आत्मदाह के प्रयास को गैर-आपराधिक बनाने का निर्णय

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वीरेश्वर तोमर
अंततः केन्द्र सरकार ने आत्महत्या को गैर -आपराधिक बनाने का निर्णय विचाराधीन कर ही लिया| यह विधि आयोग की 210वीं रिपोर्ट (वर्ष 2014) के आधार पर किया गया| अतः भारतीय दंड संहिता की धारा 309 को हटा दिया जायेगा, जो आत्महत्या का प्रयास करने वाले को अपराधी मानते हुए एक वर्ष के कारावास का दंड देती है| इस निर्णय के पीछे तर्क दिया जाता है कि जो व्यक्ति पहले से ही मानसिक रूप से पीड़ित है, उसे दंड देकर हम उसे और ज्यादा ही पीड़ित करते हैं| विधि आयोग ने अपनी सिफारिशों का आधार विश्व स्वस्थ्य संगठन, इंटरनेशनल एसोसिएशन फॉर सुसाइड प्रिवेंसन, यूरोप एवं उत्तरी अमेरिका के सभी देशों, इंडियन साइकेट्रिक सोसाइटी के मतों आदि को आधार बनाया है| इससे पूर्व में भी विधि आयोग द्वारा अपनी 42वी रिपोर्ट में धारा 309 को हटाने के बारे में, एवं 156वीं रिपोर्ट में इसे बनाये रखे जाने की संतुति की जा चुकी है| इच्छाम्रत्यु (यूथेनेसिया) की अनुमति भी अभी भारत में लागू नहीं की गई है, जबकि अनेक जटिल एवं असाध्य रोगों द्वारा, एक निम्न माध्यम वर्गीय भारतीय परिवार पर मानसिक एवं आर्थिक दवाब बढ़ता जाता है, क्यूंकि खर्चा अत्यधिक है, और ये भी सत्य है की अब उसे बचाया नहीं जा सकता| साथ ही ऐसे असाध्य रोगों से पीड़ित व्यक्ति कैसे “गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार” (अनु. 21) की प्राप्ति कर ही पा रहा है?

3 बातों की समीक्षा आवश्यक है:
1. आत्महत्या का प्रयास आपराधिक माना जाये या गैर-आपराधिक..?
२. इसे जीवन जीने के अधिकार में शामिल किया जाये अथवा नहीं..?
3. IPC की धाराओं जैसे कानूनों का मकसद प्राथमिक रूप से दंडात्मक (Punitive) होना चाहिए अथवा मानवीय स्वरुप वाला..?

सर्वोच्च न्यायालय की मान्यताएं एवं प्रतिक्रिया:

अनुच्छेद 21 (जीवन जीने का अधिकार) के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय ने इस विषय को व्यापक बनाया| 1994 में पी.रतीनाम के मामले में सर्वोच्च न्यायालय की २ सदस्सीय पीठ ने यह निर्णय दिया कि “संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन के अधिकार के अंतर्गत मरने का अधिकार भी शामिल है| अतः IPC की धारा 309 असंवैधानिक एवं अवैध है|”
1996 में सर्वोच्च न्यायालय की 5 सदस्सीय संवैधानिक पीठ ने ज्ञान कौर मामले में पूर्ववर्ती फैसलों के उलट, कहा की जीवन जीने के अधिकार में मरने का अधिकार शामिल नहीं है| इस निर्णय के प्रमुख बिंदु:
• जीवन के अंतिम छ्णों तक गरिमा से मरने के अधिकार की तुलना, जीवन की सामान्य अवधि को कम करके अप्राकृतिक रूप से ‘मरने के अधिकार’ से नहीं की जा सकती|
• ‘मरने का अधिकार’ यदि कोई है भी, तो वह जीवन जीने के अधिकार से असंगत है|
• गरिमामय जीवन जीने का अधिकार, ‘प्राकृतिक जीवन’ के अंत तक बना रहता है|
• इसका निर्णय कौन करेगा की एक व्यक्ति के जीने की उपयोगिता समाप्त हो गई ? एक व्यक्ति के जीवन पर उसके परिवार के लोगों एवं समाज का भी हक होता है|
जस्टिस काटजू एवं ज्ञान सुधा मिश्र की पीठ ने मार्च 2011 में अरुणा रामचंद्र शानबाग के मामले में “आपवादिक परिस्तिथियों में निष्क्रिय इच्छाम्रत्यु (Passive Euthanasia)” को मान्यता प्रदान करते हुए दयाम्रत्यु को वैध घोषित किया|
suicideराज्यों की प्रतिक्रिया:

