आदि शंकराचार्य और मंदिर संस्कृति ने पढ़ाया एकता का पाठ

adi shankaracharyaछोटे-छोटे राज्य व्यक्ति की सोच को संकीर्ण बनाते हैं। व्यक्ति अपने राज्य के लोगों को ही अपना मानता है, और बाहरी लोगों ‘परदेशी’ मानता है। व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए इसीलिए संपूर्ण भूमंडल को ‘एक देश’ या एक परिवार बनाने हेतु आर्यावर्त्तीय राजाओं ने चक्रवर्ती साम्राज्य स्थापित करने का आदर्श लक्षित किया। व्यक्ति के संपूर्ण व्यक्तित्व के विकास के लिए चक्रवर्ती सम्राट बनने का लक्ष्य दिया गया। ‘कृण्वन्तो विश्वमार्य्यम्’ और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के आदर्श प्राचीन आर्यों के इसी उत्कृष्ट जीवन व्यवहार की झांकी को प्रस्तुत करने वाले वाक्य सूत्र हैं।

राज्यों को स्वभाग्य निर्णय का अधिकार नहीं

सत्यकेतु विद्यालंकार अपनी पुस्तक ‘राजनीति शास्त्र’ के पृष्ठ 492 पर लिखते हैं-‘भारत में कभी सैकड़ों हजारों छोटे-छोटे राज्य थे। मालव, शिवि, क्षुद्रक, अरहट, आग्नेय आदि राज्य पंजाब में तथा शाक्य, वज्जि, मल्ल, मोरिय, बुलि आदि राज्य उत्तरी बिहार में थे। मगध के सम्राटों ने इन सबको जीतकर अपने अधीन किया। यदि इन सब राज्यों में निवास करने वाले ‘जनों’ को स्वभाग्य (कश्मीर के विषय में वहां की जनता के ‘आत्म निर्णय’ लेने की वकालत करने वाले ध्यान दें) निर्णय करने का अधिकार रहता तो एक शक्तिशाली भारतीय राष्ट्र का विकास कभी संभव न होता।’ विद्यालंकर जी के उक्त उद्घरण से यही सिद्घ होता है कि भारतवर्ष में प्राचीन काल से ही सुदृढ़ केन्द्रीय सत्ता की स्थापना करने के लिए राजनीतिक प्रयास किये गये और इन्हीं प्रयासों ने इस विशाल भूखण्ड को सदा ही एक राष्ट्र बनाये रखा। हां, महात्मा बुद्घ की अहिंसा ने कालांतर में अपना दुष्प्रभाव दिखाया और देश के एक सम्राट (अशोक) ने शस्त्र फेंककर ‘शास्त्र’ का अवलंबन लेना उचित समझा, तो परिणाम स्वरूप देश में विखण्डन की प्रक्रिया का बीजारोपण होने लगा।

राष्ट्रीयता निर्धारक तत्व

विद्यालंकर जी उसी पुस्तक में आगे लिखते हैं-‘राष्ट्र उस राज्य को कहते हैं जिसके निवासियों में राष्ट्रीयता की भावना विद्यमान हो, और परस्पर एक होने की अनुभूति हो। इस भावना के प्रादुर्भाव में निम्न लिखित तत्व सहायक होते हैं-नस्ल की एकता, भाषा की एकता, धर्म की एकता, भौगोलिक एकता, संस्कृति और ऐतिहासिक परंपरा की एकता और राजनीतिक आकांक्षाओं की एकता।’

आधुनिक राजनीति शास्त्री भारत में इन तत्वों को जब खोजने का प्रयास करते हैं तो हमें ऐसा दिखाते हैं कि गहरे समुद्र से बाहर आकर जैसे मोतियों की प्रतीक्षा में बैठे लोगों को कोई खाली कटोरा दिखा दे। पहले हमें हमारा कोई इतिहास ना होने का झटका दिया जाता है, तत्पश्चात एक एक करके राष्ट्रीयता के ऊपरिलिखित बिंदुओं या तत्वों का खाली पिटारा हमारे समक्ष प्रस्तुत कर दिया जाता है।

