शासनिक रीति-नीति में विवेक-संवेदना का पुनर्जन्म

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                                       मनोज ज्वाला
       हमारे देश में लोकतंत्र की जडें अब काफी गहरी हो चुकी हैं और इसकी
शिखाओं की धार काफी पैनी । इतनी गहरी कि बगैर नागा किए प्रायः प्रत्येक
पांच साल पर या आवश्यकतानुसार मध्यावधि में भी चुनाव होते रहे हैं और
चन्द महीनों के एक अपवाद को छोड कर कभी भी कोई सरकार अलोकतान्त्रिक या
निरंकुश नहीं हुई है । इसकी धार भी इतनी पैनी है कि इससे कभी
कांग्रेस-नेतृत्व द्वारा ‘आपात-स्थिति’ के नाम पर थोपी गई तानाशाही का
महज कुछ ही महीनों में सर-कलम  हो गया , तो  कभी संसद में महज एक मत कम
पाने वाले नेता की सरकार को धराशायी हो जाना पडा । किन्तु दुनिया के इस
सबसे बडे लोकतन्त्र की जडों के तेजी से गहराने और इसकी शिखाओं की धार में
तेज पैनापन आने के साथ-साथ इस तन्त्र से संचालित भारतीय राजनीति में
कतिपय विसंगतियां भी उतनी ही तेजी से घर करती रहीं , जबकि राष्ट्रीय
हितों के प्रति विवेकशीलता व निरीह-निर्दोष जनता के प्रति संवेदनशीलता भी
कुन्द होती रही । इस तन्त्र के आरम्भ से ही सत्तारूढ कांग्रेस और उसके
बाद कांग्रेसजनित अन्य राजनीतिक दलों के नेताओं द्वारा ‘वोट बैंक’
बनाने-हथियाने और इस हेतु साम्प्रदायिक तुष्टिकरण व जातीय आरक्षण को
खाद-पानी देते रहने के साथ-साथ सही-गलत व न्याय-अन्याय का विचार किए बिना
या विचारपूर्वक ही उचित को अनुचित व अनुचित को उचित करार देते रहने के
कारण राजनीति विवेक-शून्य व संवेदनाहीन होती रही ।
         मुसलमानों का वोट बैंक बनाने-हथियाने के लिए धर्मनिरपेक्षता की
आड में सनातन धर्म का मूलोच्छेदन व हिन्दू-समाज का मानमर्दन करते हुए
राष्ट्रीय एकता-अखण्डता व सुरक्षा की कीमत पर भी मुस्लिम-तुष्टिकरण का
पोषण करने और इस हेतु जिहादी हिंसा, आतंक व अलगाव जैसी राष्ट्रद्रोही
प्रवृतियों-गतिविधियों का समर्थन करते हुए जालीदार टोपी पहन कर मुस्लिम
ही बन जाने की चेष्टायुक्त अविवेकपूर्ण अनीति यहां की राजनीति में घुस कर
चुनावी कूटनीति का ऐसा अंग बन गई कि उसके समक्ष राजनीतिक विवेक तो अपंग
ही होता गया । हद तो तब हो गई , जब इस्लामी जिहादी आतंक पर आवरण डालने के
लिए कांग्रेसी सरकार के नीति-नियन्ताओं द्वारा  हिन्दू-समाज को आतंकी
सिद्ध करने के लिए ‘भगवा आतंक’ नामक षड्यंत्र रच कर उसे प्रचारित करते
हुए साधुओं-साध्वियों को प्रताडित किया जाने लगा । इतना ही नहीं , विगत
कांग्रेसी सरकार द्वारा हिन्दू-समाज को दंगाकारी मान दण्डित-प्रताडित
करने तथा इसे गैर-हिन्दू मजहबी समाजों के अधीन कर देने की साजिश के तहत
‘साम्प्रदायिक व लक्षित हिंसा-रोधी विधेयक’ तैयार कर उसे कानून का रुप
दिया जाने लगा और बंगलादेशी-पाकिस्तानी आतंकी मुसलमानों को भारतीय
नागरिकता दिए जाते रहने के बावजूद पाकिस्तान-पीडित हिन्दुओं को यह
नागरिकता देने से इंकार किया जाता रहा , तो इतने से ही आप दुनिया के सबसे
