आरके स्टूडियो का बिकना एक कलाकार की स्मृति का बिकना

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प्रमोद भार्गव
हिंदी सिनेमा के महान शोमेन राज कपूर की सुनहरी स्मृतियों से जुड़ा आरके स्टूडियो बिकने जा रहा है। हिंदी सिनेमा की अनेक क्लासिक व कल्ट फिल्मों का गवाह व आदर्श रहा आरके स्टूडियो का बिकना कलाप्रेमियों के मन को नहीं भा रहा है। लेकिन इसके बिकने की खबर कोई अफवाह न होकर एक हकीकत है। दरअसल राजकपूर के मंझले पुत्र औरमशहूर अभिनेता ऋषि कपूर ने स्वयं यह जानकारी देते हुए कहा है कि ‘हमारे पिता का सपना अब परिवार के लिए सफेद हाथी बन गया है। इससे हमारी यादें जरूर जुड़ी है, लेकिन परिवार में झगड़े का कारण बने, इससे पहले ही हमने इसे बेचने का फैसला ले लिया है।‘ यह स्टूडियो मुंबई के चेंबूर इलाके में दो एकड़ में फैला हुआ है। सितंबर 2017 में आग लग जाने के कारण स्टूडियो को भारी क्षति पहुंची थी। नतीजतन बाॅलीवुड की यादों से जुड़ी तमाम बहुमूल्य धरोहरें राख हो गई। कई भवन और उनमें रखे उपकरण, पोशाक और आभूषण भी नष्ट हो गए। राजकपूर ने मेरा नाम जोकर में जिस मुखौटे को पहनकर अद्भूत अभिनय किया था, वह भी जल गया। इस अग्निकांड के बाद से ही स्टूडियो में शूटिंग बंद है। गोया, आमदनी का जरिया खत्म हो जाने के कारण राजकपूर की संतानें इसे बेचने को विवश  हुई हैं। यह धरोहर न बिके इस नाते दो ही विकल्प शेष हैं, एक तो महाराष्ट्र  सरकार इस संपत्ति का अधिग्रहण करके इसे फिल्मों का संग्रहालय बनाने का रूप दे, दूसरे कपूर परिवार के लोग ही अपने निर्णय पर पुनर्विचार करते हुए उन विश्वनाथ डी. कराड़ से प्रेरणा लें, जिन्होंने अपने बूते पुणे में राजकपूर की स्मृति में  शानदार संग्रहालय बनाया हुआ है। क्योंकि राजकपूर की फिल्मों के जरिए भारतीय कला और संस्कृति के साथ सामाजिक मूल्यों की स्थापना में भी अहम् योगदान दिया है। प्रेम और अहिंसा का संदेश  देने वाली, उन्हीं की फिल्में रही हैं, जिन्होंने हिंदी का प्रचार-प्रसार रूस, चीन, जापान के अलावा अनेक देषों में किया। इसीलिए जब राजकपूर दादा साहब फाल्के पुरस्कार लेने दिल्ली के राष्ट्रपति भवन पहुंचे तो राष्ट्रपति ने मंच से नीचे उतरकर उनकी अगवानी की थी।
हिंदी सिनेमा के पहले शो -मेन राजकपूर ने 70 साल पहले 1948 में आरके स्टूडियो की नींव रखी थी। इस स्टूडियो के बैनर तले बनाई गई पहली फिल्म ‘आग‘ फ्लाॅप रही थी, किंतु दूसरी फिल्म ‘बरसात‘ को बड़ी सफलता मिली थी। इसका नामाकरण राज कपूर के नाम पर ही किया गया था। स्टूडियो का लोगो ‘बरसात‘ में राजकपूर और नरगिस के गीत गाने के एक दृश्य का प्रतिदर्श है। कालांतर में इस स्टूडियो में राजकपूर ने ‘आवारा‘, ‘श्री-420‘, ‘संगम‘, ‘मेरा नाम जोकर‘, ‘बाॅबी‘ और ‘राम तेरी गंगा मैली‘ फिल्मों का निर्माण किया। अन्य निर्माता भी इस स्टूडियो में फिल्में बनाते रहे हैं। हालांकि एक समय ऐसा भी आया जब राजकपूर को इस स्टूडियो को गिरवी रखना पड़ा। दरअसल ‘मेरा नाम जोकर‘ राजकपूर की महत्वाकांक्षी विराट व लंबी फिल्म थी। इसमें उस समय के दिग्गज कलाकारों राजेंद्र कुमार, धमेंद्र, मनोज कुमार और दारा सिंह को लेने के साथ रूस से भी बड़े कलाकार लिए गए थे। एक सर्कस के अनेक वन्य-प्रणियों ने भी इस सर्कस में पटकथा के अनुसार जीवंत अभिनय किया था। अपने बेटे ऋषि  कपूर को इस फिल्म में एक किषोर छात्र के रूप में पहली बार अभिनय करने का अवसर दिया था। बड़े कैनवास की फिल्म होने के कारण राज कपूर ने इस फिल्म पर दरियादिली से पैसा खर्च किया था। किंतु जब फिल्म पर्दे पर आई तो फ्लाॅप साबित हुई। इससे राज कपूर को गहरा सदमा लगा। इस सदमे और कर्ज से उबरने के लिए राज कपूर ने ऋषि कपूर और डिंपल कपाड़िया को लेकर ‘बाॅबी‘ फिल्म बनाई। इसका निर्माण ही बाॅक्स आॅफिस पर खरी उतारने की परिकल्पना से किया गया था। लिहाजा यह फिल्म सुपरहिट रही और राजकपूर कर्ज से मुक्त हुए।