ये तत्व भी अपर्याप्त हैं

वैसे हमारी दृष्टि में भी उक्त राष्ट्रीयता संबंधी तत्व भारत के संबंध में अपर्याप्त हैं। हमारा मानना है कि जोड़ा जाना अपेक्षित है। इन में सर्व प्रथम है-आत्म-संस्कृति-गौरव भावना, दूसरा है-आध्यात्मिक रूप से समृद्घ अपने साहित्य के प्रति असीम अनुराग, तीसरा है-दार्शनिक क्षेत्र में कभी किसी की वैचारिक स्वतंत्रता को प्रतिबंधित न करने की भारत की वैज्ञानिक सोच, चौथा है-विभिन्न संप्रदायों के मध्य अनुकरणीय सामंजस्य स्थापित करने का अनूठा भाव और पांचवा है जो विश्व में केवल और केवल भारत के पास है-स्वराज्य का आत्मप्रेरक और उद्बोधक तत्व।

भारत के विषय में हमारा मानना है कि राष्ट्रीयता के प्रचलित तत्वों के साथ यदि उपरोक्त पांच तत्वों का समन्वय स्थापित करके देखा, समझा और पढ़ा जाए तो यह रहस्य स्वयं ही समझ में आ जाएगा कि यहंा हर ‘चंद्रगुप्त’ के साथ एक ‘चाणक्य’ क्यों बैठा है? और हर ‘शिवाजी’ के साथ एक ‘समर्थ गुरू रामदास’ क्यों खड़े हैं? भारत के विषय में यह जानने योग्य तथ्य है कि यहां राष्ट्रीय चरित्र के विद्रूपीकरण की प्रक्रिया का मार्ग प्रशस्त करने हेतु सर्वप्रथम राजनीति फिसली या धर्म फिसला? कुछ भी हो, पर एक बात निश्चित है कि इस जोड़े में से जब एक का भी स्वास्थ्य बिगड़ गया तो उसकी काली छाया दूसरे पर पड़े बिना नही रह सकी। पर जब राष्ट्रीय स्वास्थ्य विकृत हुआ तो भारत माता ने भी एक से बढ़कर एक उत्तम वैद्य अपनी कुक्षि से निकाल निकालकर देना आरंभ कर दिया। हम इस प्रतीक्षा में खड़े रहे कि-यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:। अभ्युत्थानम् धर्मस्य तदात्मानम् सृजाम्यहम्-का उद्घोष करने वाले कृष्ण यहां आएंगे और संभवत: हम उन्हें अपनी चर्मचक्षुओं से पुन: देख सकेंगे। परंतु हम यह भूल गये कि देश और समाज की चुनौती पूर्ण परिस्थितियों को समझने के लिए महामानव किसी प्रकार का शोर नही मचाया करते हैं, वह आते हैं,  और अपने महान कार्यों के संपादन में लग जाया करते हैं।

…वो महान विभूतियां

जिस समय मौहम्मद बिन कासिम व गजनवी भारत में आए थे उस समय भी भारत की राष्ट्रीय चेतना को अपने अपने ढंग से कई विभूतियों ने चेतनित किया। मानो वे पुन: कृष्ण का रूप धारण कर इस धर्म धरा पर अनुकरणीय कृत्यों के संपादन के लिए अवतरित हो गयी थीं। इन्होंंने महात्मा बुद्घ की पापपूर्ण अहिंसावादी नीति से व्युत्पन्न राष्ट्रीय चरित्र की अधोगामी  अवस्था से उठाकर राष्ट्र को पुन: गौरवशाली वैदिक व्यवस्था की ओर लेकर चलने का श्लाघनीय प्रयास किया।

