प्रमोद भार्गव
यह शर्मनाक स्थिति भारत जैसे देश में ही संभव है कि अलगाववाद के हिमायती पत्थरबाज युवकों का एक हुजूम सीआरपीएफ के सशस्त्र जवानों के साथ बद्सलूकी करें, बावजूद संयम का परिचय देते हुए सैनिक खून का घंूट पीकर रह जाएं। अमेरिका, चीन या कोई अन्य मूल्क होता तो ईंट का जबाव पत्थर से देने का काम करता। बावजूद सर्वोच्च न्यायालय राजनैतिक दल और मानवाधिकार आयोग हैं कि सेना को जब-तब संयम बरतने की सलाह देते रहते हैं। फारूख अब्दुल्ला तो खुलेआम पत्थरबाजों की तरफदारी करने में लगे है। केंद्र में सत्तारूढ़ दल भाजपा को छोड़ अन्य कोई भी दल ऐसा नहीं है, जिसने पत्थरबाजों को नसीहत देते हुए फटकार लगाई हो ? देश की सबसे बड़ी अदालत ने यहां तक व्यवस्था कर दी है कि अफस्पा यानी सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून वाले क्षेत्रों में यदि अरजक तत्वों से मुठभेड़ के दौरान कोई मौत होती है तो उस मामले में एफआईआर अनिवार्य रूप से दर्ज कराई जाए ? लेकिन अब जो कश्मीर में लोकसभा उपचुनाव के दौरान पीड़ित कर देने वाला वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ है, उस परिप्रेक्ष्य में अब समय आ गया है कि सेना के बंधे हाथ खोल देना चाहिए।
कश्मीर में सीआरपीएफ के जवानों पर उपद्रवी तत्वों ने जिस तरह से लात और घूंसें बरसाए हैं, उससे भारत का आम और खास आदमी गुस्से में है। जब ये पत्थरबाज सुरक्षाबलों का सामूहिक उत्पीड़न करने का दुस्साहस कर सकते हैं, तो ये सवाल सहज ही जहन में कौंधता है कि इन पत्थरबाजों के निषाने पर यदि खाली हाथ इक्का-दुक्का जवान बाइदवे आ जाएं तो ये उन्हें जिंदा नहीं छोड़ेंगे ? इन गुमराह कश्मीरी पत्थरबाजों का दुस्साहस इस हद तक बढ़ चुका है। ये खुले तौर से पाकिस्तान परस्त दिखाई दे रहे हैं। हालांकि ये बौराये युवक सेना और सुरक्षा बलों पर पत्थर तो आए दिन बरसाते रहते हैं। इस तरह की राष्ट्रविरोधी हरकतों से खफा होकर ही थल सेना अध्यक्ष विपिन रावत को कहना पड़ा था कि जो लोग पाकिस्तान और आईएस के झंडे लहराने के साथ सेना की कार्यवाही में बाधा पैदा करते हैं, उन युवकों से कड़ाई से निपटा जाएगा। इस बयान के आते ही कथित अलगाव एवं मानवाधिकारवादी नसीहत देते हुए कहने लगे थे कि सेना को सब्र खोने की जरूरत नहीं है। जबकि सेना के साथ की गई बद्सलूकी पर इन सबने चुप्पी साधी हुई है।
सेना प्रमुख ने आगे कहा है कि जिन लोगों ने कश्मीर में हथियार उठाए हैं, वे भले ही स्थानीय नौजवान हो, लेकिन यदि वे पाकिस्तान अथवा आईएस के झंडे उठाकर आतंकियों के मददगार बनते है तो हम उन्हें राष्ट्रविरोधी तत्व ही मानेंगे। उनके खिलाफ कड़ी कानूनी कार्यवाही होगी। सेनाध्यक्ष की यह आक्रमता उचित है। दरअसल वादी में सुरक्षाकर्मी इसलिए ज्यादा हताहत हो रहे हैं, क्योंकि स्थानीय लोग सुरक्षा अभियानों में बाधा डालने लगे है। पत्थर बाज युवक पत्थरों के साथ बोतलबंद पेट्रोल बमों का इस्तेमाल करने लगे हैं। जबकि सेना को पैलेट गन की बजाय गुलेल से मुकाबला करने को विवश किया जा रहा है। इस विरोधाभासी स्थिति में सेना के आत्मरक्षा का सवाल भी खड़ा होता है ? वैसे भी जब सैनिक को शपथ और प्रशिक्षण दिलाए जाते हैं, तब देशद्रोही के विरुद्ध ‘ शुट टू किल‘ मसलन गोली मार देने का पाठ पढ़ाया जाता है। वैसे भी दुनिया के किसी भी देश में फौज हिंसा का जवाब, हिंसा से देने के लिए रखी जाती है, न कि बम का जवाब गुलेल से देने के लिए ? कुछ ऐसे ही कारण हैं कि घाटी में पाकिस्तान द्वारा भेजे गए आतंकियों के हाथों शहीद होने वाले सैनिकों की संख्या पिछले 5 साल में सबसे ज्यादा 2016 में रही है। इस साल भी शुरूआती षांति रहने के बाद दहशतगर्दों ने अपनी गतिविधियां तेज कर दी हैं।
