जावेद अनीस
मध्यप्रदेश में कांग्रेस भी चुनावी मोड़ में आ गयी है. चुनाव में अब कुछ ही महीने बचे हैं और आखिरकार प्रदेश कांग्रेस में करीब दो साल से टाला जा रहा बहुप्रतीक्षित बदलाव हो गया है. इसी के साथ ही ये पहेली भी हल हो गयी है कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस का चेहरा कौन होगा कमलनाथ या सिंधिया? दरअसल कांग्रेस ने किसी एक चेहरे पर दांव ना खेलते हुये सामूहिक नेतृत्व के फार्मूले पर चलने का फैसला किया है. घोषणा हो चिकि है कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस की तरफ से बुजुर्ग कमलनाथ संगठन का काम देखेंगे और युवा तुर्क ज्योतिरादित्य सिंधिया के पास चुनाव प्रचार की कमान रहेगी. इसी के साथ ही बाला बच्चन, सुरेंद्र चौधरी, जीतू पटवारी और रामनिवास रावत के रूप में चार कार्यकारी अध्यक्ष भी बनाए गए हैं.
पार्टी आलाकमान के इस कवायद को खेमों में बंटे कांग्रेसी क्षत्रपों को एकजुट करने के रूप में देखा जा रहा है. संतुलन साधने की इसी कोशिश के तहत किसी चेहरे को मुख्यमंत्री के रूप में पेश नहीं किया गया है चुनाव के मुहाने पर खड़े इस सूबे में कांग्रेस संगठन पटरी से उतरा हुआ है, कार्यकर्ता सुस्त, बिखरे और भ्रमित हैं, ऐसे में क्या अंतिम समय में किया गया यह बदलाव क्या पार्टी को मध्यप्रदेश में शिवराज और भाजपा के सामने चुनौती पेश करने की ताकत मिल पाएगी या एकबार फिर उसे असमंजस्य और लेट-लतीफी का खमियाज भुगतना पड़ेगा?
दरअसल लंबे समय से प्रदेश कांग्रेस में सांगठनिक फेरबदल की अफवाहें चल रही थीं और इसके लिए कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया अपनी दावेदारी पेश कर रहे थे. कमलनाथ को सर्वमान्य चेहरा बनाने की कवायद काफी पहले ही शुरू हो चुकी थी, 2016 में बाला बच्चन ने कमलनाथ को पार्टी की कमान सौंपने की वकालत करते हुये कहा था कि “कमलनाथ बड़े नेता हैं अगर उन्हें कमान सौंपी जाती है तो राज्य में पार्टी को सौ फीसदी फायदा होगा”. दिग्विजय सिंह भी लगातार कमलनाथ का साथ देने का संकेत देते रहे हैं. वे हर तरह से दबाव बनाने की पूरी कोशिश कर रहे थे यहाँ तक कि कमलनाथ की बीजेपी में जाने की अफवाहें भी उड़ाई गयीं. स्थिति ये बन चुकी थी कि बीच में कमलनाथ द्वारा भोपाल के कोहेफिजा स्थित अपने बंगले कि रंग -रोगन और सफाई कराये जाने की खबरें भी आयीं. लेकिन इन सबके बीच ज्योतिरादित्य सिंधिया भी अपनी मजबूत दावेदारी पेश करते रहे और अपना ज्यादा समय मध्यप्रदेश में बिताना शुरू कर दिया था. उन्होंने खुले तौर पर इस बात को भी कहना शुरू कर दिया था कि प्रदेश में कांग्रेस को सीएम का चेहरा प्रोजेक्ट करना चाहिए. इस दौरान उनके समर्थकों के तरफ से “अबकी बार सिंधिया सरकार” जैसे नारे भी चलाये गये.
मामला लगभग बराबरी का था लेकिन दिग्विजय सिंह द्वारा कमलनाथ को खुले समर्थन के बाद से स्थिति बदल गयी और कमलनाथ जो ये कहने की स्थिति में आ गये थे कि अगर पार्टी सिंधिया को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाती है तो इसमें उनका पूरा समर्थन होगा खुद कप्तान बना दिये गये. कमलनाथ को कमान मिलने के पीछे कई और फेक्टर भी मददगार साबित हुये हैं जैसे उनका अपना कोई गुट ना होना, पार्टी के लिये संसाधन जुटाने की उनकी क्षमता और सभी गुटों के साथ उनके सम्बन्ध खासकर दिग्विजय सिंह और सिंधिया के साथ उनके रिश्ते.
