विश्वविद्यालयों में विधिक पत्रकारिता के पाठ्यक्रम की दरकार

0
195

भारत सेन

भारत के विभिन्न विश्वविद्यालयों की वेबसाईट का आवलोकन करने पर यह चौकाने वाला तथ्य सामने आता हैं कि पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातक एवं स्नातकोत्तर उपधि प्रदान करने वाले विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में सबसे महत्वपूर्ण विषय विधिक पत्रकारिता नही हैं। कानून और न्याय के शासन में आस्था रखने वालों को यह जानकर दुख होगा कि जहाँ विश्वविद्यालयों में विधिक पत्रकारिता का विषय नही हैं वही पर विधिक पत्रकारिता को पढ़ाने वाले प्रध्यापक या शिक्षक भी नही हैं और इतना ही नही विधि पत्रकारिता का साहित्य भी उपलब्ध नही हैं। विधिक पत्रकारिता शैक्षणिक संस्थानों में एक व्यवस्थागत रूप अभी तक ग्रहण नही कर सका हैं। राष्ट्रीय विश्वविद्यालयों और प्रादेशिक विश्वविद्यालयों में पीएचडी की उपाधि के कार्यक्रम तो चल रहे हैं लेकिन विधिक पत्रकारिता में पीएचडी की उपाधि को लेकर कोई जानकारी नही हैं। पत्रकारिता के लिए स्थिापित माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय की भी यही स्थिति हैं।

भारत के पत्रकारिता एवं जनसंचार से जुड़े शिक्षा संस्थान पत्रकारिता की डिग्रीयाँ तो बाट रहे हैं, पत्रकार तो पैदाकर हो रहे हैं लेकिन विधिक पत्रकारिता की अभी शुरूवात होना बाकी मालूम पड़ती हैं। पत्रकारिता का क्षेत्र अत्यंत विशाल हैं और विधिक पत्रकारिता विधि विशेषज्ञों का विषय हैं। कम से कम दस वर्षो की वकालत का अनुभव रखने वाले अधिवक्ता में विधिक पत्रकार होने की बुनियादी योग्यता हो सकती हैं। विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता के पाठ्यक्रम में विधिक पत्रकारिता को शामिल किया जाकर एक व्यवस्थागत् रूप दिया जा सकता हैं।

विधिक पत्रकारिता न्यायिक अधिकारियों और अधिवक्ताओं के बीच विभिन्न विधिक पत्रिकाओं के माध्यम से होती रही हैं। विधिक पत्रिकाओं में विभिन्न उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय के फैसले होते हैं जिनका प्रचार प्रसार आम आदमी के बीच होना चाहिए लेकिन यह अधिवक्ताओं तक सीमित रहता हैं। विधिक पत्रिकाएँ बहुत महँगी होती हैं और आम आदमी इसे खरीद कर पढ़ नही सकता हैं। लोकतंत्र की सफलता के लिए यह आवश्यक हैं कि कानून का ज्ञान प्रत्येक नागरिक को होना चाहिए। विधिक साक्षरता का अभियान चलाया तो जाता हैं लेकिन गलत ढंग से चलाया जाता रहा हैं। प्रत्येक न्यायालयों में औसतन एक हजार प्रकरण विचाराधीन हैं। आम तौर पर देखने में तो यही आता हैं कि न्यायिक अधिकारी ग्रामीण क्षेत्रों में जाकर विधिक साक्षरता शिविर लगाते हैं। यह काम किसी विधि स्नातक जनसम्पर्क अधिकारी के माध्यम से करवाया जाऐगा तो परिणाम भी सकारात्मक मिल सकेगें। विधिक सेवा प्राधिकरण में विधि अधिकारी का पद समाप्त करके जनसम्पर्क अधिकारी का पद बनाया जाना चाहिए। विधिक सेवा दिवस पर विधिक पत्रकारिता के लिए सम्मानित किए जाने की व्यवस्था होनी चाहिए।

समाचार पत्रों में न्यायालय के फैसले लगातार प्रकाशित होते रहते हैं। समाचार पत्र के सम्पादक जितना महत्व राजनीति के समाचारों को देते हैं और जितनी प्राथमिकता भ्रष्ट राजनेताओं को देते हैं उतना महत्व भारत की उच्चतम न्यायालय को भी नही मिलता हैं। राजनीति के समाचर प्रथम पृष्ठ पर होते हैं और उच्चतम न्यायालय के फैसले ज्यादातर समाचार पत्र के अंतिम पृष्ठ पर विज्ञापनों के बीच देख्ेा जा सकते हैं। इससे राजनीति का महत्व बढ़ जाता हैं और कानून और न्याय का महत्व आम आदमी के जनमानस पर कमजोर पड़ जाता हैं। अगर कोई अधिवक्ता समाज के कमजोर वर्ग गरीब मजदूर वर्ग का मुकदमा जीत कर देता हैं या फिर विधिक सहायता के माध्यम से किसी निर्धन वर्ग के व्यक्ति को अधिवक्ता न्याय दिलवाता हैं तो यह घटना कभी समाचार पत्रों में स्थान नहीं बना पाती हैं। दरअसल समाचार पत्र के संवाददाता के पास पत्रकारिता में डिग्री नही होती और वैचारिक आधार नही होता। इसलिए एैसे संवाददाता करते वही हैं जैसा कि सम्पादक चाहते हैं।

