पंचतत्व और खानपान

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विजय कुमार

सबसे पहले मैं ये स्पष्ट कर दूं कि मैं कोई चिकित्सक या खानपान विशेषज्ञ नहीं हूं। किस व्यक्ति को क्या खाना चाहिए और क्या नहीं, इस बारे में भी मेरा कुछ अध्ययन नहीं है; पर भोजन और पंचतत्व के संबंध में बुजुर्गों से सुनी हुई कुछ बातें सबमें बांटना चाहता हूं।

पंचतत्व अर्थात पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश। हमें अपने खानपान में प्रतिदिन इन पांचों तत्वों का भी सेवन करना चाहिए। ऐसा होने पर हम अधिकाधिक स्वस्थ व सक्रिय रह सकेंगे। इसके साथ ही हमारा यह कर्तव्य भी है कि हम भावी पीढ़ियों के लिए ये तत्व शुद्ध अवस्था और पर्याप्त मात्रा में छोड़ कर जाएं।

वायु – सांस के माध्यम से हर प्राणी वायु ग्रहण करता है। बाकी तत्व कुछ समय या कुछ दिन के लिए छोड़ सकते हैं; पर वायु को नहीं। जो लोग अनशन या उपवास करते हैं, वे भी अन्न, फल, सब्जी या जल आदि छोड़ देते हैं; पर वायुसेवन नहीं। एक समय आहार लेने वाले संन्यासी भी वायुसेवन तो प्रतिक्षण करते ही हैं। अर्थात पंचतत्व में से वायु प्राणियों के लिए सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता है।

यह वायु सबको शुद्ध एवं प्राकृतिक रूप में पर्याप्त मात्रा में मिले, यह भी आवश्यक है। जो लोग बड़े शहरों में या उद्योगों के पास रहते हैं, उन्हें शुद्ध वायु नहीं मिल पाती। इसीलिए इन दिनों नये-नये रोग लगातार बढ़ रहे हैं। अब तो बड़े नगरों में ऑक्सीजन के बूथ खुलने लगे हैं, जहां पैसे देकर व्यक्ति दस-पन्द्रह मिनट शुद्ध प्राणवायु ले सकता है। जैसे आजकल हर व्यक्ति अपने साथ साफ पानी की बोतल रखने लगा है, लगता है कुछ समय बाद लोग प्राणवायु के छोटे सिलेंडर भी साथ लेकर चला करेंगे।

ताजा और शुद्ध प्राणवायु प्राप्त करने की निःशुल्क विधि प्रातःकालीन भ्रमण है। सूर्योदय होने पर पेड़ों द्वारा रात में उत्सर्जित कार्बन डायआक्साइड वायुमंडल में चली जाती है। ऐसे शीतल और शांत वातावरण में अकेले या सपरिवार घूमना तथा कुछ आसन, व्यायाम और प्राणायाम आदि करना बहुत लाभदायक है।

सुबह की ही तरह शाम का भ्रमण भी बहुत लाभकारी है। इन दोनों समय पर दिन और रात का मिलन होता है। इसके सदुपयोग से हम अपने शरीर तथा मन को स्वस्थ रख सकते हैं। बच्चों और युवाओं को तो शाम के समय पढ़ने की बजाय खेलना ही चाहिए।

जहां तक वायुमंडल के प्रदूषण की बात है, कुछ सरकारी तथा सामाजिक संस्थाएं इसकी वृद्धि तथा उनसे हो रही हानि के बारे में बताती रहती हैं। महानगरों में अनेक चौराहों पर ऐसे यंत्र लगा दिये गये हैं, जो हर समय प्रदूषण मापते रहते हैं। पैट्रोल और डीजल वाले वाहन सबसे अधिक प्रदूषण फैलाते हैं; पर आधुनिक भागदौड़ वाले जीवन में इनके बिना काम भी नहीं चलता। इनका होना ‘स्टेट्स सिम्बल’ भी बन गया है। जिसके पास जितनी अधिक और महंगी गाड़ियां, वह उतना ही बड़ा व्यक्ति माना जाता है।