शंकराचार्य का श्लाघनीय कार्य

इन नामों  में सर्वप्रथम आदि शंकराचार्य का नाम वंदनीय है। जिन्होंने वैदिक चिंतन को विस्मृत कर पूर्णत: अवैदिक धारणाओं में फंसे भारतीय समाज को पुन: वैदिक संस्कृति की ओर आने का आवाहन किया। यदि शंकराचार्य का घोर पुरूषार्थ अब से लगभग 1200 वर्ष पूर्व ना हुआ हेाता तो ये राष्ट्र ‘इस्लामिक तूफान’ के सामने निश्चित रूप से टिक नही पाता। हमने अफगानिस्तान में देखा कि एक समय वहां बौद्घों की संख्या अधिक हो गयी थी, जो इस्लामिक रक्तिम तलवार के सामने टिक नही पाए और बड़े सहज भाव से उन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया। परिणाम स्वरूप देश से पहले वो भाग कटा जो वैदिक संस्कृति से कट गया था। अत: यदि आदि शंकराचार्य वैदिक संस्कृति के लिए प्रयास और पुरूषार्थ कर रहे थे, तो यह उनका वंदनीय कृत्य ही था।

अनूठे तत्वदर्शी एवं राष्ट्र निर्माता

शंकराचार्य अनूठे तत्वदर्शी एवं राष्ट्र निर्माता थे। उन्होंने सारे भारत का पैदल भ्रमण किया और मात्र 32 वर्ष के अपने जीवन काल में ही राष्ट्र के लिए बहुत कुछ कर गये। उन्होंने ही पहली बार यह चिंतन किया था कि देश में राष्ट्रीय भावना को मुखरित और जाग्रत रखने के लिए चार आध्यात्मिक धामों की स्थापना की जाए। इन धामों ने देश में सांस्कृतिक जागरण के अपने दायित्व को तो निभाया ही साथ ही राष्ट्रवाद की भावना को भी बलवती बनाया।

जो लोग इन चार धामों के राष्ट्र जागरण या राष्ट्रीय एकता को बनाये रखने में योगदान के समर्थक नही हैं, या इसे कोरी कल्पना ही समझते हैं, वो ये भूल जाते हैं कि भारत में राष्ट्रीय जागरण की बात करते समय ये ही लोग अंग्रेजों द्वारा डाकतार एवं रेलमार्गों की स्थापना को भी उत्तरदायी मानते हैं। अब यदि रेल आदि से राष्ट्र जागरण संभव है तो चार धामों से क्यों नही हो सकता? विशेषत: तब जबकि वहां देश के कोने-कोने का व्यक्ति जाकर मिलता था।

चार धामों की स्थापना के पीछे उद्देश्य ही ‘राष्ट्र बचाओ और संस्कृति बचाओ’ का था। अपने इस मत की पुष्टि के लिए हमारा तर्क है कि जिस समय महात्मा बुद्घ की अहिंसा से राष्ट्र जर्जरित हो रहा था और सीमाओं पर म्लेच्छों की कोपदृष्टि पड़ रही थी, उस संक्रमण काल में देश को बौद्घ बनने से रोकना और देश में मंदिर संस्कृति का क्रांतिकारी विकास होना सचमुच किसी बड़ी योजना का एक अंग था। उस योजना को हमारे इतिहास में सही स्थान नही दिया गया।

मंदिर राष्ट्र मंदिर के लघुरूप

मंदिर राष्ट्र मंदिर के लघुरूप थे, जिनमें राष्ट्र चर्चा होती थी। तभी तो प्रत्येक देवता के हाथ में शस्त्र और शास्त्र दोनों ही दिये गये। यह अलग बात है कि कालांतर में मंदिर-संस्कृति ही हमारे लिए अभिशाप बन गयी। परंतु उसकी स्थापना का उद्देश्य अति गौरवपूर्ण था।