मध्यप्रदेश में कांग्रेस पार्टी लगातार तीन विधानसभा चुनाव हार चुकी है और 2014 के लोकसभा चुनाव में तो उसे प्रदेश की कुल 29 सीटों में से मात्र दो सीटें ही मिलीं थीं, ऐसा माना जाता है कि पिछले चौदह सालों से मध्यप्रदेश में कांग्रेसी भाजपा से कम और आपस में ज़्यादा लड़ते रहे हैं. इस दौरान अगर कांग्रेस खुद को भाजपा के विकल्प के रूप में पेश करने में नाकाम रही है तो इसके पीछे खुद कांग्रेस के नेता ही जिम्मेदार हैं क्योंकि चुनावों के दौरान कई गुटों में विभाजित कांग्रेस के नेता भाजपा से ज्यादा एक दूसरे के खिलाफ संघर्ष करते हुए ही नजर आते रहे हैं. ऐसा लगता है पार्टी हाईकमान ने नयी टीम की घोषणा करके इसी स्थिति को तोड़ने की कोशिश की है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि करीब आधा दर्जन चेहरों के बीच कमलनाथ वो चेहरा हैं जिनके नेतृत्व को पार्टी के सभी क्षत्रप बेमन से ही सही लेकिन स्वीकार कर सकते हैं. शायद तभी खुद कमलनाथ ने भी कहा है कि “मेरे सभी के साथ अच्छे संबंध हैं मैं कांग्रेस का पहला ऐसा प्रदेश अध्यक्ष होउंगा जो पार्टी की एकजुटता के लिए चिंतित नहीं है”.
अपने चार दशक लम्बे राजनीतिक कैरियर में ऐसा पहली बार होगा कि कमलनाथ मध्यप्रदेश की राजनीति में सक्रिय भूमिका में होंगे. इससे पहले राज्य की राजनीति में उनकी भूमिका किंगमेकर की रही है. उन्हें जमीनी नेता नहीं माना जाता है और उम्र भर उन्होंने ड्रायिंग रूम की राजनीति की हैं, इसके अलावा उन्हें कभी भी पूरे प्रदेश का नेता नहीं माना गया है, हमेशा से ही वे अपने आप को छिंदवाड़ा तक ही सीमित किये रहे हैं. लेकिन अपनी इस नयी भूमिका में उन्हें जमीन से उखड़ी कांग्रेस को फिर पटरी पर लाने के लिए पूरे प्रदेश भर में गहन जनसंपर्क की जरूरत पड़ेगी और इसके लिये समय बहुत कम है. बहरहाल प्रदेशाध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंपे जाने पर उन्होंने कहा है कि “मैं प्रतिबद्धता, साहस और आपसी तालमेल के साथ बीजेपी और गैर-धर्मनिरपेक्ष ताकतों की हार सुनिश्चित करने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ काम करूंगा.”
इन सबके बीच ज्योतिरादित्य सिंधिया की चुप्पी और अरुण यादव की प्रतिक्रिया चौकाने वाली है. ज्योतिरादित्य सिंधिया सोशल मीडिया पर लगातार सक्रिय हैं और उनके पोस्ट भी लगातार आ रहे हैं लेकिन अपनी और कमलनाथ की नयी भूमिका के बारे में उनके तरफ से कोई पोस्ट देखने को नहीं मिली. इस मामले में उन्होंने ना तो किसी को बधाई दी ना आभार जताया और ना ही मीडिया में कोई बयान जारी किया. इसी तरह से अध्यक्ष पद से हटा दिए गए अरुण यादव ने अचानक चुनावी राजनीति से सन्यास लेने की घोषणा करते हुये कहा है कि उनकी भूमिका एक कार्यकर्ता के रूप है और आगे भी रहेगी.
