वेद एवं वैदिक साहित्य के स्वाध्याय से मनुष्य श्रेष्ठ मनुष्य बनता है

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मनमोहन कुमार आर्य

                वेद सृष्टि की आदि में परमात्मा द्वारा अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों को दिया गया ईश्वरीय सत्य निर्दोष ज्ञान है। प्राचीन मान्यता है कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेदों में सब मनुष्यों कोमनुर्भवअर्थात् मनुष्य बनने का सन्देश दिया गया है। इसका अर्थ है कि जन्म से मनुष्य योनि में उत्पन्न होकर भी हम मनुष्य नहीं होते, हमें मनुष्य बनना होता है। मनुष्य बनने के लिये हमें अपने बुद्धि को सद्ज्ञान सदाचार से युक्त करना होता है। जिस मनुष्य के जीवन में सद्ज्ञान सदाचार नहीं होता है वह केवल आकृति मात्र से ही मनुष्य रूप में दिखाई देते हैं परन्तु गुण, कर्म स्वभाव के आधार पर उन्हें मनुष्य नहीं कहा जा सकता। मनुष्य का अर्थ ही है कि जो मननशील हो, सत्य व असत्य का विचार करे तथा असत्य का त्याग और सत्य को ग्रहण व धारण करे। ऐसा होने पर ही हम मनुष्य बनते हैं। वेद ऐसा ही मनुष्य बनने की प्रेरणा व शिक्षा देते हैं। ऐसा मनुष्य बनने के लिये हमें अपनी बुद्धि का विकास, विस्तार व उन्नति करना आवश्यक है। बुद्धि का विकास वेदज्ञान से होता है जो ऋषियों के उपदेशों सहित वेद एवं वैदिक साहित्य के अध्ययन से प्राप्त होती है। वर्तमान समय में ईश्वर को सर्वथा जानने वाले व उसकी आज्ञाओं का पालन करने वाले ऋषि तो हैं नहीं, अतः उनके बनाये सद्ज्ञान से युक्त ग्रन्थों के अध्ययन व स्वाध्याय से ही हम सत्यज्ञान को प्राप्त कर व उसे धारण कर सच्चे मनुष्य बन सकते हैं। वेदज्ञान को प्राप्त ऐसा मनुष्य ही अपने जीवन के उद्देश्य से भलीभांति परिचित होता है और उस उद्देश्य को पूरा करने के लिये कर्तव्य पथ पर आरुढ़ होकर लक्ष्य पर पहुंच सकता है। वेद हमें सद्ज्ञान प्रदान कर हमारे कर्तव्य पथ को प्रदर्शित करते हैं। वेदों के अनुसार जीवन का प्रयोजन धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त होना होता है। इसके लिये मनुष्य को अधर्म, अनर्थ व कामवासनाओं से दूर रहकर वैदिक विधि से ईश्वर की उपासना करते हुए लक्ष्य की ओर बढ़ना होता है। इसे प्राप्त करने के लिये प्राचीन काल में ऋषियों ने सभी मनुष्यों के लिए पंच महायज्ञों का विधान किया था। आज भी यह पंचमहायज्ञ प्रासंगिक व आवश्यक हैं और इनको किये बिना मनुष्य अन्तिम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त नहीं हो सकता। जब हम ऋषियों व वैदिक विद्वानों के जीवन पर दृष्टि डालते हैं तो वह हमें पंचमहायज्ञों का पालन करते हुए तथा लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए प्रतीत होते हैं। ऋषि दयानन्द सहित हम मर्यादा पुरुषोत्तम राम तथा योगेश्वर कृष्ण जी को भी वेदमार्ग का अनुसरण करते हुए देखते हैं। हमारा कर्तव्य है कि हम वेद एवं वैदिक साहित्य के अध्ययन व स्वाध्याय सहित मोक्षगामी अपने महापुरुषों के जीवन से अपने कर्तव्य की शिक्षा लें और उनका अनुकरण व अनुशरण करें।

