यौन उत्पीड़न का मकड़जाल

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-सतीश सिंह

जब रक्षक ही अपने महिला सहकर्मियों का यौन शोषण करें तो आम महिला की हालत क्या होगी इसका आप सहज अंदाजा लगा सकते हैं। दिल्ली के पुलिसवालों पर भ्रष्टाचार के आरोप तो लगते ही रहते हैं, लेकिन अपने महिला सहकर्मियों के साथ यौन उत्पीड़न की बात का खुलासा हाल ही में सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई सूचना के अंतगर्त हुआ।

इस संबंध में सबसे अफसोसजनक बात यह है कि विगत दस सालों में दिल्ली पुलिस के कई महकमों में महिला सहकर्मियों का लगातार यौन शोषण होने के बावजूद भी थाना में एक भी मामला दर्ज नहीं हुआ है। इंदिरा गांधी एअरपोर्ट पुलिस शाखा, लाईसेंसिंग पुलिस प्रषिक्षण केन्द्र; झरोदा कलां, दंगा निरोधी शाखा, सातवीं व ग्यारहवीं बटालियन, राष्ट्रपति भवन में तैनात पुलिस बल, स्पेषल ब्रांच, पुलिस रिक्रूटमेंट सेल, ट्रैफिक पुलिस, पुलिस संचार इकाई इत्यादि विभागों से सूचना के अधिकार के तहत जानकारी मांगी गई थी।

ज्ञातव्य है कि दिल्ली पुलिस नियंत्रण कक्ष के एक एएसआई को महिला सहकर्मी का यौन उत्पीड़न करने के कारण हवलदार बना दिया गया है। सतर्कता विभाग के एक एएसआई श्री राकेश कुमार के खिलाफ अभी भी विभागीय जाँच चल रहा है। मुखर्जी नगर थाने के सिपाही भरत रतन के विरुद्व भी इसी तरह के आरोप हैं।

दिल्ली पुलिस का दामन इस तरह के आरोपियों से दागदार है। महिलाओं की सुरक्षा का दंभ भरने वाली दिल्ली पुलिस के ऐसे हालत की वजह से ही आम महिला दिल्ली में सुरक्षित नहीं है। 26 अगस्त को दिल्ली के कालकाजी इलाके में एक छात्रा को उसके एक परिचित ने उसे स्कूल से लाने के दौरान मौका पाकर उसके साथ बलात्कार किया। आरोपी रामचंद्र की उम्र 45 साल बताई जाती है। वह शादी-शुदा है और उसके दो बच्चे हैं।

इस मर्ज के बरक्स में यह बताना जरुरी है कि दिल्ली में 30 जून 2010 तक बलात्कार के कुल 277 मामले दर्ज किये गए हैं। वहीं 2009 में 15 दिसम्बर तक बलात्कार के 452 मामले दर्ज किये गए थे। उल्लेखनीय है कि इन मामलों में 212 आरोपी पड़ोसी थे, 64 दोस्त, 35 रिश्‍तेदार, 19 सहकर्मी, 110 अन्य तरह के जानकार या परिचित और मात्र 12 ही अनजान थे। इन आंकड़ों से साफ हो जाता है कि हमारे घर की बहू-बेटी को सबसे ज्यादा खतरा जानकारों और रिश्‍तेदारों से ही है। आस्तीन में जब सांप पल रहा हो तो इंसान का धोखा खाना लाजिमी है।

ऐसे प्रतिकूल स्थिति में यौन उत्पीड़न से संबंधित विधेयक को पारित करना बहुत जरुरी है। इस विधेयक के पारित होने से कुछ हद तक यौन उत्पीड़न के मामलों में अवश्‍य कमी आ सकती है। वैसे यौन उत्पीड़न से संबंधित विधेयक चल रहे मानसून सत्र में पारित हो सकता है। मानसून सत्र में पारित किये जाने वाले विधेयकों की सूची में इसका भी नाम है।