न्यायालय के फैसलों पर पत्रकारिता होती रही हैं। समाचार पत्रों में विभिन्न समाचार ऐजेन्सी के माध्यम से प्राप्त होने वाले न्यायालय के समाचार ही प्रकाशित होते रहे हैं। ऐजेन्सी से प्राप्त समाचार संक्षिप्त होते हैं, जिसे पढ़कर यह स्पष्ट समझ में आता हैं कि समाचार लेखक को कानून और न्याय के बुनियादी सिद्धांतो का बिलकुल भी ज्ञान नही हैं। इससे यह प्रकट होता हैं कि समाचारों बेचने का कारोबार करने वाली विभिन्न समाचार ऐजेंसी के पास भी विधिक पत्रकार नहीं हैं। भारत की समाचर ऐजेन्सीयों का विधिक पत्रकारिता से कोई सरोकार नही हैं। स्पष्ट रूप से कहा जाए तो न्यायालय के समाचार कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाय तो केवल समाचार पत्र में स्थान भरने योग्य मालूम पड़ते हैं। यह गलत हैं और एैसा नही दोहराया जाना चाहिए। यह न्यायालय के फैसले के साथ अन्याय हैं। यह अन्याय उस अधिवक्ता के साथ हैं जिसने पूरे पाँच साल तक पैरवी करी हैं, यह अन्याय उस न्यायिक अधिकारी के साथ हैं जिसकी कड़ी मेहनत के बाद फैसला सुनाया हैं और यह अन्याय उस घटना से जुड़े व्यक्ति के साथ हैं भी हैं जिसकी जीवन और स्वतंत्रता उस घटना और फैसले से बार बार प्रभावित होती हैं।

भारत में न्याय व्यवस्था में सुधारों की बात चल रही हैं तो वही पर न्याय व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार बहस का विषय बन चुका हैं। न्याय व्यवस्था से असंतुष्टों की संख्या लगातार बढ़ते चली जा रही हैं। दबी हुई आवाजों में सही पर असंतोष तो हैं। देश में नक्सलवाद को नियंत्रित नही कर पाने में न्यायिक अधिकारीयों की सबसे बड़ी नाकामी हैं। न्यायालय की लंम्बी चलने वाली प्रक्रिया असंतोष का प्रमुख कारण हैं। न्यायालय की कई प्रक्रिया जनमानस में सवाल खड़े करती हैं जिसका जवाब कभी मिलता ही नहीं हैं। आम आदमी कभी समझ ही नही पाता हैं कि सजा सुनाने वाली अदालते जमानत क्यों नही दे सकती? निचली अदालत के फैसले बड़ी अदालत में टिकते क्यों नही हैं? राजस्व न्यायालय के फैसले सिविल कोर्ट में पलट क्यों जाते हैं? न्यायालय में मामला झूठा साबित होने के बाद भी पुलिस अधिकारीयों पर कार्यवही क्यों नही होती? साक्ष्य के मूल्यांकन में विधि एवं तथ्यों की भूल बार बार और हर बार क्यों दोहराई जाती हैं? गलत फैसला साबित होने पर न्यायालय के अधिकारीयों की वैधानिक जिम्मेदारी तय क्यों नहीं की जाती हैं? सुनवाई की समय सीमा तय क्यों नही की जा सकती? गवाह अदालत मे पलट क्यों हो जाते हैं? कानून की शक्ति का दुरूपयोग करने वाले अधिकारी के विरूद्ध कार्यवही क्यों नही करती अदालत? झूठी रिर्पोट करने वालो पर मुकदमा क्यों नही चलता? विवेचना में भ्रष्टाचार क्यों होता हैं? अपराधीयों कानून और न्याय के शिकंजे से क्यों छूट जाते हैं? एैसे कई अनगिनत सवाल हैं जिसका जवाब विधिक पत्रकारिता के माध्यम से ही दिया जा सकता हैं। न्याय व्यवस्था में सुधार बिना विधिक पत्रकारिता के संभव ही नही हैं।

