है। कितना सम्मोहक है उनका व्यक्तित्व! उनके दर्शन से असीम सुख की प्राप्ति होती है। आंखों से आंसुओं का प्रवाह रुक गया है। हस्तिनापुर के नव निर्माण का दृढ़ संकल्प मैं ले चुका हूं। अंधकार में भटकता हुआ मन प्रकाश पाने लगा है, फिर भी कभी-कभी अस्थिर हो जाता है यह चित्त। हृदय के किसी कोने में छिपा हुआ मन मचलता है, चाहता है – काश! एक बार, सिर्फ एक बार, कुछ ही क्षणों के लिए, कर्ण सामने आ जाता – मैं उससे पूछता —

“हमें तो कुछ पता नहीं था, हमारे ज्येष्ठ भ्राता! लेकिन तुम्हें तो भलीभांति ज्ञात था कि हम तुम्हारे अनुज हैं और निष्कलंक द्रौपदी तुम्हारी अनुज-वधू! सबकुछ जानते हुए भी, तूने ऐसा क्यों किया कौन्तेय?”

क्रमशः

 

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