कहो कौन्तेय (महाभारत पर आधारित उपन्यास)

(सुभद्रा-हरण)

विपिन किशोर सिन्हा

मेरे वनवास का अन्तिम चरण प्रारंभ हो चुका था। मैं हृदय से चाहता था कि यह चरण समाप्त ही न हो। इतने लंबे समय तक श्रीकृष्ण का सत्संग! मैं अभिभूत था। मैं भूल गया था कि मुझे इन्द्रप्रस्थ वापस भी लौटना है। श्रीकृष्ण मेरे ज्ञानवर्द्धन और मनोरंजन की ऐसी व्यवस्था करते कि मैं अभिभूत हो जाता। रैवतक पर्वत की मनोरम उपत्यकाएं संगीत सुनाने लगती थीं। मेरे सम्मान में एक भव्य एवं दिव्य उत्सव का आयोजन कराया मुरलीधर ने। ऐसा प्रतीत हो रहा था, संपूर्ण द्वारिका अपने पूर्ण वैभव के साथ रैवतक पर उतर आई हो। बलराम, अक्रूर, सारण, सात्यकि, उद्धव आदि यदुकुल श्रेष्ठ वहां उपस्थित हो दान-पुण्य के कार्य में संलग्न थे। देवी रुक्मिणी और सत्यभामा श्रीकृष्ण के साथ सर्वत्र भ्रमण करते देखी जा सकती थीं। सभी लोग मेरी सुख-सुविधा के लिए सुचिन्तित रहते थे। इसी उत्सव में सुभद्रा से मेरी पहली भेंट हुई। श्रीकृष्ण और बलराम की भगिनी अपूर्व सुन्दरी थी। उसने देर तक मुझसे वार्तालाप किया। श्रीकृष्ण की भांति उसके संभाषण में भी अद्‌भूत आकर्षण था। उसने द्वारिका वापस जाने के पूर्व यह संकेत दे दिया कि मेरे प्रति उसके हृदय में प्रेम के बीज अंकुरित हो चुके हैं। मैं भी उसके आकर्षण पाश में बंध चुका था। श्रीकृष्ण ने हम दोनों के हृदय की भाषा पढ़ ली। लेकिन वे स्व्यं किसी उलझन में थे। सुभद्रा के लिए बलराम ने वर के रूप में दुर्योधन का चुनाव कर रखा था। दुर्योधन को सूचना भी भेजी जा चुकी थी। वह सुभद्रा से विवाह हेतु हस्तिनापुर से प्रस्थान भी कर चुका था। श्रीकृष्ण ने सारी बातें विस्तार से बताई और समाधान के लिए मेरे मुख पर दृष्टि स्थिर कर दी। समस्त विश्व को समाधान देनेवाला आज स्वयं असमंजस की स्थिति में था। वे भगिनी सुभद्रा के दुर्योधन से पाणिग्रहण के पक्ष में बिल्कुल नहीं थे, पर बलराम को रुष्ट भी नहीं करना चाह रहे थे। कुछ होने पर बलराम देश छोड़ चले जाते थे। एक बार स्यमन्तक मणि की चोरी के कारन उत्पन्न विवाद से खिन्न, बलराम द्वारिका छोड़ वर्षों मिथिला में रहे। श्रीकृष्ण को मेरी ओर से किसी समाधान की अपेक्षा थी। मेरे मन में सुभद्रा-हरण की कल्पना उभरी। चर्चा के अनन्तर मैंने श्रीकृष्ण को यह विकल्प सुझाया। उनकी आंखों में चमक आ गई, मुखमण्डल प्रभादीप्त हो उठा। तीव्रधावक सन्देशवाहक इन्द्रप्रस्थ को भेजे गए। महाराज युधिष्ठिर का अनुमोदन प्राप्त होते ही सुभद्रा-हरण की योजना स्वयं श्रीकृष्ण ने ही बनाई। मेरे लिए रथ-सारथि, अस्त्र-शस्त्र की भी व्यवस्था उन्होंने ही कराई।

