हिन्द स्वराज और आज की चुनौतियां

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hind swarajjवर्ष 2009 हिन्द स्वराज का शताब्दी वर्ष है। महात्मा गांधी की कृतियों में हिन्द स्वराज का महत्व सबसे अधिक माना जा सकता है। हिन्द स्वराज में गांधी जी ने एक प्रकार से अपने सपने के स्वाधीन भारत का चित्र खींचा था। हालांकि उन्होंने यह पुस्तिका 1909 में लिखी थी परंतु इसमें लिखी बातों पर वे अंत तक डटे रहे थे। यही कारण था कि जब उन्हें प्रतीत हुआ कि देश स्वाधीन होने वाला है, तो 1945 में उन्होंने पंडित नेहरू को एक पत्र लिख कर हिन्द स्वराज पढ़ने की सलाह दी ताकि देश के विकास उसी अनुसार किया जा सके। परंतु गांधी जी के नाम पर अपनी राजनीति चलाने वाले पंडित नेहरू ने उन्हें उत्तर दिया था कि वे हिन्द स्वराज पढ़ चुके हैं और उन्हें यह बेकार और पिछड़े समय की प्रतीत होती है। गांधी और नेहरू में वैचारिक विशेषकर देश के स्वाधीनता पश्चात् विकास के प्रारूप को लेकर विरोध 1934 में ही पैदा हो गया था, जो अंत-अंत तक बना ही रहा। यही कारण था कि 15 अगस्त 1947 को जब पंडित नेहरू और कांग्रेस की अगुआई में देश स्वाधीनता की खुशियां मना रहा था, गांधी जी नोआखाली में बैठे देश के आंसू पोंछ रहे थे। सच तो यह है कि वे अच्छी तरह समझ रहे थे कि देश को कोई स्वतंत्रता नहीं मिली है, यह तो केवल सत्ता का हस्तांतरण मात्र है। जिस अंग्रेजी सभ्यता से मुक्ति को उन्होंने सच्चा स्वराज घोषित किया था, स्वाधीन भारत में पंडित नेहरू और कांग्रेस उसी अंग्रेजी सभ्यता के प्रचार प्रसार में ही जोर शोर से जुटे रहे। ब्रिटेन की जिस संसदीय प्रणाली को गांधी जी ने बांझ और वेश्या का संबोधन दिया था, वही प्रणाली देश पर बिना सोचे समझे और जबरन थोप दी गई। आज हम देख सकते हैं कि गांधी जी ने हिन्द स्वराज में 1909 में ब्रिटिश संसद का जो चित्र खींचा था, वह आज भारतीय संसद के संदर्भ में भी कितना जीवंत व प्रासंगिक लगता है।

”जिसे आप पार्लियामेंट की माता कहते हैं, वह पार्लियामेंट तो बांझ और बेसवा (वेश्या) है। ये दोनों शब्द बहुत कड़े हैं, तो भी उसे अच्छी तरह लागू होते हैं। मैंने उसे बांझ कहा क्योंकि अब तक उस पार्लियामेंट ने अपने आप एक भी अच्छा काम नहीं किया। अगर उस पर जोर – दबाव डालने वाला कोई न हो तो वह कुछ भी न करे, ऐसी उसकी कुदरती हालत है। और वह बेसवा है क्योंकि जो मंत्रीमंडल उसे रखे उसके पास वह रहती है।

… सिर्फ डर के कारण ही पार्लियामेंट कुछ काम करती है। जो काम आज किया, वह कल उसे रद्द करना पड़ता है। आज तक एक भी चीज को पार्लियामेंट में ठिकाने लगाया गया हो, ऐसी कोई मिसाल देखने में नहीं आती। बड़े सवालों की चर्चा जब पार्लियामेंट में चलती है, तब उसके मेम्बर पैर फैला कर लेटते हैं या बैठे बैठे झपकियां लेते हैं। उस पार्लियामेंट में मेम्बर इतने जोर से चिल्लाते हैं कि सुनने वाले हैरान परेशान हो जाते हैं।” हिन्द स्वराज, पृष्ठ 13-14

इसी प्रकार भारत के एक राष्ट्र होने के बारे में महात्मा गांधी के मन में काफी स्पष्ट विचार थे। उन्होंने हिन्द स्वराज में लिखा, ”यह आपको अंग्रेजों ने सिखाया कि आप एक राष्ट्र नहीं थे और एक राष्ट्र बनने में आपको सैंकड़ों वर्ष लगेंगे। यह बात बिल्कुल बेबुनियाद है। जब अंग्रेज हिन्दुस्तान में नहीं थे, तब हम एक राष्ट्र थे, हमारे विचार एक थे, हमारा रहन-सहन एक था। तभी तो अंग्रेजों ने यहां एक-राज्य कायम किया। भेद तो हमारे बीच बाद में उन्होंने पैदा किए।

