“शिक्षापत्री- ध्वान्ति-निवारण लघु पुस्तक में कुछ आप्त ऋषि-वचन”

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मनमोहन कुमार आर्य

ऋषि दयानन्द सरस्वती जी ने एक लघु पुस्तक स्वामी नारायण मत वा इस मत के आचार्य सहजानन्द की पुस्तक शिक्षा पत्री के खण्डन में लिखी है। इस पुस्तक में प्रयोग में आये कुछ आप्त वचनों वा ऋषि-वचनों को हम यहां अपने श्रद्धास्पद आर्य बहिन-भाईयों के स्वाध्याय के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। हमने केवल उन्हीं वाक्यों को चुना है जिनमें वेद वा आर्यसमाज की मान्यताओं का प्रकाश हुआ है। आशा है कि इससे पाठक महानुभाव लाभान्वित होंगे।

 

1-  ईश्वर नित्य है, इससे वह अब भी (वर्तमान वा मौजूद) है।

 

2- वेद (यजुर्वेद 40/8) में कहा है कि-ईश्वर, सर्वव्यापक, वीर्य्यरूप शरीर छिद्र और नाड़ी से रहित, शुद्ध और पापरहित है सर्वान्तर्यामी और सर्वव्यापक ईश्वर का जन्म-मरण और देहधारण है ही नहीं। जिसका जन्म-मरण और शरीर-धारण हो, उसको ईश्वर कभी कह ही नहीं सकते।

 

3-  अपना गुरु जो कि वेद पढ़ा हुआ और केवल ईश्वर की ही भक्ति करता हो, उसके पास शिष्य को अपने हाथ में समिध् नाम लकड़ियों को लेकर जाना चाहिये। (मुण्डकोपनिषद् 1/2/12)

 

4-  जो गुरु अपने ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्य शिष्य को यज्ञोपवीत आदि धर्म क्रिया कराने के बाद वेद को अर्थ और कल्प सहित पढ़ावे, तो ही उसको आचार्य कहना चाहिये।

 

5-  महाभारत में कहा है कि-‘‘कृष्ण द्वारिका की पड़ोस में मर गये। अब कौन जाने कि कृष्ण (जी) का जीव इस समय कहां है?

 

6-  याज्ञवल्क्य आदि महान् ऋषियों ने गार्गी आदि स्त्रियों के साथ धर्म विषय पर विचार किया था। (ऋषि की यह पंक्तियां प्राचीन काल में नारी जाति के महत्व को उजागर करती हैं। -मनमोहन)

 

7-  जिस को जन्म-मरणादि दोष प्राप्त हुए, ऐसे अविद्वान् जीव का आश्रय निष्फल है।

 

8-  राधा-कृष्ण को किसी ने प्रत्यक्ष देखा नहीं, फिर उनकी छवि अथवा मूर्त्ति कैसे (व कैसी) हो?

 

9-  हरि प्रत्यक्ष दीखता नहीं, और मूर्त्तियों में भोजन करने की शक्ति नहीं, इस कारण से मूर्त्ति को नैवेद्य धरना व्यर्थ है। यह बिलकुल छल-कपट है।

 

10-  पाषाण आदि मूर्त्तिस्वरूप, जिसकी प्रतिष्ठा होती है, वह कृष्णस्वरूप नहीं हो सकता क्योंकि वह तो केवल पत्थर ही है। ऐसा पत्थर (मूर्त्ति) किसी को कभी सेवनीय नहीं। इसी प्रकार उसको (मूर्त्ति वा पत्थर को) नमना (झुक कर नमन करना) भी (उचित) नहीं। जो सर्वशक्तिमान्, अवतार-रहित, न्यायकारी, दयालु, सर्वान्तर्यामी, सर्वव्यापक, निराकार और श्रेष्ठ परमात्मा है, उसकी सब मनुष्यों को पूजा करनी और उसी को नमना चाहिये।

 

11-  मिथ्या उपदेश को जो स्वीकार करता और जो दूसरों को कराता है, उसकी सद्गति न तो हुई और न होती है और न होगी भी। जो मनुष्य वेदादि सद्विद्या, पक्षपात-रहित न्याय, और वैर-बुद्धि के त्यागादि धर्म के स्वरूप का बोध कराता है उसको और जो मनुष्य यथावत् ऐसे बोध को स्वीकार करता और न्यायकारी दयालु निराकार परमेश्वर की प्रार्थना उपासना तथा स्तुति बराबर करेगा, केवल उसी को सद्गति प्राप्त होगी।

 

12-  वेद में तो ब्रह्मचर्य सत्यभाषण आदि व्रत करना लिखा है। अतः सिद्ध हुआ कि एकादशी आदि व्रतों का रखना व्यर्थ है।

 