चार धामों की स्थापना के पीछे शंकराचार्य जी का उद्देश्य देश में एक धर्म, एक संस्कृति, एक भाषा और एक भूषा की स्थापना करना था। उन्होंने समय की आवश्यकता को समझ लिया था और विदेशी आक्रांताओं से देश को बचाने के लिए तथा स्वराज्य की आराधना के लिए वह समय से पहले अथवा समय की आवश्यकता के अनुसार क्रांतिकारी निर्णय ले रहे थे। सचमुच वह ‘वंदेमातरम्’ के पहले सृष्टा थे, जिन्होंने बंकिम चंद्र चटर्जी के लिए मार्ग प्रशस्त किया। वह वेदों के विद्वान थे और वेद के विद्वान होने के कारण ‘स्वराज्य’ के तारों को पूरे देश में पूरकर अपने महान कार्य का संपादन कर रहे थे। वह महर्षि मनु, विदुर और चाणक्य की साक्षात मूर्ति थे जो राष्ट्र देव की आराधना के लिए कुशल शिल्पकार सिद्घ हुए। उन्होंने पथभ्रष्ट राजनीति को या किंकर्त्तव्यविमूढ़ राजधर्म को सही दिशा दी। यह हमारा दुर्भाग्य था कि ये महामानव अधिक समय तक हमारे मध्य नही रहा।

….राष्ट्र ऋणी रहेगा

हर महापुरूष के साथ यही होता है कि उसके जाने के पश्चात लोग उसके अधूरे सपनों को पूरा करने का संकल्प तो लेते हैं, पर सपने किसी के भी पूर्ण किये नही जाते। जितने अधिक शिष्य होते हैं जाने वाले का संकल्प उतने ही अंशों में विभक्त हो जाता है। विभक्ति से संयुक्ति का कभी भी निर्माण संभव नही है। इस नियम को सदा स्मरण रखना चाहिए। शंकराचार्य जी के साथ भी यही हुआ परंतु 32 वर्षीय अल्पजीवन में भी उन्होंने वह कर दिखाया था जिसका यह राष्ट्र सदा ऋणी रहेगा।

वैदिक राष्ट्र के पारसमणि

वेद के संगठन सूक्त के मर्मज्ञ इस ऋषि के पुण्य प्रताप का ही परिणाम था कि चारों धामों ने देश में सांस्कृतिक और राष्ट्रीय एकता को स्थापित करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।  निश्चित रूप से तब भी जबकि इस देश की राष्ट्रीयता को (रियासतों के रूप में) सैकड़ों खण्डों में तोड़ तोड़कर देखने का या स्थापित करने का विदेशी षडयंत्र भी जमकर रचा गया। यदि उन खण्ड-खण्ड राष्ट्रीयताओं के बीच रहकर भी हमारी एक राष्ट्रीयता होने पर किसी को आश्चर्य होता हो तो वह भारत के चारधामों के स्थापित करने के रहस्य को समझ ले, उसे अपने आश्चर्य का उत्तर मिल जाएगा। यदि ऐसा हो तो चारधामों के सृष्टा आदि शंकराचार्य के उच्च वैदिक चिंतन को नमन कर लिया जाए। सचमुच एक पारसमणि से संपर्क स्थापित हो जाएगा।

अटल बिहारी वाजपेयी की स्वर्ण चतुर्भुज सड़क योजना आदि शंकराचार्य के राष्ट्रवादी चिंतन को नमन करने की दिशा में उठाया गया एक पुष्पांजलि समारोह ही था। जिसे राष्ट्र समझ नही सका।

