जनमत परिष्कार का माध्यम बनें समाचार संस्थान

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mediaकोई भी राष्ट्र या समाज कितना सभ्य और विकसित है, इस बात को आप केवल वहाँ के मीडिया की हालत देखकर पता कर सकते हैं। वास्तव में यही एक ऐसा मानदंड है जिस पर आप लोकतंत्र को परख सकते हैं। भारतीय सन्दर्भ में बात करें तो आदि संवाददाता नारद से लेकर संजय तक, भारत में समाचार के आदान-प्रदान की गौरवपूर्ण परंपरा रही है। मेघ को भी दूत बना कर विरह वेदना के प्रेषण से लेकर संवाद स्थापित करने के लिये पक्षियों तक का इस्तेमाल करने का वास्तविक या काल्पनिक वर्णन साहित्य में भरा पड़ा है। बात मां सीता की खबर लेने के लिये पवनपुत्र को भेजे जाने का हो या महाभारत का ऑंखों देखा हाल सुनाने के लिये संजय को नियुक्त किये जाने का `खबर` हमेशा से जन-जीवन का आधार रहा है। समाज की परिस्थितियों के अनुकूल मीडिया की भूमिका भले ही बदलती रहे लेकिन सूचित, शिक्षित और जागरूक करने की अपनी भूमिकाओं के प्रति `माध्यम` सदा ही कमोबेश अपनी प्रतिबद्धताओं का परिचय देता रहा है।

भारत में स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उस समय का मीडिया जिस तरह जन सरोकारों के अभिव्यक्ति का माध्यम बना, वह सुनहरे अक्षरो में लिखे जाने लायक है। उस समय विज्ञापन निकलते थे की पत्रकार की ज़रूरत है, वेतन छ: महीने या अधिक का जेल, और भी सज़ा संभावित। यानी जो घर जारे आपना चले हमारे साथ। और फिर भी आजादी के दीवाने दौड़े चले आते थे अपनी आहुति देने। उस समय के तेजस्वी पत्रकारों, संपादकों ने अपने कलम को भी खड्ग और ढाल बना दिया था। क्रांतिकारियों के साथ कदम से कदम मिलाकर अखबारों-पत्रिकाओं ने खुद को भी आज़ादी का अग्रदूत बनाने में सफलता प्राप्त की थी। आपातकाल के समय भी केवल किसी अखबार में सम्पादकीय पेज को खाली छोड़ दिया जाना ही ऐसा प्रभाव पैदा करता था जिसकी चर्चा गाहे-बगाहे आज भी की जाती है।

छत्तीसगढ़ अंचल के पेंड्रा नामक छोटे से जगह से छत्तीसगढ़ मित्र नामक अखबार निकाल कर स्वर्गीय माधव राव सप्रे ने जिस महान परंपरा की नींव डाली वो आज भी यहाँ के पत्रकार जनों को प्रेरित करने का काम कर रहा है। राय निर्माण के बाद विकास की दौर में तेज़ी से शामिल हो रहे इस प्रदेश को ऐसी ही मीडिया की ज़रूरत थी जो लोगों को विकास में सहभागी बनाने का काम करता। सरकार की विभिन्न जनोपयोगी योजनाओं की जानकारी देकर लोगों को उसका फायदा उठाने के लिये प्रेरित करता, यहाँ की कला, संस्कृति,परम्पराओं की समृद्धि थाती से देश और दुनिया को परिचित कराता। सकारात्‍मक आलोचनाओं के द्वारा सरकार को उसकी कमियों से भी अवगत कराते रहता। इस मानदंड पर प्रदेश की पत्रकारिता ने काफी हद तक बेहतर काम कर अपनी एक जगह बनायी है। इसके अलावा नक्सली आतंक से पीड़ित इस राय में आतंक के विरुद्ध जनमत तैयार करने में भी प्रदेश की मीडिया ने प्रभावी भूमिका का निर्वहन किया है। यहाँ के पत्र-पत्रिकाओं,अखबारों के साथ इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों ने भी अपने क्षमता का प्रशंसनीय इस्तेमाल कर राय के विकास के साथ कदमताल किया है। यहाँ तक की आज इन्टरनेट पर भी प्रदेश के बारे काफी सामग्री उपलब्ध है। कई सारे साईट आपको प्रदेश से सम्बंधित समाचारों,आलेखों एवं यहाँ की विशेषताओं का वर्णन करते मिल जायेंगे।