सभी राज्यों ने इसके पक्ष में अनुमति दे दी है, परन्तु 5 राज्यों ने अपने मतों को आरक्षित कर लिया| इनमे हैं: बिहार, मध्य प्रदेश, दिल्ली, पंजाब एवं सिक्किम| बिहार का मानना था की चिकित्सकीय कारणों के चलते आत्महत्या, एवं आतंकवादी तथ्यों को छुपाने के मकसद से सायनाइड खा कर आत्महत्या करने जैसे मामलों को अलग अलग किया जाये| मध्यप्रदेश, सिक्किम, एवं दिल्ली ने तर्क दिया की यदि आत्महत्या को गैर-आपराधिक बनाया गया तो आमरण अनशन क्र रूप में विधि प्रवर्तनकारी इकाइयों के समक्ष चुनोती बढ़ जाएगी एवं कानून व्यवस्था में अव्यवस्था उत्पन्न हो जाएगी| पंजाब का सुझाव है कि ऐसे बेरोजगार, वृद्ध, बीमार, बलात्कार भुक्तभोगी, किसानों इत्यादि को उचित चिकित्सीय एवं मनोवैज्ञानिक उपचार देकर उनका पुनर्वास किया जाये|

अन्य विचारणीय बिंदु:
• वास्तव में अक्षम एवं अपराधी, आत्महत्या का प्रयास करने वाला नहीं, बल्कि समाज, परिवार, मूल्य एवं परम्पराएं हैं, जो उसके जीवन को बचाने की दिशा में सार्थक प्रयास करने में असफल सिद्ध होती हैं| मजबूरीवश अपने परिवार के लिए वेश्यावृति करने वाली लड़कियों को समाज में हेय द्रष्टि से देखा जाता है, विवाह पूर्व किशोरियों का गर्भवती होना उनके पास २ ही रस्ते छोड़ता है, अवैध गर्भपात, अथवा आत्महत्या| एड्स पीडित एवं कुष्ठ रोग से पीड़ित व्यक्ति समाज में तिरस्कार के पत्र होते हैं, ऐसे में इन सभी के पास मात्र आत्महत्या का ही तो विकल्प शेष रह गया ???
• परीक्षा में अनुत्तीर्ण होना, प्रेम में असफलता, राजनैतिक उद्देश्यों से आमरण अनशन, नौकरी पाने में असफल व्यक्ति भी आत्महत्या जैसा कदम उठाते हैं| इनकी पारिवारिक जवाबदेहिता कौन तय करेगा ??
• स्त्रियों के मामलों में इसका दुरूपयोग संभव है| दहेज़, सती, कन्या को जन्म देना, यौन-शौषण जैसे मामलों को परिवार आत्महत्या का मामला सिद्ध करके मुक्त हो सकते हैं| वरन प्रत्येक अपराध को आत्महत्या का रूप देने की कोशिश की जा सकती है !!
• किसानों की आत्महत्या का मामला एकदम अलग प्रकृति लिए हुए है| उनकी अपेक्षाएं मात्र २ वक़्त का पेट भरने तक सीमित हैं, तब भी कतिपय कारणों से वह संभव नहीं हो पता| उसके लिए सरकारी प्रयासों की आवश्यकता है|
• जहाँ तक धारा 309 के औचित्य पर प्रश्नचिन्ह लगाने की बात है, तो वह इस आधार पर लगाई जाती है कि यह किसी कृत्य को आपराधिक एवं दंडनीय घोषित करने के लिए मात्र प्रक्रियाओं एवं इरादों (intention) को ही ध्यान में रखता है| यह उन परिस्तिथियों, दशाओं एवं मनोभावों को ध्यान में नहीं रखता, जो किसी व्यक्ति को आत्महत्या के लिए मजबूर करते हैं|
अंततः कहा जा सकता है कि धारा 309 को और अधिक मानवीय स्वरुप देने की आवश्यकता है| आत्महत्या के प्रयासों को श्रेणीबद्ध करने की आवश्यकता है| आवश्यकता है मनोवैज्ञानिक एवं चिकित्सीय सहायता के साथ साथ पुनर्वास के प्रयासों की| आवश्यकता हैं समाज को, अपने मूल्यों में परिवर्तन की| आवश्यकता है, हमें, हमारी सोच को बदलने की, और आवश्यकता है, नैतिक आदर्शों को जीवन मूल्यों के साथ एकीकृत करने की…..!!!

 

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