महापुरूषों को मिली प्रेरणा

शंकराचार्य ने जगन्नाथपुरी, उज्जियिनी, द्वारका, कश्मीर, नेपाल, बल्ख, काम्बोज तक की यात्रा की और भारतीय वैदिक धर्म का डिण्डिम् घोष किया। उनके इस स्वरूप की आराधना आगे चलकर नरेन्द्र देव ने की तो वह नरेन्द्र से विवेकानंद हो गया और वैदिक धर्म को पुन: सत्य रूप में स्थापित करने का बीड़ा युवा मूल शंकर (जिसका मूल ही शंकर था) ने उठाया तो वह मूलशंकर से महर्षि दयानंद हो गया। उसके देश भ्रमण के काल में जहां-जहां उसके कदम पड़े वहां-वहां देशभक्ति के रस से सराबोर ऐसी ‘वनस्पतियां’ उठीं कि उनके रस को पी-पीकर अनेकों के जीवन में भारी परिवर्तन आ गया और देश उस अमृत के अमृतत्व के कारण स्वराज्य के लिए सदा संघर्षरत रहा। जब उनके शिष्यों ने पापाचार में फंसकर अवैदिक मार्ग का अनुकरण किया और ‘स्वराज्य’ के दीपक की लौ मद्घम पड़ने लगी तो महर्षि दयानंद ने उस दीपक में वेद के स्वराज्य-चिंतन का ऐसा तेल डाला कि एक दीपक के हजारों लाखों दीपक बनकर जगमगा उठे और ब्रिटिश साम्राज्य को यहां से उखड़ना पड़ा।

मण्डन मिश्र के साथ शास्त्रार्थ

आचार्य शंकर ने बौद्घ धर्म के आचार्य मण्डन मिश्र के साथ इतिहास प्रसिद्घ शास्त्रार्थ किया था। शास्त्रार्थ की कठोर शर्तों  में से एक शर्त ये भी थी कि इस शास्त्रार्थ में जो भी पराजित होगा वह विजयी के मत को स्वीकारेगा। यदि मण्डन मिश्र हारते हैं तो उन्हें सन्ंयासी का जीवन ग्रहण करना होगा और यदि शंकर हारे तो गेरूवा वस्त्र छोड़कर गृहस्थ जीवन अपना लेंगे। शर्त स्वीकार कर ली गयी, तो शास्त्रार्थ में निर्णायक की भूमिका मंडन मिश्रा की विदुषी पत्नी उभय भारती को प्रदान की गयी। उन्होंने शास्त्रार्थ की समाप्ति पर निर्णय शंकराचार्य के पक्ष में दिया। फलस्वरूप उनके पति को गेरूवा वस्त्र धारण कर संन्यास में दीक्षित होना पड़ा। इतिहास की ये बड़ी प्यारी घटना है। आध्यात्म के प्रति आस्थावान भारत में ही ये घटना घटित हो सकती थी। इसलिए मर्यादा और आदर्शों की स्थापना करने वाले महापुरूषों का सम्मान इतिहास को करना पड़ेगा।

कैसा दूरदर्शी था वह?

कृष्ण वल्लभ द्विवेदी आचार्य शंकर के चारधाम संकल्प को यथार्थ में स्थापित करने के पुरूषार्थ पर विचार करते हुए अपनी  पुस्तक ‘भारत निर्माता’ में लिखते हैं :-‘उनके इस विराट आयोजन का मुख्य उद्देश्य हमारे छिन्न-भिन्न राष्ट्रीय कलेवर को एक ही सांस्कृतिक सूत्र में गठित करके पुन: इस महादेश को लौकिक स्तर पर भी ऊंचा उठाने का गूढ़ संकल्प मात्र था। इसका स्थूल प्रमाण तो इस ऐतिहासिक तथ्य द्वारा हमें मिल रहा है कि अपने बाद भी देश की जाग्रति के अनुष्ठान को जारी बनाये रखने हेतु जो चार प्रधान धर्म केन्द्र अथवा संन्यासी मठ इस महापुरूष ने स्थापित किये थे, उनके लिए उत्तर दक्षिण पूर्व और पश्चिमी अंचलों के धुर सीमान्तवर्ती चार महत्वपूर्ण धामों को ही उसने चुना था। कैसा दूरदर्शी था वह?

