सेंसर,बाबा और सियासत

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ram rahimजावेद अनीस

धर्म, राजनीति और पैसे की तिकड़ी के खेल बड़ी तेजी से फलफूल रहा है, वैसे तो एक निराश, शोषित,परेशान और बिखरे समाज में बाबाओं का उभार कोई हैरानी की बात नहीं है लेकिन परेशानी तब पैदा होती है जब ये तथाकथित बाबा लोग बेलगाम हो जाते हैं और कुछ तो अपने आपको ईश्वर समझकर हर मामले में छूट पाना चाहते है और कानून व्यवस्था को भी अपना बंधक बनाने से गुरेज नहीं करते, पिछले चंद सालों की ही बात करें तो इस मामले में आशाराम, रामपाल, कृपालु महाराज, निर्मल बाबा जैसे बाबाओं ने काफी सुर्खियाँ बटोरी हैं। सियासत को भी बाबा लोग खासे पसंद आते हैं और हों भी क्यों ना आखिर यह लोग एकमुश्त वोट बैंक उपलब्ध कराने की कुव्वत जो रखते हैं। लोकतंत्र में बाबा लोग सत्ता का और सत्ता बाबाओं का बखूबी इस्तेमाल कर रही है।

चर्चित बाबा “गुरमीत राम रहीम इंसान” एक बार फिर सुर्खियाँ बटोर रहे हैं, इस बार मामला उनकी विवादित फिल्म “द मैसेंजर ऑफ गॉड” से जुड़ा हुआ है। इस फिल्म को सरकारी मंजूरी मिलने के विरोध में पहले सेंसर बोर्ड प्रमुख लीला सैमसन और बाद में आठ सदस्यों ने बगावत करते हुए इस्तीफ़ा दे दिया है। लीला सैमसन का कहना था कि उन्होंने इस्तीफा सरकार की बढ़ती दखलअंदाजी के चलते दिया था। हालांकि पूर्व भारतीय निशानेबाज और वर्तमान सूचना प्रसारण राज्यमंत्री राज्यवर्धन राठौड़ ने दखलअंदाजी के आरोपों को खारिज करते हुए सबूत की मांग कर डाली है।

दरअसल सभी बोर्ड सदस्यों ने एमएसजी देखकर इसे रिलीज के लिए मंजूर न करने का फैसला किया था। इसके बावजूद 2 लोगों के ट्राइब्यूनल द्वारा इस फिल्म को मात्र 24 घंटे में हरी झंडी दे दी गयी, जबकि आमतौर पर इस पूरी प्रक्रिया में एक महीने का समय लगता है। उल्लेखनीय है कि सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष और सदस्यों का कार्यकाल पूरा हो चुका था। नई सरकार द्वार नये बोर्ड और अध्यक्ष नियुक्त करने तक इन्हें काम करते रहने को कहा गया था। गौरतलब है कि लीला सैमसन ने अपना इस्तीफ़ा देते हुए यह आरोप भी लगाया है कि एक अतिरिक्त प्रभार वाले सीईओ के जरिए मंत्रालय द्वारा सीबीएफसी के कामकाज में हस्तक्षेप किया जा रहा था, ऐसे में सूचना प्रसारण राज्यमंत्री राज्यवर्धन राठौड़ द्वारा और सबूत की मांग करना पूरे प्रकरण से सरकार का दामन बचाने का प्रयास ज्यादा लगता है। सरकार का अपना यह बचाव इसलिए भी नाकाफी साबित हो रहा है क्योंकि एक साथ पूरे सेंसर बोर्ड का इस्तीफा बहुत मायने रखता है और इस पूरे प्रकरण से ऐसा प्रतीत होता है कि कहीं न कही पुराने सरकार द्वारा नियुक्ति किये गये सदस्यों पर नयी सरकार का दबाव था।

बताया जा रहा है कि इस फिल्म में डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख को भगवान बताया है। सेंसर बोर्ड का भी कहना था कि फिल्म विज्ञापन ज्यादा लग रही है। इसे अंध विश्वास को बढ़ावा देने वाला बताया था और यह भी पाया था कि फिल्म में दूसरे धर्म के लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाले दृश्य और संवाद हैं। पंजाब सरकार ने पहले ही इस आधार पर इस फिल्म पर रोक लगा दी थी कि इससे धार्मिक तनाव पैदा हो सकता है।