राज कपूर के तीनों बेटे रणधीर, ऋषिऔर राजीव के अलावा दोनों बेटियों रीमा जैन व ऋतु नंदा एक स्वर से अब इस बेषकीमती संपत्ति को बेचने पर सहमत है। इन लोगों ने संपत्ति के दलालों के एक समूह को सौदा तय करने का काम सौंप दिया है। तय है, इस संपत्ति को रियल एस्टेट के कारोबारी या कोई औद्योगिक घराना ही खरीद पाएगा। जमीन बिकने के बाद इसमें आवासीय और व्यावसायिक परिसर विकसित होंगे, जो इस परिसर की वर्तमान उस पहचान को लील जाएंगे, जिसे कलाप्रेमी एक मंदिर मानते हैं। मुंबई के गेटवे आॅफ इंडिया, ताज होटल, मुंबादेवी मंदिर, विनायक मंदिर, वानखेड़े स्टेडियम और चैपाटी की तरह आरके स्टूडियो भी एक पर्यटन स्थल है। इसे भी देखने सैंकड़ों कलाप्रेमी रोजाना इसके द्वार पर दस्तक देते है। कला और संस्कुति की बड़ी पहचान होने के साथ इस स्टूडियो की पहचान इसलिए भी बनी रहना जरूरी है, क्योंकि इसने देष-विदेष में हिंदी भाशा की पहचान बनाने में भी अहम् भूमिका का निर्वाह किया है। गोया, कपूर परिवार इसे सुरक्षित नहीं रख पा रहा है तो महाराष्ट्र सरकार इस भूमि का अधिग्रहण कर ले, ताकि विष्व में हाॅलीवुड के बाद सबसे अधिक लोकप्रिय हिंदी फिल्मों की पहचान बने बाॅलीवुड को सरंक्षण मिल सके। हमारे देश  में अनेक ऐसे नेताओं के घर संग्रहालयों में बदले गए हैं, जिनकी पहचान से जुड़ी धरोहरें बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है। राजा-महाराजाओं के विलासी जीवन से जुड़े संग्रहालय भी हमारे देश  में हैं। ये संग्रहालय केवल भौतिक सुख प्राप्ती की प्रेरणा देते हैं। किंतु आरके स्टूडियो सिने जगत की एक ऐसी पहचान है, जो बदलते सांस्कृतिक मूल्य, रीति-रिवाज, पहनावा और फिल्म निर्माण की तकनीक से जुड़े कैमरे और अन्य उपकरणों का ऐतिहासिक गवाह रहा है। लिहाजा फिल्मों का यह श्रेष्ठ  संग्रहालय बन सकता है। केंद्र सरकार भी इसके निर्माण में आर्थिक मदद करे तो यह पहल सोने में सुहागा सिद्ध होगी।
पुणे में राज कपूर की स्मृति में एक संग्रहालय बनाया गया है। इसमें अपने अभिनय में जान डाल देने वाली रचनात्मकता एवं भावुकता राजकपूर की प्रतिमाओं में परिलक्षित है। दरअसल यह संग्रहालय उस 125 एकड़ भूमि के षैक्षिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक परिसर भूमि में निर्मित है, जिसे राज कपूर ने इस संस्थान के संस्थापक विश्वनाथ डी. कराड को दान में दी थी। लेकिन राज कपूर की शर्तथी, कि शिक्षा के साथ-साथ इस संस्थान को ऐसे भारतीय संस्कृति के प्रतिबिंब के रूप में प्रस्तुत किया जाए, जिसमें भारतीय संस्कृति की विरासत झलके। शायद राजकपूर के इसी स्वप्न को साकार रूप में ढालने की दृश्टि से इसके कल्पनाशील  संस्थपकों ने महाराष्ट्र इंस्टीट्यूट आॅफ टेक्नोलाॅजी (एमआईटी) जैसे विशाल  शिक्षा संस्थान को आकार दिया। फिर इस परिसर में संगीत कला अकादमी एवं वाद्य-यंत्र संग्रहालय, सप्त-ऋृषि आश्रम और भारतीय सिनेमा के स्वर्ण-युग से साक्षात्कार कराने वाला राज कपूर संग्रहालय अस्तित्व में लाए गए। उनकी मृत्यु के 25 साल बाद इस संग्रहालय का उद्घाटन करते हुए उनके पुत्र रणधीर कपूर ने भावविभोर होते हुए कहा था, ‘इस परिसर में मुझे ऐसा अनुभव हो रहा है कि मेरे महान पिता की आत्मा यहां हर जगह वास कर रही है। वे हरेक पेड़ और फूल में जीवन की तरह जीवित हैं। इस स्मारक के निर्माण के लिए मैं श्री विश्वनाथ  उन्होंने मेरे पिता के सपने को साकार रूप दिया है।‘ रणधीर कपूर यदि चाहें तो अपने इसी कथन से अभिप्रेरणा लेकर आरके स्टूडियो में संग्रहालय के निर्माण की आधारषिला रख सकते हैं। ऐसा नहीं है कि उनके आर्थिक रूप से सक्षम अन्य भाई-बहन अपने पिता की स्मृति में एक स्मारक बनाने के लिए राजी न होने पाएं। यदि वे इसके निर्माण का संकल्प ले लें तो बाॅलीवुड की तमाम हस्तियां और मुंबई के टाटा व अंबानी जैसे उद्योगपति भी इस याद को यादगार बनाए रखने में अपना योगदान देने को आगे आ सकते हैं।

 

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