मंदिर संस्कृति आपात धर्म भी थी

भारत में मंदिर संस्कृति चाहे जैसे आयी पर इसके विषय में एक सत्य ये भी है कि ये हमारे लिए उस समय एक आपात धर्म भी था। राजनीति जब खण्ड-खण्ड हो रही थी और एक सार्वभौम केन्द्रीय सत्त्ता को प्रदान करने में सर्वथा असफल होती जा रही थी, उस समय देश के धर्मशील, नीतिनिपुण लोगों ने मंदिरों को राष्ट्र चर्चा और धर्म चर्चा का अच्छा साधन समझा। मंदिर संस्कृति कालांतर में चाहे किसी भी अवस्था में विकृति को प्राप्त हुई परंतु उसका उद्देश्य  पवित्र था। जो लोग राजनीतिक खेमों में न जाना उचित मानते थे वो मंदिरों के माध्यम से राष्ट्र चर्चा में सम्मिलित होते थे। अधिकांश मंदिरों को राजकीय संरक्षण प्राप्त होता था। अत: स्पष्ट है कि राजकीय लोगों को भी राष्ट्र चर्चा में सम्मिलित होने का अवसर मिलता था। यही कारण था कि छोटे छोटे राज्यों के स्वामी होकर भी कभी किसी ने स्वतंत्र देश की स्थापना नही की, और ना ही ऐसी मांग की।

जैसे लोगों ने मुस्लिम आक्रांताओं से बचकर जंगलों में अपना निवास कर लिया था वैसे ही देश के धार्मिक लोगों ने अपने धर्म के निर्वाह के लिए मंदिरों की संस्कृति का प्रचार प्रसार किया।

जब देश पर विदेशी आक्रमण कर रहे थे तो उसी समय देश में मंदिर संस्कृति का बड़ा ही उच्च स्तरीय प्रसार हो रहा था। इस प्रकार की गौरवमयी झलक की प्रस्तुति करते हुए कृष्णवल्लभ द्विवेदी अपनी उसी पुस्तक में लिखते हैं-‘सर्जन की देशव्यापी लहर के उफान में एक ओर खजुराहो, भुवनेश्वर, उदयपुर, (मध्य प्रदेश) ओसिया, मोढ़ेरा, सिद्घपुर, सोमनाथ और देलवाड़ा (आबू) आदि के ‘नागरशैली’ के महान उत्तरक्षेत्रीय देवालयों की और दूसरी ओर कांचीपुरम, ऐहोल, पट्टदकल, तंजावूर, सोमनाथपुर, हालेविद, बेलूर आदि स्थलों की ‘द्राविड़’ एवं ‘वेसूरशैली’ के दक्षिण भारतीय मंदिरों की भव्य कला सृष्टि हुई थी।

भगवतभक्ति और राष्ट्रभक्ति के प्रतीक मंदिर

भारत के वैदिक धर्म ने प्राचीन काल से ही मानव को भगवदभक्ति और राष्ट्रभक्ति का पाठ पढ़ाया है। प्राचीन काल में ऋषियों के आश्रमों से ऐसी ही गूंज निकला करती थी। कालांतर में आश्रमों के स्थान पर गुरूकुल आए और उनके पश्चात मंदिर संस्कृति आयी। मंदिर संस्कृति यद्यपि आश्रम संस्कृति की अपेक्षा दुर्बल थी, परंतु वह उसी संस्कृति की उत्तराधिकारिणी थी जिसका उद्देश्य मानव को भगवद्भक्ति और राष्ट्रभक्ति का पाठ पढ़ाना था।