बडे लोकतान्त्रिक देश की राजनीति में आयी विवेकहीनता व संवेदनहीनता की
पराकाष्ठा का अंदाजा लगा सकते हैं । जबकि, महज वोट हासिल करते रहने हेतु
‘सामाजिक न्याय’ के नाम पर कतिपय जाति-विशेष के धन-बल-सत्ता-सम्पन्न व
प्रतिभाहीन लोगों को भी आर्थिक अवलम्बन एवं कानून से ले कर रोजगार तक हर
क्षेत्र में आरक्षण देते रहने , किन्तु सामान्य जाति की अक्षम-असहाय व
जरुरतमंद प्रतिभाओं को विकास के अवसरों से भी कानूनन वंचित किये रखने की
अविवेकपूर्ण संवेदनाहीन अनीति ‘कोढ में खाज’ की तरह समस्त राजनीति को इस
कदर दूषित करती रही कि आम-जनमानस में भी घोर निराशा व्याप्त हो गई ।
लोकतन्त्र की जडें गहरी होने के बावजूद सत्ता-लोलुप नेताओं की वोट-लिप्सा
के कारण बेपटरी हुई राजनीति फिर कब और कैसे पटरी पर आएगी, ये सवाल सबको
व्यथित करते रहे । ‘बिल्ली के गले में घण्टी’ बंधे कैसे और बांधे कौन ?
वोट-बैंक जब सबको प्यारा है, तब साम्प्रदायिक तुष्टिकरण और जातीय आरक्षण
पर चोट करे तो कौन ?  लिहाजा राजनीति ऐसे ही चलती रही । विवेक मरता रहा ,
संवेदना जाती रही । किन्तु ऐसी अवांछित स्थिति में भी भारतीय राष्ट्रीय
चेतना सदैव सक्रिय रही ।
          उल्लेखनीय है कि भारत की राष्ट्रीय चेतना सनातन धर्म से निःसृत
और इसकी  आध्यात्मिकता में सन्निहित है , जो कभी सुषुप्त रहती है तो कभी
जागृत हो उठती है , किन्तु सक्रिय सदैव रहती है- सुषुप्ति में भी और
जागृति में भी  । यह जब सुषुप्तावस्था में होती है तब मजहबी
आक्रमण-धर्मान्तरण को भी सहिष्णुतापूर्वक सह लेती है, किन्तु जब
जाग्रतावस्था में आती है तब गुरु तेगबहादुर से ले कर गुरु गोविन्द सिंह
तक और बन्दा बैरागी से ले कर छत्रपति शिवाजी तक उत्सर्ग व उत्त्कर्ष की
ऐसी परम्परा व श्रूंखला विकसित कर देती है कि मुगल साम्राज्य की इमारतें
ढह जाती हैं । वह जागृति थोडी और उभरती है , तब १८५७ का संग्राम घटित हो
जाता है । इस राष्ट्रीय चेतना की जागृति का उभार जब और बढता है , तब ऋषि
दयानन्द सरस्वती वेद-शास्त्र को शस्त्र बना कर उसके माध्यम से ईसाइयत व
इस्लाम की विस्तारवादी आंधी को तार-तार करते हुए
स्वतंत्रता-सेनानियों-बलिदानियों की फौज खडी कर देते हैं , तो रामकृष्ण
परमहंस की प्रज्ञा विवेकानन्द के रुप में उपनिवेशवदी ईसाइयत के गढ
(अमेरिका-युरोप) में घुस कर उसे चुनौती दे डालती है । महर्षि अरविन्द
सरीखे योगियों के तप के ताप व मदनमोहन मालवीय जैसे सत्पुरुषों के
आदर्शवाद से स्वतंत्रता-आन्दोलन तपने लगता है , तो सुभाष चन्द्र बोस की
राष्ट्रीय फौज ब्रिटिश साम्राज्य को घेर कर उसे भारत छोड ब्रिटेन लौट
जाने को विवश कर देती है ।  भारतीय राष्ट्रीय चेतना की यह सक्रियता ही
भारत राष्ट्र की सनातनता का कारण है, जिसका स्वरुप स्थूल नहीं , सूक्ष्म
है और इसके संवाहक राजनीति के नेता नहीं , बल्कि अध्यात्म के तत्ववेता
रहे हैं, जो कालान्तर से एक के बाद एक मोर्चा सम्हालते रहते हैं । अर्थात
