जाति- ब्रिटिश कुचेष्टा की शिकार

11
236

डॉ. मधुसूदन

पुस्तक समीक्षा का अनुवाद:

एक पुस्तक अकस्मात हाथ लगी, लेखक हैं निकॉलस डर्क। बस, खरीद लीजिए उसे, आप यदि ले सकते हैं तो। नाम है, , ”Castes of Mind: Colonialism and Making of British India” अर्थात ”मानसिक जातियां : उपनिवेशवाद और ब्रिटिश राज का भारत में गठन” और लिखी गयी है, एक इतिहास और मानव विज्ञान के अमरिकन प्रोफेसर Nicholas D. Durks द्वारा।

लेखक तर्क देकर पुष्टि भी करते हैं, कि वास्तविक वे अंग्रेज़ ही थे, जिन्हों ने जाति व्यवस्था के घृणात्मक रूपका आधुनिक आविष्कार किया, और कपटपूर्ण षड-यंत्र की चाल से जन-मानस में, उसे रूढ किया। आगे लेखक कहते हैं कि, जाति भेद, जिस अवस्था में आज अस्तित्व में है, उसका अंग्रेज़ो के आने से पहले की स्थिति से , कोई समरूपता (सादृश्यता ) नहीं है।

कुछ विषय से हटकर यह भी कहा जा सकता है, कि, उन्होंने यही कपट अफ्रिकन जन-जातियों के लिए भी व्यवहार में लाया था। उद्देश्य था; वंशजन्य भेदों को बढा चढाकर प्रस्तुत करना, प्रजा जनों को उकसाना, विभाजित करना, आपस में भीडा देना, और उसी में व्यस्त रखना। इसी प्रकार, अपने राज की नीवँ पक्की करना।

जिस अतिरेकी, और पराकोटि की मात्रा में, पश्चिमी समाज के जन-मानस में यह जातिभेदात्मक अवधारणा घुस चुकी है, उसका कारण भी यही है; यह भी इसी से स्पष्ट हो जाता है। {इस अनुवादक को इसकी, अनेक बार प्रतीती हो चुकी है। }

वे इसका, बढा चढाकर, अतिरंजित घृणात्मक वर्णन करते हैं, और साथ में, इस मिथ्या धारणा का प्रचार, कि हिंदू (धर्म) माने केवल अंतर्जातीय वैमनस्य, हिंदुओं के पास दूसरा कोई मौलिक या आध्यात्मिक ज्ञान नहीं था या है।

निश्चित रूपसे, यह एक ढपोसले के अतिरिक्त कुछ भी नहीं, और यह षड-यंत्र भी , कुछ रिलीजनों के (धर्मों के नहीं) कूटनैतिक उद्देश्यों से ही, संचलित है। ऐसी, कूट-नैतिक धारणाएं पश्चिमी (रिलीजन वाले) भारत में फैलाना चाहते हैं।

आगे लेखक कहता है,; हिंदु सजग हो जाएं, और इस फंदे में ना फंसे।

मैं ऐसा विद्वत्तापूर्ण लेखन -बहुतेरे, ब्रिटीश और अमरिकन विद्वानों द्वारा ही, देख रहा हूं। ऐसा लेखन, ब्रिटीशरों की कुचेष्टा ओं पर , जो जातियों के बीच, परस्पर घृणा को उत्तेजित करती थी, जैसी (आज)दिखाई देती है, उस पर प्रकाश फेंकता है।

किस कारण से पश्चिमी प्रोफेसर इस काममें इतनी सामग्री ढूंढ सकते हैं, जिस से ऐसी (पूरी) पुस्तकें लिखी जा सकती है; but Indian scholars keep groping in the dark? पर भारतीय विद्वान अंधेरे में लडखडा कर टटोलते रहते हैं|

या. कहीं, ऐसा तो नहीं, कि, बहुतेरे इतिहासज्ञ वाम पंथी दल के होने के कारण इस दिशा में जाना ही नहीं चाहते, कि यदि गए, और सत्य हाथ लगा तो फिर उन के अपने हिंदुत्व के विषय में कुप्रचार के धंधे में सेंध लग जाएगी।

विशेष : निम्न समीक्षाएं, कुछ विद्वानों के शब्दों में, बिना अनुवाद :

’…..Massively documented and brilliantly argued,- ”Castes of Mind” – is a study in true contrapuntal ( प्रचलित मान्यता से अलग ) interpretation.’

(Edward W. Said )

’……..Nevertheless, this groundbreaking work of interpretation demands a careful scholarly reading and response.’

(John F. Riddick)Central Michigan Univ. Lib., Mt. Pleasant.

Dirks (history and anthropology, Columbia Univ.) elects to support the (latter) view.