विश्वविद्यालयों में विधिक पत्रकारिता के पाठ्यक्रम में शामिल किए जाने से कई सकारात्मक परिणाम मिलेगे तो इसकी कई वजह भी हैं। वकालत का अनुभव रखने वालो को अपना नया कैरियर बनाने का अवसर भी मिलेगा। पश्चिम की तर्ज पर चालीस वर्ष की आयु के बाद व्यवसाय बदले का चलन बढऩे लगा हैं। वकालत का पेशा कई प्रतिभाशाली अधिवक्ता छोडऩा चाहते हैं जिनके ज्ञान का लाभ पत्रकारिता में उठाया जा सकता हैं। पत्रकारिता के क्षेत्र में विधि स्नातकों और वकालत का अनुभव रखने वाले अधिवक्ताओं की भूमिका बढऩी चाहिए। मानलीजिए अपराध की किसी घटना पर एक संवाददाता समाचार लिखता हैं और उसी घटना पर समाचार कोई अनुभवी विधि स्नातक संवादाता लिखता हैं तब क्या होगा? परिणाम को समझा जा सकता हैं। गवाहों के अदालत में पलटने से अपराधी तो छूट जाता हैं लेकिन इससे समाज का कितना बड़ा अहित होता हैं उसे केवल समाचार के माध्यम से विधिक पत्रकार ही आम आदमी को समझा सकता हैं। विभागीय जाँच की प्रक्रिया में अक्सर नैसर्गिक कानून का हनन करते हुए कार्यवाही को अंजाम दिया जाता हैं। विधिक पत्रकार ही समाचार के माध्यम से समझा सकता हैं कि दूसरे पक्ष को सुनवाई का अवसर दिए बिना निर्णय कर देना किस तरह से कितना गलत हैं? कानून की अनावश्यक प्रक्रिया की आड़ में भ्रष्टाचार के कितने बड़े अवसर बनते हैं, इस बात को केवल विधिक संवाददाता ही समझा सकता हैं। जब तक आर्थिक असमानता हैं चोरी का अपराध कभी रूकेगा नही, चोर को दण्ड देने से या हाथ काट देने से चोरी का अपराध रूकेगा नही बल्कि चोर के साथ ही आर्थिक असमानता के लिए जिम्मेदार लोगों को दण्डित किए जाने से चोरी समाप्त हो जाऐगी। यह बात विधि संवादाता ही समझा सकता हैं। विधि के क्षेत्र में समाचारों की कमी नही हैं बल्कि समाचर की पहचान करने वालों का अभाव हैं। वास्तव में पत्रकारिता विशेषज्ञों का विषय हैं और पत्रकार को विशेषज्ञों का विशेषज्ञ बनने की दरकार हैं।

भारत के पत्रकार संगठनों को विश्वविद्यालयों में संचालित पत्रकारिता और जनसंचार के पाठ्यक्रमों की समीक्षा के लिए एक राष्ट्र व्यापी आन्दोलन चलाना चाहिए। भारत में पत्रकारिता पश्चिम की देन हैं और पश्चिम की नकल हम करते चले जा रहे हैं। भारत का ज्यादा हित पश्चिम की नकल करने से नहीं हो सकता हैं। पत्रकारिता के पाठ्यक्रमों में पाठ्य पुस्तके पश्चिम के लेखकों का अनुवाद ही हैं। विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता के पाठ्यक्रमों की दुर्दशा को दूरवर्ती शिक्षा के माध्यम से दी जाने वाली अध्ययन सामग्री को पढ़कर ही समझा जा सकता हैं। पाठ्य समग्री किसी कोचिंग संस्थान के नोट्स ज्यादा प्रतीत होते हैं और मौलिकता के सवालों से ज्यादा घिरे होते हैं। पत्रकारिता लगातार आगे बढ़ते चली जा रही हैं और पाठ्यक्रम और पाठ्य पुस्तके पुरानी पड़ते चली जा रही हैं। विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता के पाठ्यक्रम मोटी आय का जरिया बनते चले जा रहे हैं। पत्रकारिता के पाठ्यक्रमों के व्यवसायीकरण को रोकने के लिए पत्रकार संगठनों को आवाज उठाना होगा। पत्रकारिता को अगर जनसेवा के दायरे में रखना हैं तो पत्रकारिता के पाठ्यक्रमों को व्यवसायीकरण से बचाना होगा। देशभर में राज्य स्तर पर एक स्वशासी संगठन, अखिल भारतीय पत्रकार एवं जनसंचार परिषद् का गठन किया जाना चाहिए जो पत्रकारिता की डिग्री और डिप्लोमा प्रदान करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर केवल परीक्षा आयोजित करे और डिग्री और डिप्लोमा के आधार पर पत्रकारों को विशेषज्ञता के आधार पर सनद या लाईसेंस जारी करने का काम करें। इससे विश्वविद्यालय में वसूल की जाने वाली भारी भरकम फीस से बचा जा सकेगा और केवल परीक्षा फीस अदा करके पत्रकारिता और जनसंचार में डिग्री प्राप्त की जा सकेगी।

