कहो कौन्तेय-९

विपिन किशोर सिन्हा

दुर्योधन, दुशासन, कर्ण, युयुत्सु आदि महारथी पराजित हो आचार्य द्रोण के सम्मुख अपनी सेना के साथ उपस्थित थे। आचार्य की आँखों से बरसती चिन्गारियों का सामना करने का साहस किसी में नहीं था। सभी पराजित योद्धा दृष्टि नीची किए पैर के अंगूठे से धरती कुरेद रहे थे। आचार्य ने कर्ण को संबोधित किया –

“राधानन्दन कर्ण! आत्मशक्ति, प्रवीणता और दक्षता क सर्वांगीण विकास में अहंकार सबसे बड़ा बाधक तत्त्व है। उसके अनेक भेद और रूप होते हैं – सत्ता का, सामर्थ्य का, सौन्दर्य का, कीर्ति का। कोई भी अहंकार जीव को विकासोन्मुख नहीं होने देता। तुम अर्जुन के समकक्ष योद्धा हो लेकिन तुम्हारा अहंकार, बड़बोलापन और आत्मश्लाघा तुम्हारे विकास के मार्ग को अवरुद्ध कर देते हैं और तुम उससे हीन सिद्ध होते हो। तुम्हारे हृदय में यह पीड़ा तीर की तरह चुभती है और अकारण तुम अर्जुन से ईर्ष्या करने लग जाते हो। स्वस्थ प्रतियोगिता में कोई दोष नहीं लेकिन धर्म-अधर्म, उचित-अनुचित, न्याय-अन्याय का सम्यक विचार किए बिना राग-द्वेष और हीन भावना से उत्पन्न प्रतिद्वन्द्विता जीवन को अशान्त बना देती है। तुम्हारी असफलता का यही कारण है। तुम सबकी गुरुदक्षिणा अधूरी रही।”

गुरु द्रोण रुककर अकस्मात मेरी ओर मुड़े और एक श्वास में बोल पड़े –

“अर्जुन! तुम्हें अपनी योग्यता सिद्ध करने का यह सुनहरा अवसर प्राप्त हुआ है। इसका उपयोग करो और द्रुपद को बन्दी बनाकर मेरे सामने प्रस्तुत करो। अगर तुम ऐसा करने में असफल रहे, तो मैं समाधिस्थ हो जाऊँगा।”

मैंने गुरुवर के श्रीचरणों में माथा टेककर आशीर्वाद प्राप्त किया और युद्ध के लिए प्रस्थान किया। भैया भीम मेरे साथ-साथ आगे बढ़े। नकुल और सहदेव ने मेरे रथ के चक्रों की सुरक्षा का दायित्व लिया। अग्रज युधिष्ठिर से मैंने आचार्य की सेवा और सुरक्षा हेतु वहीं रुकने का आग्रह किया जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया।

पांचालों की सेना उत्ताल तरंग वाले विक्षुब्ध महासागर की भांति गर्जना कर रही थी। महाबाहु भीमसेन ने द्रुत गति से दण्डपाणि यमराज सदृश उस विशाल सेना में प्रवेश किया। वे युद्ध में कुशल तो थे ही, बाहुबल में भी अतुलनीय थे। देखते ही देखते उन्होंने कालरूप धारण कर गजसेना, अश्वसेना, रथसेना और पैदल सेना को धराशाई करना आरंभ कर दिया। उसी समय मैं अपना रथ महाराज द्रुपद के समीप ले गया। मैंने बाणों का भारी जाल बिछाकर पांचालों को आच्छादित और मोहित करते हुए आकस्मिक आक्रमण किया। आकाश में सर्वत्र बाण ही बाण दृष्टिगत हो रहे थे और रणभूमि में प्रकाश की किरणें भी बड़ी कठिनाई से आ रही थीं। मैंने सम्मोहनास्त्र का प्रयोग किया और देखा कि महाराज द्रुपद किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो अपने रथ पर स्थिर हो गए। मैंने जब उन्हें बन्दी बनाने का प्रयास किया, तो पांचालों में हाहाकार मच गया। अकस्मात महाराज द्रुपद के अनुज सत्यजित हमारे मध्य आ गए। उन्होंने अद्भुत पराक्रम प्रदर्शित किया, द्रुत गति से एक साथ सौ बाणों से मुझे पीड़ित किया। यह आक्रमण अत्यन्त अप्रत्याशित था। मैंने स्वयं को संभाला और द्रुपद को छोड़ उनपर बाणों की झड़ी लगा दी। उनके अश्व, ध्वज, धनुष, मुट्ठी, पार्श्वरक्षक, सारथि और रथ को क्षत-विक्षत कर दिया। पलायन के अतिरिक्त उनके पास कोई विकल्प नहीं था। उनके युद्ध-विमुख होने के पश्चात मैंने पांचालराज पर निर्णायक आक्रमण किया। उनका धनुष काटकर उनकी ध्वजा को भी काट गिराया। जब तक वे दूसरा धनुष उठाते, मैं उनके रथ पर था। वीरवर भीमसेन की सहायता से हमने उन्हें बन्दी बनाया। महाराज द्रुपद की सेना पलायन कर गई। युद्ध को वही रोक, बन्दी द्रुपद के साथ हमलोगों ने आचार्य की ओर प्रस्थान किया। कुछ ही देर में हमलोग आचार्य के सामने थे।

 

 

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