13- छान्दोग्य उपनिषद् में तीर्थ शब्द का अर्थ वेद अथवा ईश्वर का ज्ञान होता है। जिससे अविद्या, जन्म-मरण व हर्ष-शोकादि दुःखों से तरें, उसी का नाम तीर्थ होता है।

 

14-  शिव, विष्णु, गणपति, पार्वती आदि देहधारी (मृतकों) की पूजा और स्वतः जड़ सूर्य की पूजा के विषय में वेद में कहा नहीं। इसलिये एक परब्रह्म की पूजा करनी चाहिये।

 

15-  भूतप्रेतों के निवारण के लिये नारायणकवच अथवा हनुमानमन्त्र का जप करना’, ऐसा उपदेश करने से मालूम पड़ता है कि उस स्वामीनारायण-मत के प्रणेता को भ्रम उत्पन्न हुआ होगा।

 

16-  श्रीकृष्ण ने खुद ही वेदवाक्यों को सर्वोत्कृष्ट माना है।

 

17-  वेदवाक्य सर्वोत्तम है, वह ब्रह्मादि विद्वानों का सिद्धान्त है।

 

18-  ईश्वर कभी जीववत् बनता नहीं क्योंकि सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञता, निर्विकार आदि गुणयुक्त स्वभाव ईश्वर का है।

 

19-  जन्म-मरण, हर्ष-शोक, अल्पशक्ति आदि गुणयुक्त कृष्ण को परब्रह्म भगवान्, पूर्ण पुरुषोत्तम आदि नाम देना बिल्कुल सम्भव नहीं है। एक सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, सर्वान्तर्यामी, सच्चिदानन्दस्वरूप, निर्दोष, निराकार, अवताररहित और वेदयुक्तिसिद्ध परमात्मा को छोड़ के जन्ममरणयुक्त कृष्ण (जी) की उपासना करनी जिसने प्रचलित की है, इससे मालूम पड़ता है कि उसको पदार्थज्ञान बिल्कुल नहीं था।

 

20-  राधा तोअनयनामक ग्वाले की स्त्री थी। कृष्ण का उससे कोई सम्बन्ध नहीं था। कृष्ण की स्त्री का नाम रुक्मिणी था। इससे उसको लक्ष्मीनारायण नाम देना अयोग्य है।

 

21-  कृष्ण (जी) का खुद का ही कल्याण (मोक्ष) हुआ कि नहीं, इस विषय में विद्वानों को संशय उत्पन्न होता है। कृष्ण ने स्वयं ही एक ईश्वर की भक्ति की है और वैसा ही करने का उपदेश किया है।

 

22-  कृष्ण (जी) मर गये, इसलिये अब उनकी भक्ति करनी अयोग्य और निष्फल है। विद्वान् लोग अपनी विद्या के प्रकाश से सर्वदा सद्गति पाते हैं।

 

23-  जो जीव ब्रह्मतुल्य होय, तो जिस प्रकार ब्रह्म ने यह सब जगत् रचा, इसी प्रकार जीव थोड़ा सा ही नवीन जगत् क्योकर नहीं रच लेता? जो जीव-ब्रह्म एक होय, तो अविद्या, जन्म-मरण, हर्ष-शोक, ठंडी-ताप, सुख-दुःख, ताप-पीड़ा और बन्ध आदि दोष ब्रह्म में मानने पड़ेंगे।

 

24-  ऐसे-ऐसे सम्प्रदायों के फैल जाने से अपने आर्यावर्त देश को बहुत हानि उठानी पड़ी। इसलिये सब सज्जनों को श्रम उठाकर इन सम्प्रदायों को जड़-मूल से उखाड़ डालना चाहिये। जो कभी उखाड़ डालने में न आवें, तो अपने देश का कल्याण कभी होने का ही नहीं।

 

25-  सब मनुष्यों को इस प्रकार के पाखण्डों का खण्डन और सत्यधर्म का मण्डन अवश्य करना चाहिये।

 

26-  मनुष्यमात्र का सनातन साम्प्रदायिक ग्रन्थ वेद ही है।

 

27-  जो मनुष्य पाषाणादि मूर्तिपूजनादि पाखण्डों का आचरण करेगा, उसको धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष तो प्राप्त नहीं होगा, बल्कि (उसको) अधर्म, अनर्थ, दुष्ट-इच्छा, बन्ध व नरक आदि दोष अवश्य प्राप्त होंगे।

 

28-  पाषाण आदि मूर्तिपूजन, कण्ठी, तिलक आदि पाखण्डरूप चिन्ह कभी कोई धारण करें। और जो पुरुष इन चिन्हों को धारण नहीं करेंगे, सिर्फ उन्हीं पुरुषों को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति होगी।

 

हमने इन सूक्तियों में कुछ स्थानों पर अर्थ स्पष्ट करने के लिए मामूली सम्पादन किया है। ऋषि जी के भावों को यथावत् रखा है। हम आशा करते हैं कि पाठक इन सूक्तियों को पसन्द करेंगे।

 

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