’Adhering to the school of Orientalist thought promulgated by Edward Said and Bernard Cohn, Dirks argues that British colonial control of India for 200 years pivoted on its manipulation of the caste system’—Dirks (history and anthropology, Columbia Univ.)

—-From Library Journal

—’मधुसूदन उवाच’ इस समीक्षा का केवल अनुवादक है।

Previous articleएक अन्‍ना काफी नहीं
Next articleईसाई समाज की बदलती सोच
डॉ. मधुसूदन
मधुसूदनजी तकनीकी (Engineering) में एम.एस. तथा पी.एच.डी. की उपाधियाँ प्राप्त् की है, भारतीय अमेरिकी शोधकर्ता के रूप में मशहूर है, हिन्दी के प्रखर पुरस्कर्ता: संस्कृत, हिन्दी, मराठी, गुजराती के अभ्यासी, अनेक संस्थाओं से जुडे हुए। अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति (अमरिका) आजीवन सदस्य हैं; वर्तमान में अमेरिका की प्रतिष्ठित संस्‍था UNIVERSITY OF MASSACHUSETTS (युनिवर्सीटी ऑफ मॅसाच्युसेटस, निर्माण अभियांत्रिकी), में प्रोफेसर हैं।

11 COMMENTS

  1. मुझे ये बुक चाहिए , कहा मिलेगी? कृपया मुझे बताये..

  2. गिरिजा जी। नमस्कार।
    (१) पहले यह तो सोचिए, कि युरोपियनों को हमारी व्यवस्था को सराहने से क्या मिलनेवाला है? कुछ भी तो, नहीं। इस लिए इसका महत्व और भी बढ जाता है।कमसे कम इतना तो पता चलता है, कि कुछ तो अच्छाई होगी।
    (२) जाति पहले भी थी, पर “जाति भेद” अंग्रेज़ो की देन है। ध्यान अवस्था में, निष्पक्षता आ जाती है, वैसे इसका मनन किया जाए।
    (२) शास्त्र भी भरमाने के उद्देश्य से भ्रष्ट किए गए हैं।
    (३) पर, यह “कास्ट्स ऑफ़ माइंड” पुस्तक ३७२ पृष्ठों की है, यह ब्रिटिश आलेखागार से सारा अंग्रेज़ी गुप्त (?) मसाला लिए आयी है।
    (४)इस विद्वान प्रोफेसर को हमारी अच्छाई प्रकाशित करके कोई खास उपलब्धि प्राप्त होनेवाली नहीं लगती। फिर यह आपको अनेक प्रमाण देता है। पढने के पहले जो मेरी मान्यताएं थी, निश्चित डांवा डौल हो चुकी है।
    (५) जातियां थी तो पहले भी, पर जाति “भेद” नहीं था। १८५७ की एक जूट को खत्म करने के इरादे से यह नीतियां अपनाइ गयी थी।
    (६) तीन प्रकारके युरोपियन (अंग्रेज़ अकेले नहीं ) है।
    (क) सामान्यतः, शासक (Anglisist ) –
    जो हमें भरमाकर, ब्रेन वॉश कर के, फूट पैदा कर, हमें विभाजित कर अपना शासन दृढ करने में लगे हुए थे।कुछ अपवाद ज़रुर थे।
    (ख) मिशनरी कुछ अपवादों को छोडकर, यह गुट, कन्वर्ज़न में असफल होने पर, हमें हर प्रकारसे दुर्बल बनाने में लगा हुआ था; आज भी लगा हुआ है।
    (ग) संकृतज्ञ और ओरिएन्टेलिस्ट जो संस्कृत का और संस्कृति का अध्ययन करने आए थे। ग्यान उनका एजंडा था। फिर भी अपवाद थे ही।
    जब आप इस वर्गीकरण से सोचेंगी। कुछ स्पष्ट हो सकता है।
    बाकी आप किताब तो पढ ही सकती है।
    (८)मैं अभी पढ ही रहा हूं। उसकी अंग्रेज़ी भी मेरे लिए भी कठिन है। डिक्षनरी लेकर बैठता हूं।
    (९)==>मैं जन्मसे ब्राह्मण नहीं हूं। कर्म -व्यवसाय से शायद हूं। मेरी पूर्व मान्यता ओं के विपरित यह पुस्तक होने से मैं भी अभिभूत था, आश्चर्य चकित था।
    (१०) स्वीकार करने के पहले बहुत सवाल उठे। पर प्रमाणों को देखकर मैं बदल गया। फिर, सोचा, सभी को अवगत करा दूं। अभी मेरा मस्तिष्क खुला है, बुराइयों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं रखता। जो मुझे इमानदारी से, प्रमाणित लगेगा वही लिखूंगा।
    पूरी पढने के बाद लेख लिखने की सोची है।

