जनजातीय संस्कृति पर छाया संकट

adiwasi  शैलेन्द्र सिन्हा

 

9 अगस्त विश्व आदिवासी पुरे दुनिंया में मनाया जा रहा है।लेकिन झारखंड में आदिवासियों की जनसंख्या में लगातार ह्नास परिलक्षित हो रहा है,उनका राजनीतिक,सामाजिक व आर्थिक विकास धीमा हो गया है।आदिवासियों की जनसंख्या के कम होने से जनजातीय संस्कृति पर संकट आ गया है। झारखंड के आदिवासी की अस्मिता खतरे में है,आदिवासियों में मृत्युदर,जन्मदर एवं पलायन पर शोध की आवश्यकता है। आदिवासियों में साक्षरता दर अन्य समुदायों की तुलना में कम है,महिला साक्षरता का प्रतिशत और भी कम है।उनके बीच शिक्षा व स्वास्थय की पहुॅच अब भी कम है,रोजगार के नाम पर खेती और वर्ष के चार माह पलायन उनकी नियति बन चुकी है।आदिवासी की जमीन पर खान व खदान हैं,वे अपनी ही जमीन पर मजदूरी कर अपना जीवन यापन करने को मजबूर हैं।आजादी के बाद औधोगिकरण की रफ्तार तेजी से बढ़ी खासकर खनन के क्षेत्र में लेकिन सबसे ज्यादा विस्थापित झारखंड के आदिवासी ही हुए।जनगणना के समय सभी धर्मावलंबी से एक धर्म कोड़ मांगा जाता है लेकिन आदिवासियों के लिए कोई धर्म कोड आजतक बना ही नहीं है।आदिवासी धर्म और विश्वास सभी अन्य धर्मों से एकदम अलग है।आदिवासी वर्षों से अलग धर्म कोड की मांग करते आ रहे हैं,लेकिन किसी सरकार ने उनकी सुध नहीं ली। इन विषम परिस्थिति में झारखंड के आदिवासी की सुध लेनेवाला कोई नहीं हैं,सभी राजनीतिक दलों के नेता आदिवासी के नाम पर सिर्फ राजनीति करते हैं। झारखंड राज्य का गठन आदिवासियों के विकास के नाम पर किया गया,लेकिन आज आदिवासी ही हाशिये पर जी रहे हैं।झारखंड का अर्थ जंगल प्रदेश माना जाता था,लेकिन आज जंगल भी आदिवासी के हाथ से निकल चुके हैं। वर्ष 1873 में भारतीय वन अधिनियम लागू हुआ और जंगल के उपयोग से आदिवासी वंचित होने लगे। पहले जंगलों में झुम खेती होती थी,जंगल में रहने के कारण आदिवासी को जंगल का अर्थ पता है,वे जंगलों से लघुवनोपज बेचकर अपनी आजीविका चलाते थे।अब जंगल  वन विभाग का है,आज वन के कटने से पर्यावरण संकट आ गया है। यहां की जलवायु की तारीफ अंग्रेज हुक्मरान करते थे,बहुत लोग इसी कारण यहां रच बस गये। झारखंड की प्रकृति का मनोहारी दृश्य देखते ही बनता है,चाहे वह हजारीबाग का पार्क हो या नेतरहाट का सूर्योंदय। आदिवासी की जनसंख्या एवं भारत की जनगणना वर्ष 2011 के अवलोकन से स्पष्ट होता है कि उनकी आबादी में किस प्रकार गिरावट आयी है।भारतीय जनसंख्या नीति एक पर्यावलोकन नामक लेख में प्रसिद्व चिंतक ए आर नंदा ने लिखा है-जनसंख्या स्थिरीकरण की कोशिश और पंचवर्षीय योजनाओं की शुरूआत वर्ष 1951-52 में हुई। भारत में जनसंख्या को बोझ की तरह देखा गया जबकि चीन ने जनता को संपत्ति समझा। झारखंड में आदिवासियों की जनसंख्या का कम होना चिंता का विषय हैं,सभ्यता व संस्कृति के पूजारी आदिवासी के जीवन में गीत,संगीत है ।नदियां कलकल करती गाती है,पहाड देवता के प्रतीक हैं और संगीत प्रेम का प्रतीक है।

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