विधेयक के पारित होने के बाद महिलाओं पर होने वाले यौन उत्पीड़न के मामलों में किस तरह के बदलाव आयेंगे यह देखने वाली बात होगी, पर इतना तो सच है कि महिला के खिलाफ यौन उत्पीड़न का मामला सीधे तौर पर उसके मौलिक अधिकारों के हनन का मामला है, क्योंकि हमारे संविधान ने हर नागरिक को चाहे वह महिला हो या पुरुष एक समान अधिकार दिये हैं।

उल्लेखनीय है कि सरकार ने 2007 में ‘प्रोटेक्षन ऑफ वुमेन अंगेस्ट सेक्सुअल हरासमेंट इन द वर्कप्लेस बिल’ का मसौदा तैयार किया था। इस बिल को तैयार करने में विषाखा एवं अन्य बनाम राजस्थान सरकार जोकि 1997 के भंवरी देवी केस से जुड़ा हुआ था के आलोक में सर्वोच्च न्यायलय द्वारा दिये गए फैसले के आधार पर तैयार किया गया था। भंवरी देवी के साथ गुर्जर समाज के दबंग लोगों ने सामूहिक बलात्कार किया था। उसका दोष इतना ही था कि उसने बाल विवाह का खुलकर विरोध किया था। बलात्कार का यह मामला दब नहीं पाया और कुछ सामाजिक संगठनों और महिला कार्यकर्ताओं ने इस मामले को न्यायालय तक ले जाने की जहमत उठायी।

यौन उत्पीड़न से संबंधित विधेयक के अलावा भी सर्वोच्च न्यायलय समय-समय पर इस मुद्दे पर हिदायत देता रहा है। हाल ही में इस तरह के अपने एक निर्णय में सर्वोच्च न्यायलय ने निजी क्षेत्र की कंपनियों को यौन उत्पीड़न के खिलाफ कड़े कदम उठाने के लिए कहा था। समस्याओं से निपटने के लिए उन्हें समितियों के माध्यम से काम करने की सलाह दी गई थी। टाटा स्टील, एचडीएफसी, विप्रो इत्यादि निजी क्षेत्र के उपक्रमों ने इसके लिए रोडमैप भी तैयार किया था। बावजूद इसके नतीजा निकला वही ढाक के तीन पात। यौन उत्पीड़न के मामलों में वहाँ कमी आने के बजाए दिन प्रति दिन उसमें इजाफा हो रहा है।

सच कहा जाए तो यौन उत्पीड़न से संबंधित विधेयक में इतनी ज्यादा खामियाँ हैं कि उसके पास हो जाने के बाद भी यौन उत्पीड़न के मामलों में कोई खास कमी नहीं आएगी। आज यौन उत्पीड़न की घटनाएं घर, स्कूल-कॉलेज, कार्यस्थल से लेकर सार्वजनिक स्थलों तक में घट रही हैं।

धीरे-धीरे यौन उत्पीड़न के तरीकों में भी बदलाव आ रहा है। आजकल दोस्त, सहकर्मी, बॉस, रिश्‍तेदार इत्यादि अपनी पहचान छुपाकर यौन उत्पीड़न का कार्य करते हैं। इसका सबसे आसान माध्यम है-ई मेल और सोशल नेटवर्किंग। अधतन तकनीक के सहारे अक्सर पुरुष अपने परिचित महिलाओं की तस्वीर को मर्ॉफ्ड करके सोशल नेटवर्किंग साइट पर डाल देते हैं, जिसके कारण महिला का जीना मुहाल हो जाता है। इस तरह की हरकत हताष प्रेमी या मानसिक रुप से बीमार पुरुष करते हैं। मनौवैज्ञानिकों का मानना है कि इस तरह के लोगों को अपनी इन करतूतों से मानसिक शांति मिलती है।

इसका एक महत्वपूर्ण कारण आईटी कानून का कमजोर होना भी है। साइबर कानून में सिर्फ अश्‍लील सूचनाओं को प्रकाशित करने की स्थिति में ही दोषियों को सजा देने का प्रावधान है, लेकिन किसी के चेहरे में नग्न शरीर को जोड़ने के लिए किसी तरह की सजा नहीं दी जा सकती है। यधपि 2008 में साइबर कानून में संशोधन किया गया था, पर वह संशोधन इस तरह के अपराधों पर लागू नहीं होता है। इस कानून की सबसे बड़ी खामी है, इस अपराध का जमानत योग्य होना। इस वजह से ऑनलाईन उत्पीड़न के मामलों में दोषी आसानी से बरी हो जाता है।