हाँ इस तमाम म में ख़ास कर छत्तीसगढ़ के सन्दर्भ में राष्ट्रीय मीडिया की भूमिका निराश करने वाला रहा है। अव्वल तो 2 करोड़ से यादे की जनसँख्या, अकूत प्राकृतिक, वन्य एवं खनिज संसाधन से भरपूर इस राय का राष्ट्रीय मीडिया की प्राथमिकता में नहीं होना ही अपने आपमें आश्चर्यजनक है। फिर अगर कभी प्रदेश की चर्चा की भी जाती है तो केवल नकारात्मक कारणों से। नक्सल समर्थक कुछ बुद्धिजीवियों,कथित मानवाधिकारियों एवं पत्रकार कहे जाने वाले लोगों द्वारा फैलाए जाने वाले दुष्प्रचार से दिल्ली की मीडिया का प्रभावित हो जाना कही न कही उसके उपरोक्त वर्णित गौरवमयी इतिहास का विलोम साबित हो रहा है। इस मामले में ज़रूर बुद्धिजीवियों को विचार करना पड़ेगा। कई बार तो प्रदेश के बारे में ऐसी प्रायोजित और झूठी खबरें पढने को मिल जाती है की आश्चर्य होता है। कुछ लोग ऐसा लिख देते हैं मानो छत्तीसगढ़ भारत का अंग ना होकर कही प्रशांत महासागर में निवास करने वाला कोई क्षेत्र हो। निश्चित ही यहाँ भी कुछ समस्याएं हैं। ख़ास कर फिर नक्सलवाद की चर्चा करें तो इस राष्ट्रीय समस्या से छत्तीसगढ़ भी बुरी तरह प्रभावित हुआ है। लेकिन प्रेस को ख़ास कर चाहिए कि रिपोर्टिंग करते हुए इस मामले में अतिरिक्त सावधानी बरतें। किसी भी असामाजिक संगठनों के बहकावे, उसके दुष्प्रचार में नहीं आयें, ओपिनियन मेकर लोग यहाँ आ कर अच्छी तरह से अध्ययन करें फिर जनमत के निर्माण एवं परिष्कार में अपना योगदान दें। राष्ट्रीय मीडिया से यही अपेक्षा है।

बहरहाल…! समाज के हर अनुषंग की तरह समाचार जगत में भी कुछ कमजोरियों, कुछ गिरावटों से इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन इस बात की उम्मीद तो की ही जा सकती है कि अपने शानदार सुनहरे अतीत की तरह मीडिया का भविष्य भी उजवल होगा। आखिर उम्मीद पर ही तो कायम है यह कायनात.

-जयराम दास

5 COMMENTS

  1. जिस जर्नलिज्‍म की नाड1ी में उद़योगपतियों के विज्ञापन का खून बहता हो उसका शरीर अपने हिसाब से कैसे चल सकता है

  2. आज कॆ युग् कॆ हिसाब् सॆ आप्नॆ बिल्कुल् साहि कहा. मगर् आज् भी दॆश् कॆ मीडिया कॆ बरॆ मैन् उज्ज्वल् कल्पनअ करनअ बहुत् हे जरुतरि हॆ.

  3. ये सच है कि पत्रकारिता समाज के लिए बहुत कुछ कर सकती है। लेकिन, बात नीयत पर आकर अटक जाती है।

  4. THANKS bhyya,
    aapne ek satik tarike se media ko samjhane ki kosisi ki or santh me yah bhi bataya ki media ka janm kab huaa or hamare jeevan me media ka kya mahtv hai.
    Is lekh ko padne ke baad sabhi media karmiyo ko jarur kuchh raht milegi or aage se aam jan bhi media ka support karegi.
    me aapke is mat ka purn roop se samarthan karta hu or aasha karta hu ki aapke duvara likhe huve aise hi best vecharo ko padne ka moka milega.
    Best of luck dear

    Regards
    surendra thakur

  5. Dear Jai Ram,
    Thanks for writing for the specific act / inaction of media against the aims & objective of the overall media. Basically they need to write against the government’s inaction , wrong action, disrespect to the public in general , misuse of the national funds, and for encouraging the public towards national interest, social cause and internal harmony between the different religion, class, caste, Creed etc and to save our cultural heritage but they are working very differently not for the public or national interest but only for their (s) earnings & existence in power though the national interest or public interest may get harm.
    In between these activities, some good things may happened occasionally but not due to their basic intension. Finally It can be said that purpose of media cannot be held “bad” but the ultimate result is not good as was expected with the energy, time, money of the public in general, they consumed.
    Now a days, media have become extra-ordinary rich similarly as “GAYA KE PANDE” who had become fatty by taking meals more than they required due to the extra-ordinary faith of public in them.
    You may see that relation of media and our politician have become friendly though media should be vigilant on the activities of government agency in the public interest. They should not forget that they are watchdog of public similarly as a Chartered Accountant for the share holders but they have become choosy. They see what they want to see instead of what they should see. Ultimately they are not GOD and they can see only one thing at a time . What it will be, it will be decided by only them.
    Satish Mudgal

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