सरकार की नीतियों अथवा अपनी जयाज मांगों को लेकर प्रदर्शन का अधिकार संविधान ने देश के हर एक नागरिक को दिया है। देशभर में आए दिन प्रदर्शनकारियों को रोकने के लिए कभी-कभी लाठीचार्ज किया जाता है या आसूं गैस अथवा तेज पानी की बौछारें छोड़कर उग्र होती भीड़ को काबू में लिया जाता है। लेकिन घाटी में प्रदर्शनकारियों पर नियंत्रण के लिए पैलेट गन के इस्तेमाल का अधिकार सेना और सुरक्षा बलों को मिला हुआ है। प्रदर्शनकारी जब सुरक्षाबलों पर पथराव करने से बाज नहीं आते तो बलों को मजबूर होकर पैलेट गन चलानी पड़ती हैं। ऐसा इसलिए भी होता है, क्योंकि वादी में होने वाले ज्यादातर प्रदर्शनों में अलगाववाद की बू आती है। इस दौरान ये देश विरोधी नारे लगाते हुए पाकिस्तानी झण्डे फहराते हैं। पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे भी लगाते है। इन हरकतों को देशद्रोह न मानकर क्या माना जाए ? ऐसे में राष्ट्रभक्त सैनिक पैलेट गन न चलाएं तो क्या वायरल हुए वीडियो में दर्ज दृश्यों की तरह खून का घूंट पीकर अपमानित होते रहे। पैलेट गन के इस्तेमाल पर रोक लगाने की मांग जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट बार एसोसिएशन ने हाई कोर्ट में जनहित याचिका लगाकर की थी, लेकिन कोर्ट ने इसे नामंजूर कर दिया था। अब जिस तरह से जवानों को जलील किया गया है, उस परिप्रेक्ष्य में इस तरह की याचिकाओं पर पुर्नविचार करते हुए मानवीय रुख अपनाना सैनिकों के अपमान के अलावा कुछ नहीं होगा ?
पैलेट गन की तरह ही षीर्श न्यायालय ने अफस्पा के संदर्भ में नई व्यवस्था कायम कर दी है। इसके अनुसार जिन अशांत क्षेत्रों में सुरक्षाबलों की उग्रवादी तत्वों से मुठभेड़ होती है और उसमें यदि कोई उग्रवादी मारा जाता है तो इस मुठभेड़ की प्राथमिकी दर्ज कराना लाजिमी है। किंतु अब नरेंद्र मोदी सरकार ने अफस्पा के परिप्रेक्ष्य में अपना रुख साफ कर दिया है। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में सुधार याचिका दाखिल करके उपरोक्त आदेश को वापस लेने का निवेदन किया है। महाधिवक्ता मुकुल रोहतगी ने कहा है कि भारतीय सेना को परिस्थितियों के अनुरूप त्वरित निर्णय लेने की शक्तियां देना जरूरी है। क्योंकि सेना असामान्य परिस्थितियों में काम करती है। उसे पाकिस्तान से निर्यात आतंकियों द्वारा अचानक किए हमलों से भी दो-चार होना पड़ता है, इसलिए इन परिस्थितियों में हुई मुठभेड़ों की वैसी जांच-पड़ताल संभव नहीं है, जैसी सामान्य मौतों के बाद होती है। लिहाजा प्राथमिकी का प्रावधान अस्तित्व में बना रहता है तो आतंकवाद विरोधी कार्यवाहियां प्रभावित होंगी और सैनिकों के अतंर्मन में यह असमंजस और भय रहेगा कि उनकी गौलियों से कोई आतंकी मारा तो उनके विरुद्ध भी एफआईआर दर्ज की जा सकती है। हवन करते हाथ जलने की कहावत के चलते भला कोई सैनिक सख्ती बरतने की हिम्मत कैसे जुटा पाएगा ? साफ है सरकार का मकसद है कि सैन्य कार्यवाहियों के दौरान लोगों के हताहत होने की घटनाओं को न्यायिक प्रक्रिया के दायरे में नहीं लाया जा सकता है ? वैसे भी अफस्पा कानून संसद के दोनों सदनों से पारित अधिनियम है, जिसकी संवैधानिकता की पुश्टि स्वयं सर्वोच्च न्यायालय कर चुका है। लिहाजा मानवाधिकारों के बहाने ऐसे कानूनों में फेरबदल कतई उचित नहीं है। वैसे भी जब सेना हथियारों से लैस आतंकियों और उपद्रवियों से मुकाबला कर रही हो, तब उस पर किसी प्रकार के अंकुश लगाने की बजाय, उसे बेहिचक और बैखोफ अपनी शक्ति के इस्तेमाल की छूट देने की जरूरत है। कश्मीर में धंधेबाज पत्थरबाजों को नियंत्रित करने के लिए सेना और सुरक्षाबलों को छूट नहीं दी गई तो कलातंर में उनका आत्मबल टूट सकता है ? और आत्मबल टूटा तो वे घाटी में सक्रिय आतंकियों और पाकिस्तान परस्त अलगाववादियों से सामना करने की स्थिति में ही नहीं रह जाएंगे। लिहाजा हमारे नीति-नियंताओं और फारूख व ऊमर अब्दुल्ला जैसे नेताओं को आंखे खोलकर विषम स्थिति को समझने की जरूरत है ?
प्रमोद भार्गव