                मनुष्य का आत्मा चेतन पदार्थ है जिसमें ज्ञान प्राप्ति कर्मों को करने की क्षमता सामर्थ्य होता है। अतः ज्ञान प्राप्ति ज्ञानानुरूप कर्म करना मनुष्य का कर्तव्य है। ज्ञान प्राप्ति के लिये ही हमें वेद वैदिक साहित्य का स्वाध्याय करना होता है। स्वाध्याय करने से हम इष्ट विषय के बारे में पूरी तरह से परिचित हो जाते हैं। उसका ज्ञान हो जाने पर हम उसका स्वयं भी लाभ ले सकते हैं दूसरों को भी उससे लाभ उठाने की प्रेरणा कर सकते हैं। संसार में ज्ञान की कोई सीमा नहीं है। सभी प्रकार का ज्ञान मनुष्य के लिये आवश्यक भी नहीं है। मनुष्य को यथाशक्ति अपनी आवश्यकता के अनुसार ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। सबसे अधिक महत्व हमें उस सत्ता को जानना है जिसने यह संसार बनाया है व जो इसे चला रहा है। उसी सत्ता ने हमारे शरीर भी बनाये हैं, हमें जन्म दिया है तथा हमें जीवन में जो सुख मिलता है वह भी उसी से प्राप्त होता है। अतः अपने जन्म देने वाले परमात्मा को जानना हमारा प्रथम कर्तव्य होता है। उसे जानकर उसका धन्यवाद करना व उससे ज्ञान व सुख शान्ति संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये उसी की शरण को प्राप्त होकर प्रार्थना करनी चाहिये। यदि हम यह काम करने में सफल हो जाते हैं तो जीवन के अन्य कार्यों को भी हम वेदाध्ययन व अन्य ग्रन्थों को पढ़कर तथा विद्वानों के उपदेशों को सुनकर उन्हें भी जान व प्राप्त हो सकते हैं।

                अपने जीवन कर्तव्यों को सम्पूर्णता से जानने के लिये ऋषि दयानन्द जी का अमर ग्रन्थ ‘‘सत्यार्थप्रकाशहमारे लिए सबसे अधिक सहायक होता है। जिन लोगों ने इस ग्रन्थ का अध्ययन किया है वह इसके महत्व एवं उपादेयता को समझते हैं। जो उच्च स्तरीय सच्चा ज्ञान इस ग्रन्थ में मिलता है वह संसार में उपलब्ध साहित्य का अध्ययन करने पर नहीं मिलता। इस ग्रन्थ का अध्ययन करने से हम वेदों के सत्य स्वरूप उसमें निहित ज्ञान से स्थूल रूप से परिचित हो जाते हैं। इस ग्रन्थ के अध्ययन से हमें उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति सहित वेद अन्य वैदिक साहित्य का अध्ययन करने की प्रेरणा भी मिलती है। ऐसा करके हम ईश्वर व संसार विषयक अधिकांश ज्ञान को प्राप्त हो जाते हैं जो हमें ईश्वर की उपासना सहित सद्कर्मों व परोपकार आदि की प्रेरणा करता है। इन्हीं शिक्षाओं से राम, कृष्ण तथा दयानन्द जी आदि महापुरुषों ने अपना जीवन बनाया था। इसी कारण से हम भी वाल्मीकि रामायण, महाभारत, गीता तथा ऋषि दयानन्द के जीवन चरित्र को पढ़कर उनके अनुरूप जीवन बनाने का प्रयत्न करते हैं। संसार में ऐसे सहस्रों लोग हों गये हैं जिन्होंने ऐसा किया और ऐसा करके उनको जीवन सुख व सन्तोष की प्राप्ति हुई। तर्क एवं युक्ति से देखने पर यह भी विदित होता है कि ऐसे लोगों ने अपने जीवन की उन्नति की है।