दिलचस्प बात यह है कि अब पुरुष भी यौन उत्पीड़न के शिकार हो रहे हैं। पुरुष कर्मचारी आमतौर पर इस तरह के मामलों को सार्वजनिक करने से डरते हैं। उनको लगता है कि उनकी बात पर कोई यकीन नहीं करेगा, क्योंकि भारत की सामाजिक मान्यता इसके खिलाफ है।

इस मुद्दे से जुड़ी हुई सबसे बड़ी कमी है अधिकांष लोगों का यौन शोषण की परिभाषा से अवगत नहीं होना। आमतौर पर लोग यौन उत्पीड़न का मतलब संभोग समझते हैं। अश्‍लील टिप्पणी, अश्‍लील हरकत, पोर्नोग्राफी दिखाने जैसे मामले आसानी से साबित नहीं हो पाते हैं। जबकि व्यापकता में देखा जाए तो यौन उत्पीड़न का दायरा बहुत ही बड़ा है।

यौन दुर्व्‍यवहार आज एक आम बात है। फिर भी यौन उत्पीड़न की शिकायत बहुत कम पुलिस तक पहुँच पाती है। इसका कारण चाहे रिश्‍तों को बचाने की जद्दोजहद हो या नौकरी बचाने की या फिर करियर ग्रोथ की, पर इसकी बहुत बड़ी कीमत संबंधित महिला को चुकानी पड़ती है।

भारतीय जीवन शैली में तेजी से बदलाव आ रहा है। पुराने रीति-रिवाज और मान्यताएं अब टूट रहे हैं। जब एक गांव का आदमी कास्मो कल्चर में प्रवेश करता है तो उसके स्थापित सिद्धांतों को बिखरने में ज्यादा वक्त नहीं लगता है।

बदलते परिवेश में सांस्कृतिक पहूल गौण हो गया है। साथ ही आर्थिक उदारवाद के चक्रव्यूह में भौतिकवाद की संकल्पना भी मजबूत हुई है। इसके लिए हम पश्चिमी देशों को दोष नहीं दे सकते हैं, क्योंकि वहाँ सेक्स के मामले में खुलापन होने के बाद भी यौन शोषण के मामले घटित होते हैं।

यौन उत्पीड़न को रोकने के लिए अमेरिका में 1964 का फेडरल कानून सिविल राइट्स है। ब्रिटेन में सेक्स डिस्क्रिमिनेशन से संबंधित 1975 के एक्ट में 2008 में संशोधन किया गया है। जापान को भी पुरुष-महिला समान अवसर कानून में 1999 में संशोधन करना पड़ा था। ऑस्ट्रेलिया में सेक्स डिस्क्रिमिनेशन एक्ट 1984 में बनाया गया। इतना ही नहीं साम्यवादी चीन में भी 2005 में महिला अधिकार और हित संरक्षण कानून में संशोधन किया गया।

लबोलुबाव के रुप में कह सकते हैं कि आज कोई भी देष यौन उत्पीड़न के मामलों को पूरी तरह से खत्म नहीं कर सका है। इसे आवश्‍यक बुराई की संज्ञा दी जा सकती है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि यौन उत्पीड़न की घटनाओं में कमी नहीं लाया जा सकता है।

राजनीतिक इच्छाशक्ति के जरिए इस मामले में सकारात्मक परिणाम लाये जा सकते हैं। महिलाओं में जागरुकता का होना इस बुराई को कम करने के लिए आवश्‍यक है। यौन उत्पीड़न विधेयक में कड़े और प्रभावी प्रावधानों के समावेश के साथ ही साथ उसे ईमानदारी के साथ अमलीजामा पहनाना भी जरुरी है। वैसे हमारी सभ्यता और संस्कृति के निहितार्थ हमें इस मामले में सही दिशा दिखा सकते हैं।

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