अब सड़क पर साइकिल की बजाय मोटरसाइकिल या स्कूटर लिये युवा ही अधिक दिखाई देती हैं। घर, कार्यालय और बाजार से लेकर विद्यालय और तरह-तरह की कोचिंग का ऐसा दुष्चक्र चला है कि हर कोई सुबह से शाम अपने वाहन पर भाग रहा है। इस कारण जहां वायु प्रदूषित हो रही है, वहां सड़क दुर्घटनाएं भी बढ़ रही हैं।

चाहे कोई स्वयं वाहन न चलाता हो, पर प्रदूषित वायु सेवन करना तो उसकी भी मजबूरी ही है। इसलिए जहां सार्वजनिक यातायात व्यवस्था का बहुत अच्छा होना जरूरी है, वहां दस-बीस कदम जाने के लिए वाहन निकालने की आदत भी छोड़नी होगी। पेड़ों को कटने से बचाकर तथा परिवार के हर सदस्य के नाम पर एक पेड़ लगाकर हम प्रदूषण नियन्त्रण में सहयोग दे सकते हैं।

जल – वायु की ही तरह जल भी व्यक्ति की प्राथमिक आवश्यकता है। किसी समय ‘बहता पानी निर्मला’ कहकर नदियों का जल सर्वाधिक शुद्ध माना जाता था; पर अब नगरों के सीवर, कारखानों के अपशिष्ट, समय-समय उसमें विसर्जित की जाने वाली रासायनिक रंगों से पुती मूर्तियों तथा अन्य कूड़े करकट के कारण नदियां आचमन योग्य भी नहीं रह गयी हैं। अब तो सब जगह कुछ घंटों के लिए सरकारी पानी मिलता है। वह कितना शुद्ध होता है, कहना कठिन है।

भरपूर पानी के लिए निजी बोरिंग कराने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है। साफ पानी के लिए लग रहे फिल्टरों से एक लीटर पानी साफ होने के चक्कर में चार लीटर पानी नाली में बह जाता है। शहरीकरण का अर्थ ही है, बिजली और पानी का अत्यधिक प्रयोग। अतः जल का स्तर लगातार नीचे जा रहा है।

विद्वानों का मत है कि अगला विश्व युद्ध जल के कारण होगा। इसका सत्य तो भविष्य बताएगा; लेकिन नलों पर हर दिन डिब्बे और कनस्तर लिये लोगों को झगड़ते हुए कोई भी देख सकता है। मंगल आदि ग्रहों पर जाने वाले यान भी वहां सबसे पहले पानी की ही तलाश कर रहे हैं। इसके बाद भी लोगों का ध्यान इस ओर नहीं है। जो कार दो बाल्टी पानी में धोई जा सकती है, उसे दो हजार लीटर साफ पानी से धोते हुए लोग प्रायः मिल जाते हैं। हम वर्षा जल का संरक्षण कर तथा पानी को व्यर्थ न जाने देकर भी इस दिशा में अपना व्यक्तिगत सहयोग दे सकते हैं।

हम साफ पानी पिएं, यह तो आवश्यक है ही; पर कितना पिएं, इस बारे में अलग-अलग मत हैं। फिर भी एक व्यस्क व्यक्ति को दिन भर में आठ-दस गिलास पानी तो पीना ही चाहिए। सुबह उठकर कुल्ला-मंजन के बाद तांबे के साफ पात्र में रखा पानी भरपेट पीना बहुत लाभ देता है। तांबा जल की अधिकांश अशुद्धियां दूर कर देता है। सर्दियों में पानी को गुनगुना कर लें, तो और अच्छा रहेगा।

भोजन के साथ पानी पियें या नहीं, इस बारे में भी मत भिन्नता है; पर अधिकांश का कहना है कि भोजन के आधे-पौने घंटे बाद पानी पीना अच्छा रहता है। गरम भोजन के साथ फ्रिज का ठंडा पानी बहुत ही घातक है। गर्मियों में घड़े और सुराही का जल आज भी सर्वश्रेष्ठ ही है। पानी सदा बैठकर ही पीना चाहिए, ऐसा भी बुजुर्गों का कहना है।

आकाश – आकाश की पहचान खालीपन या शून्यता है। घटाकाश और मठाकाश जैसी कल्पनाएं इसी में से आई हैं। पक्षियों से लेकर वायु और अंतरिक्ष यान इसीलिए निर्द्वन्द्व उड़ते हैं। किसी पात्र के खाली होने का अर्थ है कि उसमें आकाश तत्व विद्यमान है; पर जब उसमें कोई वस्तु डालते हैं, तो यह तत्व वहां से हट जाता है।

