मीडिया पर हावी होती राजनीति

विगत कुछ सालों से परिवर्तन अविराम गति से जारी है, चाहे वह सामाजिक संरचना हो या तकनीकी क्षेत्र हर क्षेत्र में परिवर्तन हो रहा है, जो स्वभाविक कम और चौंकाने वाला ज्यादा लग रहा है। ऐसा नहीं है कि यह परिवर्तन किसी एक क्षेत्र में हो रहा हो, बल्कि यह हरेक क्षेत्र में अनवरत गति से जारी है। इन्हीं में से एक आता है मीडिया का क्षेत्र।

इस क्षेत्र में भी परिवर्तन अविराम गति से हो रहा है। पिछले दो दशक से भारतीय मीडिया उपभोक्तावादी संस्कृति से अपने-आपको जोड़ता जा रहा है, जहां सामाजिक हित कम निजी स्वार्थ कुछ ज्यादा ही दिखाई देता है। आज निजी स्वार्थ के लिए उपभोक्तावादी संस्कृति में इसकदर कूद पड़ा है कि अपना नैतिक कर्तव्य भी भूलता जा रहा है। जहां एक ओर मीडिया सामाजिक हित की बात करता है, वहीं दूसरी ओर राजनीतिक दलों और धनकुवेरों से सांठ-गांठ कर आमजनता से दूरी बनाता जा रहा है। ऐसे में राजनीति और मीडिया दोनों आम जनता के लिए ही है, लेकिन दोनों अपने कर्तव्यों से भटकते जा रहे हैं। जनता और राजनीति के बीच मीडिया सेतु का काम करता है, जो राजनीतिक गतिविधियों को आमजनता तक पहुंचाता है, वहीं जनता की समस्या को राजनीतक दलों तक पहुंचाकर समाधान करवाने में महत्वपूर्ण योगदान निभाता है। कहा जाए तो मीडिया और राजनीति आमजनता और लोकतंत्र को सुढ़ृढ़ बनाने में मदद करता है।

मौजूदा परिस्थिति में सवाल यह उठता है कि आखिर इन दोनों क्षेत्रों में इतना भारी बदलाव कैसे हुआ है। क्या राजनीति मीडिया को मैनेज कर रही है या मीडिया राजनीति को। यह एक गंभीर विषय है। सवाल यह नहीं कि राजनीति अगर आमजनता से कटी हैतो पत्रकारिता भी कमरे में सिमटी है। बड़ा सवाल यह है कि ऐसी व्यवस्था मीडिया के सामने बनी ही क्यों, जिसमें पत्रकारिता शब्द बेमानी हो चला है और धंधा समूची पत्रकारिता के कंधे पर सवार होकर बाजार और मुनाफे के घालमेल में मीडिया को कटघरे में खड़ा कर मौज कर रहा है। इसका दूसरा पहलू इससे भी खतरनाक है, जो हर रास्ता राजनीति के मुहाने पर जाकर खत्म हो जाता है, जहां से राजनीति मीडिया को अपने गोद में ले लेती है और इसका पालन पोषण करती है। आज प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया दोनों राजनीति की कोख से ही पल बढ़ कर बाहर आने की सोच विकसित कर रहे हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण सम्पादक के साथ-साथ मालिक बनने की दिशा में कारपोरेट स्टाइल है। आज अखबार या न्यूज चैनल के सम्पादक सम्पादकीय कर्तव्य को कम व्यवसायी कर्तव्य पर कुछ ज्यादा ही जोर देने लगे हैं। यानी मीडिया हाउस का मुनाफा अपरोक्ष तौर पर उसी राजनीति से जुड़ता है, जिस राजनीतिक सत्ता पर मीडिया को बतौर चौथे स्तम्भ के रूप में देखा जाता है। आज कोई सम्पादक चाहे वह कितना भी बुध्दिमान क्यों न हो, उसकी बुध्दिजीविता अब उसी में रह गई है कि वह बाजार से कितना मुनाफा कमा सकता है।

यह बेहद छोटी बात है कि मीडिया का एक वर्ग राजनेताओं के साथ चुनाव में पैकेज डील कर खबरों को छापते-दिखाते हैं या राजनेता खुद ही प्रचार तत्व को खबरों में तब्दील कर मीडिया को मुनाफा दिला देते हैं। इससे भी आगे की बात बनती है तो सम्पादक किसी राजनीतिक दल से चुनाव लड़ने के लिए टिकट अपने या अपनों के लिए मांगता हैऔर राज्यसभा में जाने के लिए पत्रकारिता की भेंट चढ़ा देता है।

पत्रकारिता का रूप किस तरह बदला है। हमें इसका उदाहरण पश्चिम बंगाल के प्रमुख राजनीतिक दलों से मिलता है, जो एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाते रहते हैं कि ममता बनर्जी को सीपीएम प्रभावित न्यूज चैनल बर्दाश्त नहीं है और सीपीएम का मानना है कि न्यूज चैनलों ने नंदीग्राम से लेकर लालगढ़ तक को जिस तरह उठाया है, वह उनकी पार्टी के खिलाफ इसलिए गया, क्योंकि दिल्ली में कांग्रेस की सत्ता है और राष्ट्रीय न्यूज चैनल कांग्रेस से प्रभावित है। इतना ही नहीं केंद्र सरकार भी कई बार कहती रही है कि अब लाइसेंस बांटने पर नकेल कसी जाएगी। अब हर कोई मीडिया हाउस नहीं बना सकते हैं। सरकार के इस रवैया से कहा जा सकता है कि राजनीति अपनी सुविधा-असुविधा के मुताबिक मीडिया तैयार करेगी। उसे पत्रकारों के होने, न होने से कोई मतलब नहीं है। पत्रकारिता ज्ञान भी राजनीति से होकर हो और राजनीतिक सत्ता के आगे पत्रकार या पत्रकारिता प्रसंग भर रह जाए। आज पत्रकारिता पर राजनीतिक हस्तक्षेप ज्यादा हो गया है या कहा जाए कि मीडिया खुद-ब-खुद राजनीति की कोख और गोद में पलना बढ़ना चाहता है।

– सुनील कुमार

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here