  3. मेरी समझ में ये नहीं आता कि हमें किस तरह के अंग्रेजो का समर्थन करना चाहिए और किस तरह के अंग्रेजो का विरोध! अगर कोई अँगरेज़ आपकी धारणाओ के खिलाफ लिख दे तो अस्वीकार्य परन्तु वही अँगरेज़ जब आपकी धारणाओ के अनुरूप लिखे तो स्वीकार्य! ऐसा करते है कि किसी अँगरेज़ पर विश्वास नहीं करते है बल्कि अपने धर्मग्रंथो और पुराणों पर विश्वास करते हुए उनमे जाति प्रथा के बारे में पढ़ते है! कि किस प्रकार निम्न जातियों को तुच्छ समझा जाता था! यहाँ तक कि उनके कानो में अगर वेदों के शब्द पद जाए तो पिघला हुआ शीशा भरने का आदेश दिया गया था!

  4. प्रो. मधुसुदन जी से हम ने निवेदन किया है की वे १० जून तक इस पुस्तक पर आधारित एक शोधपत्र बना कर भेजें जिसे हम एक संगोष्ठी में परिचर्चा हेतु प्रस्तुत करेंगे व शोध संकलन में प्रकाशित भी करेंगे. हमारे आग्रह को इन्हों ने स्वीकार करने की कृपा की है. इस प्राकर इस पुसतां की चर्चा अधिक हो सकेगी. भारत के अधिकाँश विश्व विद्यालयों में यह शोध संग्रह भेजा जाएगा.

    • डॉक्टर साहब, गौरवान्वित तो मैं हूं।
      इस काम में, और ऐसे कामों में, आगे भी, मैं सदा साथ देने का, मेरी क्षमता के अनुसार पूरा पूरा,प्रयास करूंगा।
      सोचा नहीं था, कि, प्रवक्ता ऐसे कामों का माध्यम भी बन सकता हैं। इस (२६/२७) मई को ही यह निबंध भेज दूंगा।
      सविनय
      मधुसूदन

  5. Professor Madhusudan has provided a very valid point and valuable resource. Caste system in Hindu society served a purpose at some point in time and Hindu society would have reintrepreted it and modified it appropriately according to the time had it not be because of interference by Britishers.
    The challenge today is to eradicate caste system and integrate those left out of the development into the mainstream. Hindu society is quite capable of doing it and I know many organizations such as RSS which are at the forefront of eliminating the caste system in a smooth way which will avoid any ripples in the society.
    My thanks to professor Madhusudan for a nice and informative article..

  6. डा. मधुसुदन् जॆ ने एक बहुत मह्त्वपूर्न पुस्तक खोज निकाली है, उनहॆं साधुवाद।

    जातिवाद में कोई बुराई नहीं है यदि वह जन्म पर आधारित न होकर कर्म पर आधारित रहे ।
    हम तो प्रयत्न कर ही रहे हैं कि जाअतिवाद की बुराइयां दूर की जाएं, किन्तु आज की वोट राजनीति स्वयं ही उसे बढ़ावा दे रही है — अर्थात हमें यह राजनैतिक तन्त्र भी सुधारना है.
    समस्याएं‌ बहुत हैं। किन्तु सत्य ज्ञान होने पर उऩ्हें हल करना उतना कठिन नहीं होता। इस सत्य ज्ञान को प्रकाश में लाने के लिये निकोलस डी दर्क जी का धन्यवाद और साधुवाद।

    इस पुस्तक का प्रचार किस तरह किया जाए?
    मैं तो इसे पढ़ना चाहूंगा। और इस पर यथा सम्भव चर्चा करूंगा।

    • आदरणीय विश्व मोहनजी, आप के विचारों से सहमति। यह पुस्तक मैं ने खरिद ली है। आकारमें बडी और ३७२ पृष्ठों की पुस्तक अलग अलग लेखागारों से उपलब्ध सामग्री से एवं अनेक चिंतकों के उद्धरणों से भरी हुयी है। पढते पढते, समय मिलनेपर, प्रवक्ता में छोटे लेखो में, लिखनेका विचार है। आपको मैं एक पुस्तक भेंट कर सकता हूं।
      इ मेल पर संपर्क करनेकी बिनती।

  7. प्रोफ़ेसर साहब लेख हेतु सधन्यवाद जातिवाद की बर्बरता का जो रूप सामने आ रहा है वो तो सायद अंग्रेजो की असीम किर्पा की देन है परन्तु हर सभ्यता संस्था या व्यस्था की शुरुआत अछाई से ही होती है और उसका अंत बुराइयों के प्रचंड प्रलाप से होता है जतिवयस्था का भी एक वेघ्यानिक दर्ष्टिकोंन था जो आज एक बर्बर रूप ले चुकी है

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here