…अब कौन आएगा हमें चुप कराने निदा

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nida fazliप्रवीण दुबे
आज ग्वालियर की आंखों में आंसू हैं, यह आंसू हैं अपने उस बेटे की मौत पर जिसके शायराना अंदाज पर न केवल बॉलीवुड मंत्रमुग्ध था बल्कि शेरो-शायरी में उन्होंने जिस दर्द और मीठी सी चुभन को पिरोया था उसने उन्हें सरहदों के पार भी लोगों का दीवाना बना दिया था। जी हां हम बात कर रहे हैं उन निदा फाजली की जो आज हमेशा के लिए हमें छोड़ कर चले गए हैं। उनका शायराना अंदाज था आज उसी लहजे में उन्ही की प्रसिद्ध गजल के बोल उनको पेश करते मन भर आता है।
तू इस तरह से मेरी जिंदगी में शामिल है
जहां भी जाऊं ये लगता है तेरी महफिल है
वास्तव में निदा फाजली के गीत, गजल और शायरी आम आदमी की जिंदगी में रचे-बसे थे। उनका कलाम उनके ढंग से किया गया जिन्दगी का सफर कहा जा सकता है। इस सफर में निदा फाजली ने शहर-गांव, धूप – छांव, बिजली- आंधी तूफान, बादल- बरसात, बसंत, नाते-रिश्ते सब को गीत और शायरी के रूप में ऐसे प्रस्तुत किया जैसे वह हमारी- अपनी जिन्दगी का अंग है। निदा फाजली ने जो नज्में, गजलें और गीत दिए उनमें लोक संवेदनाओं, लोक भावनाओं को विशेष स्थान दिया।
कितना खूब कहा है निदा ने
कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता
कभी जमीं तो कभी आसमां नहीं मिलता
बड़े दुख की बात है कि धीरे-धीरे वो पीढ़ी वो किरदार हमसे दूर होते जा रहे हैं।
जिनके अफसानों में आम आदमी की जिन्दगी का दर्द झलकता था। निदा फाजली उनमें से एक हैं। वे ग्वालियर और सीधे सपाट शब्दों में लिखा जाए तो मुम्बइया चकाचौंध में अपने किरदार को सफलता तक पंहुचाने के बावजूद कितने सहज और सरल थे इसका अंदाजा उस प्रसंग से लगाया जा सकता है, जब रजिया सुल्तान जैसी कई चर्चित और सफल फिल्मों में अपने गीतों, गजलों से अपनी योग्यता का लोहा मनवाने के बाद अस्सी के दशक में उनका ग्वालियर आना होता है। स्वदेश से पत्रकारिता की शुरुआत करने वाले हरीश पाठक उनका साक्षात्कार लेते हैं। उन्हीं के शब्दों में-
स्वदेश की नौकरी के उन शुरुआती दिनों में मेरे सारे सम्पर्क सूत्र नई सडक, डिलाइट टॉकीज से संचालित होते थे।
वहीं एक शाम एक स्थानीय प्रेमचंद ने बताया कि निदा आया है। निदा फाजली – वे जो शायद रजिया सुल्तान जैसी फिल्मों के गीत लिख रहे हैं।
हां यार वही निदा! क्यों उतावले हो रहे हो, फिल्मों में गीत लिखने से क्या कोई बड़ा आदमी हो जाता है।
कहां मिल सकेंगे ? मेरा सवाल था इस वक्त रणजीत होटल में बैठे हैं, और उसके बाद अचानक दूसरे दिन की रात उभरती है। कंपू रॉक्सी टॉकीज, मिताली फोटो स्टूडियो, काले परदे, परदों से टिके निदा फाजली फिर यादें, बातें सवाल जबाव…
अब न रणजीत होटल है, न रॉक्सी टॉकीज और न मिताली स्टूडियो और आज निदा फाजली भी चले गए। खैर, प्रसंग अपने आप में बहुत कुछ कहता है। फाजली जितने बड़े थे उतने ही जमीनी भी। आज यदि कोई मुम्बई के किसी फिल्मी स्टूडियो की दहलीज पर कदम भर रख लेता है तो स्वयं को फिल्मी हीरो मान अपने कदम जमीन पर रखना पसंद नहीं करता, लेकिन निदा फाजली की सहजता सरलता देखिए जिस समय उनके गीत गजल पूरे देश में छाए थे, उस वक्त भी वे रणजीत जैसे साधारण होटल और मिताली जैसे सामान्य स्टूडियो में अपनी शायराना महफिलें जमाया करते थे। ऐसी सादगी पर मिटा जा सकता है।
जहां तक मुझे उर्दू का ज्ञान है निदा शब्द का अर्थ आवाज होता है और निदा फाजली सही अर्थों में उर्दू शेरो-शायरी की ऐसी आवाज थे जो लंबे समय तक भुलाई नहीं जा सकेगी। कितना खूब लिखा है निदा फाजली ने
दिल मैं ना हो जुर्रत तो मोहब्बत नहीं मिलती
खैरात में इतनी बड़ी दौलत नहीं मिलती
कुछ लोग जमाने में यूं ही हमसे भी खफा हैं
हर एक से अपनी ये तबीयत नहीं मिलती
ग्वालियर उनकी कर्मभूमि रही है। वही ग्वालियर जिसने कला, राजनीति, संगीत सहित हर क्षेत्र में देश को महान विभूतियां दी हैं। गजल, शायरी के क्षेत्र की बात की जाए तो निश्चित ही ग्वालियर के किसी सपूत का नाम सबसे पहले लिया जाएगा तो वो हैं निदा फाजली। वे इस कारण भी प्रेरणादायी हैं कि विभाजन के बाद जबकि उनके मातापिता पाकिस्तान चले गए उन्होंने भारत में ही रहना पसंद किया। निदा तुम चले गए और हम रो रहे हैं अब कौन आएगा हमें चुप कराने?

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प्रवीण दुबे
विगत 22 वर्षाे से पत्रकारिता में सर्किय हैं। आपके राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय विषयों पर 500 से अधिक आलेखों का प्रकाशन हो चुका है। राष्ट्रवादी सोच और विचार से प्रेरित श्री प्रवीण दुबे की पत्रकारिता का शुभांरम दैनिक स्वदेश ग्वालियर से 1994 में हुआ। वर्तमान में आप स्वदेश ग्वालियर के कार्यकारी संपादक है, आपके द्वारा अमृत-अटल, श्रीकांत जोशी पर आधारित संग्रह - एक ध्येय निष्ठ जीवन, ग्वालियर की बलिदान गाथा, उत्तिष्ठ जाग्रत सहित एक दर्जन के लगभग पत्र- पत्रिकाओं का संपादन किया है।

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