लेकिन भाजपा के खेमे में कमलनाथ के नियुक्ति को लेकर दबी खुशी नजर आ रही है शिवराजसिंह चौहान ट्वीटर पर लिखा कि “मित्र श्री कमलनाथ जी को प्रदेश अध्यक्ष बनने पर हार्दिक शुभकामनाएँ.” दरअसल भाजपा यह मानकर चल रही थी कि ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस की तरफ से मुख्यमंत्री पद का चेहरा होने वाले है और पिछले कुछ समय से वो मुख्य रूप से सिंधिया को ही निशाने पर ले रही थी. सिंधिया प्रदेश में पिछले साल से ही काफी सक्रिय रहें हैं, हाल में वह कोलारस और मुंगावली के उप चुनाव में सीधे तौर पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को चुनौती देते हुये दिखाई पड़े थे और शिवराज सिंह चौहान द्वारा पूरी सत्ता और संगठन की ताकत लगा देने के बावजूद भाजपा को हार का सामना करना पड़ा था. सिंधिया का अपना आकर्षण भी है, वे युवा है, अच्छे वक्ता है और उनमें मतदाताओं के साथ सीधे कनेक्ट करने की क्षमता है. बीच में सिंधिया ने संकल्प भी लिया था कि प्रदेश की बीजेपी सरकार को उखाड़ फेंकने के बाद ही वह माला पहनेंगे.
इन सबके बीच पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को कोई सीधी जिम्मेदारी नहीं दी गयी है लेकिन इससे मध्यप्रदेश की राजनीति में “दिग्गी फेक्टर” के प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता है. कमलनाथ ने अपने लिये उनकी अहमियत को रेखांकित करते हुये कहा है कि “उन्हें राज्य में संगठन का सर्वाधिक ज्ञान है वह कांग्रेस की रणनीति का महत्वपूर्ण हिस्सा होंगे”. नयी टीम के ऐलान होने के साथ ही दिग्विजय सिंह ने भी 15 मई से अपनी राजनीतिक यात्रा शुरू करने का एलान कर दिया है. इस दौरान उनकी हर विधानसभा क्षेत्र में जाने की योजना है जहां वे जमीनी नेताओं और कार्यकर्ताओं से मुलाकात करके उन्हें चुनाव के लिये मुस्तैद करेंगें. हालांकि दिग्विजय सिंह पहले ही एलान कर चुके हैं कि वे सूबे की राजनीति में रेस से बाहर है लेकिन ऐसा माना जा रहा है कि वे अपने बेटे को आगे बढ़ाना चाह रहे हैं. दिग्विजय सिंह द्वारा सिंधिया के मुकाबले कमलनाथ को समर्थन देने के पीछे भी यही कारण है क्योंकि उन्हें पता है कि 71 साल के कमलनाथ के लिये सूबे की राजनीति में शायद यह आखिरी मौका है लेकिन सिंधिया के पास अभी काफी समय है और अगर एक बार सिंधिया खुद को प्रदेश की राजनीति में सर्वमान्य रूप से स्थापित करने में कामयाब हो गये तो फिर जयवर्धन सिंह के लिये अपना रास्ता बनाना आसान नहीं रह जायेगा.
प्रदेश कांग्रेस के जो हालात हैं उस हिसाब से पार्टी के पास समय बहुत कम है लेकिन शुरुआत तो पार्टी के नेताओं को एक-दूसरे का भरोसा हासिल करके करना होगा खासकर सिंधिया और दिग्विजय सिंह के बीच. भरोसा बहाल करने में कमलनाथ की बुनियादी भूमिका रहने वाली है मध्य प्रदेश की कांग्रेस इकाई का अध्यक्ष नियुक्त किए जाने के बाद उनका बयान आया है कि वे मुख्यमंत्री पद के ‘भूखे’ नहीं हैं और मध्यप्रदेश में उनके चयन का फैसला इसलिए किया गया है क्योंकि पार्टी को लगता है कि वह सबको साथ लेकर चल सकते हैं.
कोई कुछ भी कहे लेकिन शिवराज सिंह चौहान के खिलाफ कांग्रेस चेहरे को लेकर सवाल अभी भी बना हुआ है जिसका उसे पूरे चुनाव अभियान के दौरान सामना करना पड़ेगा. अगर 2019 में कमल नहीं खिलता है तो मुख्यमंत्री कौन बनेगा? कमलनाथ या सिंधिया?