वह पैरों की धूल नहीं है

ममता सिन्हा

देश और विश्‍व में हो रही तमाम तरक्कियों के बावजूद औरतों को बराबरी का दर्जा तो दूर उन्हें जीने का अधिकार भी नसीब नहीं हुआ है। यह सही है कि साहस के साथ संगठित होकर समय समय पर महिलाओं ने आवाज बुलंद किया है और कुछ अधिकार हासिल किये हैं लेकिन साथ ही उनके शोषण के नये नये रूप भी ईजाद हो गये हैं। घर से लेकर बाहर तक हर जगह दर्द उसी के हिस्से में आता है। स्त्री चाहे अमीर हो या गरीब, पढ़ी लिखी हो या अनपढ़ अपनी लड़ाई खुद लड़ने को मजबूर है। हर जगह उंगली पहले उसी की तरफ उठाई जाती है। पुरूष प्रधान समाज में यदि उसे सम्मानपूर्वक जीना है तो गलतियों की गठरी उसे ही ढ़ोनी होगी। यदि पुरूष सत्तावाद को चुनौती देनी है तो उसे अपनी लड़ाई खुद ही अकेले लड़नी होगी। अपने अंदर छिपी व्यथा, दंश और परेशानी से तन्हां जूझना होगा। बाजारवाद की वस्तु बनाने वाले पुरूशों के जाल से स्वंय ही बाहर निकलना होगा। उसे आगे बढ़कर बताना होगा कि उसका स्थान केवल मर्दो के बाॅडी स्प्रे के प्रचार तक सीमित नहीं है। वह बॉडी स्प्रे की सुगंध से उसकी ओर आकर्शित नहीं होती है बल्कि उसके आत्मविश्‍वास के कारण उसकी ओर बढ़ती है। इस उम्मीद के साथ कि प्रकृति ने भले ही मर्द और औरत को शारीरिक रूप से अलग बनाया है लेकिन जीवन की रचना में दोनों को समान अवसर प्रदान किया है।

इसमें शक नहीं कि निरंतर प्रयासों के बाद भी महिलाओं की समस्याओं का अंत नहीं दिखता है। इन समस्याओं की जड़ में उन संस्कारों की बहुत बड़ी भूमिका होती है जिसे पुरूष  प्रधान समाज ने सदियों से अपनी रग रग में जमा रखा है। जिनसे मुक्त होना औरत के लिए कल भी आसान नहीं था और आज भी नहीं है। यह अलग बात है कि आज स्थितियां बदल गयी हैं। लेकिन आज भी परिवार के विघटन की सारी जिम्मदारी औरतों के कंधों पर डाल दी जाती है। आज भी उसे बच्चा पैदा करने की मशीन से ज्यादा कुछ नहीं समझा जाता है। हालांकि सरकार ने उसे अधिकार दे रखा है कि वह परिवार को सीमित करने के विकल्प पर स्वंय फैसला ले सकती है। उसे परिवार नियोजन करने के उपायों को अपनाने की प्रेरणा दी जाती है। स्वास्थ्य पर काम करने वाली एक संस्था ने हाल ही में डिम्पा नाम से एक इंजेक्षन लांच किया है। जिसे लेने के बाद महिला तीन महीने तक गर्भधारण की चिंता से मुक्त हो सकती है। लेकिन पुरूषप्रधान को यह कैसे मंजूर है कि परिवार को सीमित रखने या बढ़ाने का फैसला किसी भी प्रकार से नारी के हाथों में आ जाए। अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए ही पुरूष धर्म का नाजायज इस्तेमाल करता है। धर्म की आड़ में ही वह औरत को पर्दे के पीछे चुप रहने पर मजबूर कर देता है। आज से कुछ साल पहले भारतीय नारी की पहचान यही थी कि वह जो धरती की तरह सहनशील हो, सती सावित्री हो और पति के अत्याचारों को सहते हुए उसे पूज्यनीय मानें। लेकिन वक्त बदलने के साथ साथ नारी में भी चेतना का विकास हो रहा है। अतीत में जो पुरूशों की सत्ता को अपना भाग्य मानकर स्वीकार कर लेती थी आज वही उन्हें को चुनौती दे रही है। जो पितृसत्तात्मक समाज अपने को सर्वशक्तिमान मानता था अब उनकी शक्तियों को सदियों से अबला कही जाने वाली नारियों ने चैलेंज करना शुरू कर दिया है।

पाप कल भी होता था और आज भी बदस्तूर जारी है। लेकिन तब पर्दे के पीछे होता था और कोई आवाज नहीं उठती थी। लेकिन अब इस पर से पर्दा उठने लगा है। बलात्कार और प्रताड़ना के केस सामने आने लगे हैं। क्योंकि अब बलात्कार की शिकार महिला चुप नहीं बैठती है। लेकिन उसकी आवाज की गूंज अभी भी बहुत धीमी है। वर्षों से संघर्षरत महिलाओं ने बड़ी बड़ी नौकरियां तो हासिल कर ली हैं लेकिन घर में अभी भी हमेशा हाशिये पर ही बनी रहती है। क्योंकि उसके पास किसी भी बुनियादी फैसले का अधिकार नहीं होता है। जो स्वतंत्रता उसे है वह केवल धन कमाने और परिवारजनों की सुख सुविधा के साधन जुटाने की है। औरतें आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होते हुए भी इस दृष्टिकोण को नहीं बदल पायी कि उसकी मेहनत के पैसों पर केवल उसका हक है। शादी से पहले पिता और भाई और शादी के पति और बेटों का नहीं, लेकिन वह तो दया की मूर्ति है पिघलना उसकी किस्मत में है। वास्तव में महिलाओं ने संघर्श करते हुए अपने को आत्मनिर्भर जरूर बनाया है लेकिन मर्द के वर्चस्व को पूरी तरह से अबतक नहीं तोड़ पाई है। जिसके कारण आज भी महिलाओं के मस्तिष्‍क में पति रूपी मर्द कभी परंपरा के रूप में तो कभी स्वामी बनकर उभरता है लेकिन कभी बराबरी के दर्जे पर एक मित्र के रूप में उसका ध्यान नहीं कर पाती है। औरतों के साथ साथ पुरूशों की चेतना को भी विकसित करने की जरूरत है जिससे कि औरतों को वह पैर की जूती नहीं अपने समकक्ष समझे। उनके सोच का दायरा संकुचित न हो। महिलाओं को भी इंसान की तरह पूरी गरिमा एवं नागरिक अधिकार के साथ जीने दिया जाए। औरत के अस्तित्व को पहचाने। महिलाओं को समान अधिकार और सम्मान सहित आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक रूतबा दिलाने के लिए पुरूषों को भी अपनी मानसिकता बदलनी होगी। तभी जाकर लिंग भेद मूक्त स्वस्थ्य, सहज, सफल समाज की संरचना की जा सकती है। जहां महिलाएं उन्मुक्त होकर अपने लिए एक जमीन, एक आसमान तलाश कर सकें, जहां सुख हो, शांति हो और उनकी अपनी एक पहचान हो। (चरखा फीचर्स)

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