                हम विचार करते हैं तो हमारे सम्मुख यह तथ्य आता है कि सत्य के ग्रहण धारण करने से आत्मा मनुष्य की उन्नति तथा सत्य से दूर होने, असत्य में पड़े फंसे होने तथा वेदविरुद्ध आचरण करने से मनुष्य के जीवन का पतन ही होता है। आत्मा की उन्नति तो सद्ज्ञान श्रेष्ठ कर्मों से ही होती है। इसी कारण हमारे देश में आदि काल से गुरुकुल शिक्षा प्रणाली थी जहां वेद एवं वैदिक साहित्य के प्रमुख ग्रन्थ उपनिषदों तथा दर्शन सहित मनुस्मृति, वैद्यक, रामायण एवं महाभारत आदि अनेकानेक ग्रन्थों का अध्ययन कराया जाता था। इनका अध्ययन कर मनुष्य सच्चा आस्तिक ईश्वर भक्त तथा दूसरों के अन्याय शोषण, पक्षपात आदि से मुक्त एक परोपकारी सहिष्णु मनुष्य बनता है जो अपनी उन्नति करने के साथ अन्यों की उन्नति करने कराने में भी सहयोगी सिद्ध होता है। यही कारण है कि हमारे ऋषि मुनियों ने जहां वेद साधना के द्वारा अपने जीवन का कल्याण किया वहीं वह अपने अनुभवों व सत्य ज्ञान पर आधारित उपनिषद, दर्शन सहित सत्यार्थप्रकाश एवं ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका जैसा महान साहित्य भी हमें प्रदान कर गये हैं। हमें इस साहित्य से लाभ उठाना है। इसका प्रतिदिन अध्ययन व प्रवचन आदि करना है जिससे देश व समाज सत्य विचारों व संस्कारों से युक्त हो सके।

                अपने जीवन के कल्याण समाज के उत्थान को लक्ष्य में रखकर इस महद् उद्देश्य को पूरा करना सभी विज्ञ मनुष्यों का कर्तव्य होता है। अतः हमें स्वाध्याय के द्वारा स्वयं सन्मार्ग पर चलना है दूसरों को चलाना है। साथ ही समाज को दुर्गुणों बुराईयों से पतित होने से बचाना भी है। समाज जब पतित होता है तो उससे दूसरों को भी हानि होने के साथ सत्पुरुषों का जीवन जीना भी दूभर होता है। ऐसा हम समाज में घटने वाले अनेक उदाहरणों से देखते हैं। इससे यही अनुभव होता है कि देश में सद्ग्रन्थों वेद सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों की शिक्षा बाल्यकाल से ही अनिवार्य होनी चाहिये। यदि ऐसा होगा तो हमें तुलनात्मक से दृष्टि अधिक योग्य, संस्कारी, ईश्वरभक्त, देशभक्त तथा समाज का हित करने वाले मनुष्य मिलेंगे जो सच्चरित्रता से युक्त होंगे और साथ ही बलवान होंगे तथा दुर्बलों व असहायतों को अभय प्रदान करने वाले होंगे। इन सब लाभों के लिये जहां अनेक उपाय आवश्यक हैं वहां मुख्य उपाय स्वाध्याय को दैनिक दिनचर्या में प्रवृत्त करने सहित सद्ज्ञान का शिक्षण व प्रशिक्षण ही आवश्यक प्रतीत होता है। हमारे प्राचीन ऋषियों ने अपने ग्रन्थों में सबके लिये यह उपदेश किया है कि सब मनुष्य नियमित स्वाध्याय करें, स्वाध्याय में प्रमाद कदापि न करें जिससे वह अज्ञानता व अन्य सभी दोषों से मुक्त रहे। स्वाध्यय ऐसी एक महत्वपूर्ण वस्तु है जिसका सेवन करने से मनुष्य किसी भी विषय का विद्वान बन सकता है और उससे स्वयं को लाभान्वित करने के साथ समाज व देश को भी लाभ पहुंचा सकता है।

                हमने स्वाध्याय की चर्चा की है। हम आशा करते हैं कि पाठकों को यह उपयोगी लगेगी। हमारा निवेदन है कि सभी मनुष्यों को सत्यार्थप्रकाश का स्वाध्याय व अध्ययन अवश्य ही करना चाहिये। इससे उनको निश्चय ही लाभ होगा व वह कल्याण को प्राप्त होंगे। वह धर्मपालन, अधर्म के त्याग, ईश्वरोपासना, यज्ञ, परोपकार, दान आदि में प्रवृत्त होंगे। उनका जन्म, मरण व परजन्म भी इससे गुणात्मक रूप से लाभान्वित होंगे। ओ३म् शम्।

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