समाचार पत्र का कारोबार अब जनसेवा कम और संगठित होकर लाभ कमाने वाला कारोबार में बदलता चला जा रहा हैं। समाचार पत्र में अवैधानिक उगाही के अंतहीन अवसर होते हैं। इससे समाचार पत्र मालिकों का तो लाभ होता हैं लेकिन लोकतंत्र का बड़ा नुक्सान होता हैं। पत्रकारिता के क्षेत्र में काम करने वाले पत्रकारों की शैक्षणिक योग्यता पर विचार किया जाए तो ज्यादतर पत्रकार विश्वविद्यालय से केवल कला स्नातक हैं। वाणिज्य, विज्ञान, इंजिनियरिंग, चिकित्सा, कृषि, पर्यावरण, मानवअधिकार और विधि स्नातक उपाधि को समाचर पत्र समूह ने महत्वहीन बनाकर रख दिया हैं। समाचर पत्र समूह यह अच्छी तरह से जानते हैं कि देश में बेरोजगारी लगातार बढ़ती चली जा रही हैं और समाचर पत्र को कम मानदेय पर काम कर सकने वाले पत्रकार चाहिए। समाचार पत्र को विभिन्न विषयों के विशेषज्ञों की भला क्या जरूरत हैं? समाचार पत्र तो वैसे ही बिकता हैं। जनता तो केवल राजनीति के समाचार पढऩा और राजनीतिज्ञों के फोटो को देंखना ज्यादा पसंद करती हैं। जनता की रूची भ्रष्ट राजनीतिज्ञों और उनकी पैरवी करने वाले वकीलों में ज्यादा हैं। समाचर पत्र के पाठक इस व्यवस्था पर प्रहार कर सकते हैं। पाठक समाचार पत्र को अपनी प्रतिक्रिया बार बार बताकर बदलाव ला सकते हैं। पाठक समाचार पत्र से बोल सकते हैं कि आप भ्रष्ट राजनीतिज्ञों को अंतिम पृष्ठ का समाचार बनाए और समाज के गरीब कमजोर और मजदूर वर्ग को न्याय दिलवाने वाले अधिवक्ता को प्रथम पृष्ठ पर स्थान प्रदान आवश्यक रूप से करे। विधि स्नातक पत्रकारों की नियुक्ति करें। कानून और न्याय को प्रथम प्राथमिकता प्रदान करें। पाठक वर्ग का पोस्ट कार्ड में लिखी प्रतिक्रिया समाचर पत्र को यह अहसास करवा सकती हैं कि सम्मानित पाठक कोई भिखरी नही हैं जिसे जो परस दिया जायेगा वह खाने के लिए मजबूर हैं? समाचार पत्र पाठकों की संख्या बल से चलता हैं और संख्या बल से उसे विज्ञापन मिलते हैं। पाठकों के नकारने का डर समाचार पत्र को बड़ा परिवर्तन करने के लिए मजबूृर कर सकता हैं। पाठकों को यह प्रयोग करना चाहिए और कुछ करने से कुछ होता हैं।

भारत को एक लोक कल्याणकारी गणराज्य बनाने के लिए पत्रकारिता की दिशा को बदलने की आवश्यकता हैं। विश्वविद्यालय स्तर पर एक अच्छे पत्रकार तैयार करने के लिए पत्रकार संगठनों के साथ ही आम जनता को अपने अपने कर्तव्यों का पालन करना होगा। पत्रकारिता के क्षेत्र में हम पश्चिम के शिष्य कब तक बने रहेगें? पश्चिम की पत्रकारिता के सामने पूर्व की पत्रकारिता भी कोई उदाहरण प्रस्तुत कर सकेगी? पत्रकारिता भाग्य का विषय नही बल्कि महनत का विषय हैं। विधिक पत्रकारिता में उनती ही महनत करनी पड़ती जिनती किसी मामले में एक अधिवक्ता पैरवी की तैयारी करने में करता हैं दूसरा न्यायिक अधिकारी फैसला लिखने में करता हैं। विधिक पत्रकार ठीक उतनी ही मेहनत न्यायालय के फैसले पर समाचार लिखनें में करते हैं। आरक्षण की व्यवस्था के विरोध में योग्यता और दक्षता के सवाल दोहराए जा सकते हैं तो फिर समाचार पत्र में क्यों नही? फिलहाल तो देश को विधिक पत्रकारिता के महत्व हो समझने और आत्मसात करने की आवश्यकता हैं। समाचार पत्र के पाठकों के हाथ में परिवर्तन लाने की कूँजी हैं और पाठक परिवर्तन लाकर रहेगें।

पेशे से विधि सलाहाकर एवं पत्रकार हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here