भारतीय इतिहास लेखकों ने भारत में उस भौतिक राष्ट्रवाद के बीज ढूंढ़ने का प्रयास किया है जैसे उन्हें पश्चिमी जगत के चिंतन में दिखायी देते हैं, जिनमें संकीर्णता और तुच्छता रूपी उग्रता समाविष्ट है। जबकि भारतीय ऋषियों की राष्ट्रभक्ति इससे भिन्न थी। उसमें आध्यात्मिक राष्ट्रवाद था। जिसका उद्देश्य मानवतावाद था और पूरी वसुधा को ही एक परिवार और एक सरकार के नीचे विकास करने की उत्कृष्ट दैवीय संकल्पना थी। इस दैवीय संकल्पना का पवित्र उद्देश्य था कि सब एक से जुड़ो और अपने सारे मतभेद भुलाकर एक हो जाओ। पूरी वाटिका में सर्वत्र विचरण करो और आनंद अनुभव करो।

इस संकल्पना से निर्मित होने वाले भव्य और दिव्य परिवेश के लिए भव्य और दिव्य स्थल की निर्मिती आवश्यक थी और यह भव्य और दिव्य स्थल ही मंदिर कहलाए।

मनस्वियों ने किया मार्गदर्शन

कवि माघ ने कहा है कि पर्वत में ऊंचाई है, अगाध गहराई नही है और समुद्र में अगाध गहराई है, ऊंचाई नही। परंतु अलंघनीय होने के कारण ये दोनों ही मनस्वी पुरूष में विद्यमान रहते हैं, अर्थात मनस्वी पुरूष पर्वत के समान ऊंचे तथा समुद्र के समान गंभीर होते हैं, उनका पार पाना बहुत कठिन है।

भारत में चाणक्य आए तो विदेशी शक्तियों से निपटने के लिए उन्होंने उस समय महान कार्य किया और भारतवर्ष के सम्राट को विदेशी शक्तियों के प्रति सदा सावधान रखा। इसी प्रकार 1857 की क्रांति हुई तो उस समय भी संतों ने देश का मार्गदर्शन किया कि फिरंगियों को भगाओ। ये दोनों उदाहरण हमें बताते हैं कि भारत को सदा ही मनस्वियों का मार्गदर्शन मिला है। अत: ऐसा कैसे हो सकता है कि अब से 1200-1300 वर्ष पूर्व जब देश पर विदेशी हमले तेजी से होने आरंभ हुए तो उस समय हमारी मनस्विता कहीं सो गयी हो? वास्तव में तो देश की मनस्विता ही जाग्रत रही और इसी मनस्विता के कारण ही हम पहले दिन से ही अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए सजग हो गये।

इसी मनस्विता के उचित मार्गदर्शन के कारण हम 1235 वर्ष तक निरंतर स्वतंत्रता हेतु संघर्ष करते रहे। हमें स्वातंत्रय वीर सावरकर के इन शब्दों पर ध्यान देना चाहिए-यदि उस अंधपरंपरा के काल में उन सब किताबी जंजालों का उच्छेदन करने के लिए यत्र तत्र विभिन्न प्रमाणों में धैर्यवान, दूरदर्शी सुधारक, राजनीतिज्ञ, धर्मज्ञ, महान विचारक और कर्मवीर बीच बीच में न हुए होते, उन्होंने अपने प्रभाव से राष्ट्र की धर्म रक्षा का पराक्रमी मार्ग प्रशस्त न किया होता एवं म्लेच्छ शत्रुओं को उस धर्म समर में पराजित न करते रहते तो हिंदू धर्म का संख्या बल और राष्ट्र का विनाश भी अवश्यम्भावी हो जाता।

देश के प्रचलित इतिहास में आदि शंकराचार्य तथा मंदिर संस्कृति को उचित स्थान देने में धर्मनिरपेक्ष इतिहास लेखकों ने एक वर्ग की वाहवाही लेने के लिए कोताही की है। यह राष्ट्र के प्रति अपराध है, जिस तथ्य ने भारत को पराजित और पराधीन नही होने दिया, उसकी इतनी उपेक्षा आत्म प्रवंचना के अतिरिक्त कुछ भी नही है।

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