श्रीकृष्ण से जब मिला, उनके विविध रूपों के दर्शन मुझे हुए – सारे रूप दुर्लभ। अपनी ही भगिनी के अपहरण की योजना बनाना और त्रुटिहीन क्रियान्यवन हेतु गुप्त रूप से संपूर्ण व्यवस्था करना; मैं सब देख रहा था। उन्हें एक ही धुन थी – किसी भांति सुभद्रा इन्द्रप्रस्थ पहुंच जाय। कहते थे – दुर्योधन से विवाहोपरान्त मेरी प्रिय सुलक्षणा सुभद्रा सौ भाइयों की रुक्षता के बवंडर में कोमल लता की भांति विच्छिन्न हो जाएगी। उनके देवदुर्लभ गुणों से मेरा परिचय प्रगाढ़ होने लगा। वे अन्यायी को कठोर दण्ड देनेवाले वीरश्रेष्ठ तो थे ही, अपने निर्णय पर त्वरित कार्यवाही करनेवाले कुशल प्रशासक भी थे। एक ओर महान ऋषि-मुनियों के साथ तत्त्व चर्चा करनेवाले बुद्धिमान दार्शनिक थे, तो दूसरी ओर छोटे-बड़े द्वारिकावासियों के साथ नित्य रमण करनेवाले प्रेमयोगी भी थे। वे क्या नहीं थे? वे अनन्य सेनापति, संगीत के मर्मज्ञ, युद्ध-कौशल में निपुण और शास्त्रों के विशेषज्ञ थे। श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देनेवाले अत्यन्त प्रभावशाली वक्ता थे। वे सभी कलाओं और विद्याओं के स्वामी थे। किन्तु इस समय मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वे अपनी कोमल पारिवारिक समस्याओं के संदर्भ में किसी भी नाट्‌यकर्मी को परास्त करनेवाले कुशल अभिनेता बन गए थे। उनके नित्य परिवर्तित होते रूप पर अचम्भित रह जाने के अतिरिक्त उपाय ही क्या था? लगता था, जितना जानता था उतना ही कम था। अभी तो उन्हें और-और जानना शेष था। लीलाधारी के अनेक रूप – क्या कोई भी कभी जान पाएगा, संपूर्णता में?

यह नाटक का अन्तिम चरण था – रंगमंच था रैवतक पर्वत और कुलदेवी का मन्दिर। पर्वत की तलहटी में स्थित मन्दिर के प्रांगण में सखियों और देवी रेवती के साथ सुभद्रा ने प्रवेश किया। तत्क्षण कपिध्वजयुक्त रथ को मैंने परिसर में खड़ा कर दिया। सुभद्रा ने तिर्यक दृष्टि से मेरा और मेरे रथ का अवलोकन किया। हमारे प्रत्यागमन के मार्ग को निष्कण्टक बनाने हेतु श्रीकृष्ण ने पूरी योजना समझा दी थी। हमने परस्पर संकेतों का आदान-प्रदान किया। देवी दर्शन के उपरान्त जैसे ही सुभद्रा लौटने लगी, मैंने ग्रीवा ऊंची कर शंख-ध्वनि की। वह मेरे रथ की ओर बढ़ने लगी। मैंने छ्लांग लगाई और अपने हाथ का सहारा दे, प्रेमपूर्वक उसे अपने रथ में बैठा लिया। मेरा संकेत पाते ही शुभ्र धवल अश्व इन्द्रप्रस्थ की दिशा में चौकड़ी भरने लगे।

सुभद्रा हरण का समाचार बलराम के लिए अकल्पनीय था। मुझपर उनके रोष की कोई सीमा नहीं थी। कह रहे थे – मित्र समझकर जिसका इतना सत्कार किया, उसी ने विश्वासघात किया, जिस थाली में खाया, उसी में छेद किया। उन्होंने मुझपर आक्रमण का निर्णय लिया। श्रीकृष्ण ने उनकी क्रोधाग्नि पर शीतल जल का छिड़काव किया। युद्ध-सभा को अपनी मधुर वाणी का अमृतपान कराया –

“सुभद्रा ने अपनी इच्छा से वर चुना है, जो सर्वश्रेष्ठ है। अर्जुन और दुर्योधन में कोई तुलना नहीं है। अर्जुन नरश्रेष्ठ है, दुर्योधन अधम है। दाऊ ने दुर्योधन से सम्बन्ध निश्चित करने के पूर्व, सुभद्रा की सहमति भी नहीं प्राप्त की थी। अर्जुन ने सुभद्रा की सहमति से क्षत्रियोचित विधि से उसका हरण किया है। इसके अतिरिक्त कोई विकल्प शेष नहीं था क्योंकि दुर्योधन विवाह हेतु सौराष्ट्र पहुंच चुका था। सुभद्रा और अर्जुन का युगल अत्यन्त सुन्दर होगा। महात्मा भरत के वंशधर और कुन्तिभोज के दौहित्र को कन्या दान देकर सम्बन्ध स्थापित करने में भला क्या आपत्ति हो सकती है? अतः युद्ध का उद्योग न करते हुए अर्जुन के पास जाकर मित्र भाव से कन्या सौंप देना ही उत्तम है। अर्जुन ने अपनी इच्छा से कुछ भी नहीं किया। सारे कार्य मेरे और सुभद्रा की इच्छानुसार ही सम्पन्न हुए हैं। अगर मेरे इस कार्य के कारण युवराज दाऊ को कष्ट हो रहा है और वे मुझे क्षमा करने की स्थिति में न हों, तो मैं द्वारिका को त्यागकर इन्द्रप्रस्थ जाने के लिए प्रस्तुत हूं।”

क्रमशः

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