एक राष्ट्र का यह अर्थ नहीं कि हमारे बीच कोई मतभेद नहीं था, लेकिन हमारे मुख्य लोग पैदल या बैलगाड़ी पर सफर करते थे, वे एक दूसरे की भाषा सीखते थे और उनके बीच कोई अंतर नहीं था। जिन दूरदर्शी पुरूषों ने सेतुबंध रामेश्वर, जगन्नाथपुरी और हरिद्वार की यात्रा ठहराई, उनका आपकी राय में क्या ख्याल होगा? वे मूर्ख नहीं थे, यह तो आप कबूल करेंगे। वे जानते थे कि ईश्वर भजन घर बैठे भी होता है। उन्हींने हमें सिखाया कि मन चंगा तो कठौती में गंगा। लेकिन उन्होंने सोचा कि कुदरत ने हिन्दुस्तान को एक देश बनाया है, इसलिए इसे एक राष्ट्र होना चाहिए। इसलिए उन्होंने अलग-अलग स्थान तय करके लोगों को एकता का विचार इस तरह दिया, जैसा कि दुनिया में और कहीं नहीं दिया गया है। दो अंग्रेज जितने एक नहीं हैं, उतने हम हिन्दुस्तानी एक थे और एक हैं। सिर्फ हम और आप जो खुद को सभ्य मानते हैं, उन्हींके मन में ऐसा आभास – भ्रम पैदा हुआ कि हिन्दुस्तान में हम अलग-अलग राष्ट्र हैं।” हिन्द स्वराज, पृष्ठ 29

हिन्द स्वराज के इस शताब्दी वर्ष ने हमें एक अवसर दिया है कि हम अपनी पिछली साठ-बासठ वर्ष की गलतियों, उपलब्धियों और इस दौरान बनी या बनाई गई व्यवस्थाओं का सिंहावलोकन करें। जिस लोकतांत्रिक संसदीय प्रणाली के भरोसे हमने अपने देश को छोड़ रखा है, जिस भ्रमित सेकुलरवाद के आधार पर एक नैतिकताविहीन समाज बनाने में हम जुटे हैं, जिस गुलाम और अंग्रेजी (हिन्द स्वराज के शब्दों में राक्षसी) मानसिकता के लोगों को हमने अपने देश की नीतियां बनाने की जिम्मेदारी सौंप रखी है, ऐसी सभी प्रणालियों व व्यवस्थाओं, तंत्रों, व्यक्तियों, विचारों व वादों, नीतियों व मान्यताओं और विकास के तरीके व प्रारूपों की समीक्षा करने का इससे बड़ा सुअवसर दूसरा नहीं हो सकता।

-रवि शंकर

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रवि शंकर
रसायन शास्त्र से स्नातक। 1992 के राम मंदिर आंदोलन में सार्वजनिक जीवन से परिचय हुआ। 1994 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से परिचय हुआ और 1995 से 2002 तक संघ प्रचारक रहा। 2002 से पत्रकारिता शुरू की। पांचजन्य, हिन्दुस्तान समाचार, भारतीय पक्ष, एकता चक्र आदि में काम किया। संप्रति पंचवटी फाउंडेशन नामक स्वयंसेवी संस्था में शोधार्थी। “द कम्प्लीट विज़न” मासिक पत्रिका का संपादन। अध्ययन, भ्रमण और संगीत में रूचि है। इतिहास और दर्शन के अध्ययन में विशेष रूचि है।

1 COMMENT

  1. It is agood Article.Now, It would be open a new road towards Rashtrawad, have ever conceptualised in the shape of
    HIND SWARAJ.
    There are many of the things in that book, some of the portions have widely criticised by the
    Bahujan Samaj Group, and Lohiyan Socialist Group.

    You could first open the pages of political peractices profounded and traditionalised during India’s freedom movement, Like, Pooja, Prarthna, Vrat, Upwas,
    Saty-Agrah, Asahyog, etc has been practiced by
    Mahatma Gandhi through retualistic way of Hindu Relegion.

    However, all these Gandhian Practices becomes changed in the shape of European Struggle Style of Strike, Hunger Strike, Protest, Demonstration, Bundh and Highly condemnable Disaster Activities against
    National Properties under Govt. Sector.

    All these changes were traditionalised first during Communist Labour Movements in Rusia,France, and China has been widely injected to the mind of Indian Society by the communist leaders, to change the Gandhian Style of
    Political Struggle.

    Hence, it is now more needed to check and analyse the Gandhian Style of Political Struggle against European Style of Political Struggle
    traditionalised in our country.

    It is so Surprising that no Gandhian Philosopher has been seen the fact in Indian political system, because, they are working to legetemise and traditionalise the european political culture in India against Gandhian Political Culture.It has no doubt that the Gandhian Political Culture is a true
    Indian Political Culture.

    Intellectuals can write the monographs over the subject of Gandhian Politrical Cultur and its Differences in
    Post Independent India.

    Thanks and Regard
    Shahid Raheem,
    Senior Media Researcher,
    OBSERVER RESEARCH FOUNDATION
    New Delhi-110002, INDIA
    Mobile:9971544323–
    –raheem.shahid@gmail.com

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