राष्ट्रीय चेतना की यज्ञाग्नि कभी बुझती नहीं है यहां, बल्कि यजमान व
पुरोहित मात्र बदलते रहते हैं और समिधायें घटती-बढती रहती हैं ।
विवेकानन्द ने ठीक ही कहा है कि युरोप-अमेरिका में हर परिवर्तन के पीछे
राजनीति सक्रिय होती है , किन्तु भारत में अध्यात्म आगे चलता है और
परिवर्तन उसके पीछे घटित होता है । अर्थात अध्यात्म के दूरदर्शी प्रकाश
से प्रशस्त मार्ग पर परिवर्तन का चमत्कार होता है । महर्षि अरविन्द ने
अध्यात्म की अपनी दिव्य-दृष्टि से भारत की भवितव्यता का अवलोकन कर सन
१९४७ में ही यह घोषित किया हुआ था कि “२१वीं सदी में भारत के भाग्य का
सूर्योदय होगा, विभाजन मिट जाएगा और अखण्ड भारत सारी दुनिया का नेतृत्व
करेगा” । योगी अरविन्द की ही तरह एक सूक्ष्म आध्यात्मिक निर्देशानुसार
स्वतंत्रता-आन्दोलन से विमुख हो कर राष्ट्र की सोयी हुए चेतना को जागृत
करने तथा तमाम प्रकार की दुष्प्रवृतियों के उन्मूलन व सत्प्रवृतियों के
संवर्द्धन एवं मरती जा रही विवेकशीलता व लोकसंवेदना के पुनर्जागरण और
विचार-क्रांति व युग-परिवर्तन के निमित्त कठोर गायत्री-साधना कर देश भर
में नवसृजन का आध्यात्मिक सरंजाम खडा कर देने वाले युग-ऋषि श्रीराम शर्मा
आचार्य ने इस तथ्य  के सत्य होने का जो दावा किया है सो ध्यातव्य है ।
विचार-परिवर्तन के निमित्त पिछली सदी में सर्वाधिक साहित्य लिखने वाले
युग-ऋषि आचर्य श्रीराम शर्मा द्वारा दसकों पूर्व यह दावा किया जा चुका है
कि “२१वीं सदी में परिवर्तन की ऐसी आंधी चलेगी कि अनीति व अविवेक से
युक्त समस्त मान्यतायें-स्थापनायें ध्वस्त हो जाएंगी और हर क्षेत्र में
विवेक व संवेदना की पुनर्स्थापना होगी” । इतना ही नहीं उन्होंने परिवर्तन
का समय भी रेखांकित करते हुए लिखा है- “सन २०११ से परिवर्तन दृष्टिगोचर
होने लगेगा” ।
           उपरोक्त दोनों ऋषियों की उक्त घोषणाओं के परिप्रेक्ष्य में
अपने देश के वर्तमान राजनीतिक हालातों व जन-जन में अनायास ही व्याप्त
राष्ट्र-भक्ति की भावनाओं तथा वैश्विक मंचों पर भारत की नित नयी-नयी
कामयाबियों एवं धूल चाटने को विवश अनुचित-अवांछित मान्यताओं-नेताओं की
दशा और कतिपय शासनिक निर्णयों की दिशा पर गौर करने से ऐसा प्रतीत होता है
कि जन-सामान्य व नेतृत्व वर्ग में मर चुकी विवेकशीलता सचमुच ही अब पुनः
जागृत हो रही है । वर्षो पुराने जातीय आधार से उलट अभी हाल में केन्द्र
की भाजपा-सरकार द्वारा आर्थिक आधार पर किसी भी वंचित-वांछित जरुरतमंद को
आरक्षण देने और पाकिस्तान-बंगलादेश के पीडित-प्रताडित हिन्दुओं को भारत
की नागरिकता सहज ही प्रदान करने सम्बन्धी कानून  के जो नये-नये प्रावधान
किये गए हैं , सो कोई सामान्य घोषणा मात्र नहीं है , बल्कि सूक्ष्म
राष्ट्रीय चेतना के लोक-प्रकटीकरण से सन २०१४ में हुए सत्ता-परिवर्तन के
पश्चात राजनीति में विवेक व संवेदना के पुनर्जन्म की परिघटना है, जिसके
दूरगामी निहितार्थ हैं ।
•       मओज ज्वाला 

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