ऐसी शून्यता हम अपने पेट को बिल्कुल खाली रखकर प्राप्त कर सकते हैं। अतः प्रातः शौचादि से निवृत्त होने के बाद लगभग दो घंटे तक पेट को अवकाश दें। इससे जहां भोजन पचाने वाली इंद्रियों को आराम तथा अपनी टूट-फूट ठीक करने का समय मिलेगा, वहां हमें आकाश तत्व भी प्राप्त होगा। व्रत और उपवास आकाश तत्व की प्राप्ति का अवसर कुछ अधिक समय तक प्रदान करते हैं। इनका भरपूर उपयोग करना चाहिए; पर इस नाम पर दिन में कई बार पेट में गरिष्ठ चीजें ठूसते रहना शुद्ध पाखंड है।

पृथ्वी – पृथ्वी हमें अन्न, दाल और सब्जियां आदि देती है। अतः इनके सेवन से हमें पृथ्वी तत्व की प्राप्ति होती है; पर इन्हें कच्चा नहीं खा सकते। इन्हें आग पर पकाकर तथा आवश्यकतानुसार कुछ अन्य मिर्च-मसाले डालकर प्रयोग करते हैं। इनका सेवन कितना और कितनी बार करें, इसका कोई मापदंड नहीं है। शारीरिक परिश्रम करने वाले किसान या मजदूर तथा कार्यालय में बैठकर काम करने वाले की आवश्यकता अलग-अलग होगी। उन्हें उसी अनुसार इनका सेवन करना चाहिए। ऐसा न होने पर जहां एक ओर थोंद वाले, तो दूसरी ओर दुबले-पतले लोग सर्वत्र घूमते मिलते हैं।

अग्नि – अग्नि का òोत सूर्य है। सर्दियों में तो सीधे धूप में लेटना या बैठकर काम करना अच्छा लगता है। गर्मियों में भी अपने काम के सिलसिले में घूमते-फिरते धूप लगती रहती है। इससे अग्नि तत्व अपने आप मिल जाता है। जो लोग सदा वातानुकूलित वातावरण अर्थात ए.सी वाले घर, कार्यालय और कार में रहते हैं, उनकी प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है। इसलिए थोड़े से परिश्रम या मौसम बदलने मात्र से ही ये लोग बिस्तर पकड़ लेते हैं। भीषण गर्मियों में जहां लू से बचना आवश्यक है, वहां धूप से डरना भी अनुचित है।

जहां तक खानपान की बात है, तो सूर्य की ऊर्जा से पके हुए फल और सलाद आदि के सेवन से अग्नि तत्व भरपूर मात्रा में प्राप्त होता है; पर इनका सेवन सूर्यकाल में ही करना चाहिए। अर्थात सूर्यास्त के बाद इन्हें खाना ठीक नहीं है। इसी तर्ज पर कुछ लोग यह भी कहते हैं कि पृथ्वी तत्व वाले जिन पदार्थों को खाने से पूर्व आग पर चढ़ाना पड़ता है, उन्हें सूर्य की उपस्थिति में नहीं खाना चाहिए।

यद्यपि बहुत से लोग अपनी धार्मिक आस्था या वृद्धावस्था के कारण सूर्यास्त के बाद अन्न नहीं खाते। उनका कहना है कि सूर्यास्त के बाद शरीर की पाचनक्रिया मंद हो जाती है। अतः उस समय भारी भोजन ठीक नहीं है। विचार भिन्नता के कारण इस विषय को स्वतंत्र छोड़ देना ही उचित है।

ये कुछ ऐसी बातें हैं, जिन्हें समय-समय पर बुजुर्गों से सुना है। इसमें से कुछ का प्रयोग करने से लाभ भी हुआ है। यद्यपि आज के भागदौड़ वाले जीवन में सब नियमों का पालन संभव नहीं होता। फिर भी जितना हो सके, उतना पालन करके देखें। यदि लाभ हो, तो दूसरों को भी बताएं, जिससे अधिकाधिक लोगों का कल्याण हो सके।

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