विवादों से बाबा राम रहीम का पुराना नाता रहा है, उन पर सिखों की धार्मिक भावना भड़काने के आरोप लगते ही रहे है साथ ही साथ उन पर डेरा की शिष्याओं से बलात्कार तक के आरोप भी लगे हैं। उन पर अपने खिलाफ अखबार में खबर छापने वाले व्यक्ति की हत्या कराने का भी आरोप लग चूका है। हत्या, बलात्कार और जबरन नसबंदी कराने के केस के अलावा बाबा राम रहीम पर गांव के किसानों की जमीन हथियाने का भी आरोप लगे हैं, लेकिन अपने रसूख और राजनीतिक उपयोगिता के चलते सब कुछ बेअसर साबित हुआ है। सारे आरोपों और आलोचनाओं से बेफिक्र डेरा सच्चा सौदा के इस बाबा का कहना है कि “हम तो एक फकीर हैं। सबका भला करना हमारा काम है।” हालांकि खुद को फ़कीर कहने वाला यह अध्यात्मिक गुरु महंगे पहनावे,रहन सहन का शौक फरमाते हैं और सुपर लग्जरी कारों के काफिले में चलते हैं।

 

इस पूरे विवाद के मूल में सेंसर बोर्ड की पूर्ण स्वायत्तता है। वैसे कहने को तो सेंसर बोर्ड एक स्वतंत्र इकाई है और उसे उसी तरह बर्ताव करना चाहिए लेकिन यह कहना मुश्किल है कि ऐसा वास्तविक रूप से हो पाया हो। यह मामला सिर्फ सेंसर बोर्ड तक सीमित नहीं है इसी तरह के दूसरे तथाकथित स्वायत्त संस्थानों/आयोगों में भी यही अनुभव सामने आ रहे है, इनके स्वायत्तता में सबसे बड़ा रोड़ा इनमें राजनीतिक नियुक्ति को लेकर ही सामने आता है।

 

दूसरी तरफ नयी सरकार की कार्यशैली ऐसी है जिसमें स्वायत्तता का ध्यान नहीं रखा जा रहा है और कहीं ना कहीं लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली कमजोर हो रही है। मंत्रालयों तक में सारे फैसले पीएम ऑफ़िस के “निर्देश” के अनुसार किये जा रहे हैं। “द मैसेंजर ऑफ गॉड” के मामले में भी यही रवैया देखने में आया है जहाँ सेंसरबोर्ड में पास हुए बिना ही ट्रिब्यूनल द्वारा आनन-फानन में इस फिल्म को दिखाने की अनुमति दे दी गयी है।

 

दिलचस्प रूप से इस प्रकरण के कुछ दिनों पहले ही फिल्‍म ‘पीके’ को लेकर भी विवाद हुआ था, ‘पीके’ में बाबाओं और धर्म के नाम पर तिजारत चलाने वालों की पोल खोली गयी थी, इसका सरकार में बैठे लोगों से जुड़े संगठनों ने खासा विरोध किया था, बाबा राम रहीम को भी यह फिल्म पसंद नहीं आई थी। हालांकि सेंसर बोर्ड ने इस फिल्‍म में कुछ भी आपतिजनक नहीं पाया था।

anisjaved@gmail.com

जनवरी 2015

 

1 COMMENT

  1. आखिर इन बाबाओं को बनाया किसने?आम जनता ने हिय़दि इनके समागमों में कोई जाना ही बंद करदे तो इनकी इतनी हिम्मत कैसे हो?हालत तो यह है की आपने जिनका उल्लेख किया है उनके चले अभी भी आँख मूंदकर उनका गुणगान कर रहे हैं. न केजरीवाल न किरण न माकन कोई अपनी सभा मैं इनका उल्लेख या इनकी इनके बारे मैं कोई टिप्पणी करने की हिम्मत नहीं कर सकता। यदि राजनीतिक और धार्मिक विशिष्ट व्यक्ति आम आदमी के हित में अपने भाषण और प्रवचनों मैं थोड़ा सा भी उल्लेख करे तो आम जनता पर असर पड़ेगा. किन्तु ये बाबा अंततः इन राजनीतिक दलों का वोट पोषण करते हैं. आपके द्वारा उल्लेखित दो बाबा इतने वर्षों तक किसका वोट पोषण करते थे सभी को ज्ञात है. यह बीमारी इन्ही दलो की पैदा की हुई है.

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