शिवरात्रि और ऋषि-दयानन्द-बोधोत्सव ईश्वरोपासना के रहस्य को जानने का पर्व

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-मनमोहन कुमार आर्य,

                शिवरात्रि एक पौराणिक पर्व है। फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को यह पर्व मनाया जाता है। इस पर्व में शिवपुराण की कथा सुनते हैं और उपवास रखकर मन्दिरों में शिव की पिण्डी पर जल आदि चढ़ाकर वा जलसे उस मूर्ति को स्नान कराने सहित वहां बेल-पत्र, फूल व फल आदि चढ़ाये जाते हैं। रात्रि को मन्दिरों में जागरण करने की प्रथा है जो अब बहुत कम हो गई है। प्रश्न यह है कि क्या ऐसा करने से ईश्वर उसके सहाय की प्राप्ति हो सकती है? यह प्रश्न इतना सरल नहीं है जितना समझा जाता है। आज का युग ज्ञान व विज्ञान का युग है। आज हम किसी भी विषय में विचार कर उससे सम्बन्धित बातों को पूर्णरूपेण या अधिकांशतः जान सकते हैं। पौराणिक रीति से मूर्तिपूजा करने से कुछ भी प्राप्त नहीं होता, ऐसा वेदों के मर्मज्ञ, वेदज्ञ, ईश्वर के साक्षात्कर्ता ऋषि दयानन्द का मन्तव्य है। वह बताते हैं कि मूर्ति जड़ पदार्थों से बनती है। जड़ पदार्थों वा मूर्ति में किसी मनुष्य की भावना विचारों को जानने, समझने सुनने की शक्ति नहीं होती। जड़ पदार्थों का उपयोग तो हम भवन निर्माण आदि कार्यों में ही अधिकांशतः करते हैं तथा यही इसका सदुपयोग है। जड़ पदार्थों से इच्छानुसार मूर्ति की शक्ल भी बनाई जा सकती है। मूर्ति का गुण जड़त्व चेतन व ज्ञानयुक्त नहीं है। यदि हम अपनी बात किसी को समझाना चाहते हैं तो हमें अपनी भाषा में बोल कर व बाडी-लैंग्वेज के द्वारा समझाना होता है। जिससे बात करते हैं व जिसके लिए विचार प्रस्तुत करते हैं, वह सत्ता ज्ञानयुक्त चेतन पदार्थ होना चाहिये। हमारी आत्मा चेतन पदार्थ है। इसे जीव व जीवात्मा भी कहते हैं। इसके गुण ज्ञान व कर्म हैं। हमारी जीवात्मा स्वाभाविक ज्ञान रखती है और इसे भाषा के ज्ञान, उपदेश श्रवण, अध्ययन, चिन्तन व मनन सहित ईश्वर की उपासना से बढ़ा भी सकते हैं। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप अर्थात् सत्तावान, चेतनस्वरूप तथा आनन्दस्वरूप सहित निराकार, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी आदि गुणों वाला है। ईश्वर चेतन, सर्वाव्यापक सर्वान्तर्यामी होने के कारण ही हमारी आत्मा के विचारों भावों को जानता है तथा हम मुंह से बोलकर मन में विचारकर ईश्वर से जो प्रार्थना करते हैं उसे वह अपने सर्वान्तरयामी सत्ता गुण से जान लेता है। अतः ईश्वर की उपासना किसी मूर्ति के द्वारा न करके हमें ईश्वर को अपनी आत्मा व शरीर में विद्यमान जानकर उसके गुणों का ध्यान करते हुए करनी चाहिये। ईश्वर हमारे मन की बातों को जानता व मुंह से बोली बातों को सुनता भी है तथा उन्हें हमारी पात्रता के अनुसार पूरी भी करता है। इसी को विस्तार से समझाने के लिये प्राचीन काल में महर्षि पतंजलि ने योगदर्शन शास्त्रीय ग्रन्थ का प्रणयन किया था जिसमें धारणा व ध्यान के द्वारा ही ईश्वर प्राप्ति व ईश्वर साक्षात्कार का उल्लेख किया गया है। मूर्तिपूजा का आरम्भ महाभारत के ढाई हजार वर्षों बाद जैन व बौद्ध मतों की स्थापना के बाद हुआ। हिन्दुओं ने जैन आदि मतों का अनुकरण कर ही मूर्तिपूजा को अपनाया क्योंकि तब तक सामान्यजन ईश्वर के निराकार स्वरूप की उपासना की विधि को भूल चुके थे। यज्ञों में हिंसा के कारण बौद्धमत के यज्ञों के विरुद्ध प्रचार से लोग यज्ञों से दूर जा चुके थे। योग दर्शन एवं ऋषि दयानन्द प्रदर्शित सन्ध्या व ईश्वरोपासना ही ईश्वर की प्राप्ति व साक्षात्कार की विधि है। हम वेद व ऋषियों द्वारा वर्णित ईश्वर के गुणों को जानकर उसका ध्यान, चिन्तन-मनन, भजन, उसका पठन-पाठन तथा ईश्वर के मुख्य व निज नाम ओ३म् व गायत्री मन्त्र आदि का जप करके ही सच्ची उपासना को प्राप्त हो सकते हैं।

                हम जो भी काम करें उसके लिये हमें विद्वानों की शरण में जाकर उसे जानना व समझना होता है और उनको समझ कर व सन्तुष्ट होने पर ही उस हमें उपासना के कार्य को करना चाहिये। उपासना से इतर कार्यों में हम ऐसा करते भी हैं। अतः ईश्वरोपासना वा ईश्वर प्राप्ति के लिये हमें प्रामाणिक वेदानुकूल उपनिषदों, योग आदि दर्शन ग्रन्थों सहित वेद एवं सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय आदि का अध्ययन करना चाहिये। इन ग्रन्थों का अध्ययन व स्वाध्याय करके हम ईश्वर की उपासना का स्वरूप व विधि को भी जान सकेंगे। समाज में दो प्रकार के विद्वान होते हैं। एक परम्परा का पालन करने वाले व दूसरे ज्ञानी, चिन्तक, विचारक, विवेकी, तर्क व युक्ति का आश्रय लेकर उचित-अनुचित व सत्यासत्य का निर्णय करने वाले विद्वान। इस दूसरे प्रकार के विद्वानों की शरण में जाकर हम ईश्वर उपासना की सच्ची व यथार्थ विधि सीख सकते हैं। परम्परा का पालन करने वाले, अशुद्ध ज्ञान रखने वाले, सत्शास्त्रों व सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय न करने वाले, विद्वानों की संगति तथा सदाचार से दूर रहने वाले मनुष्य व लोग ईश्वर की उपासना के सच्चे स्वरूप व विधि को नहीं जान सकते। यही कारण है कि हमारे समाज में मूर्तिपूजा प्रचलित है। स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने मूर्तिपूजा करने में अनेक दोष व हानियों का उल्लेख सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में किया है। उन्होंने यह भी बताया है कि देश की पराधीनता व आर्य हिन्दुओं के पतन में सबसे प्रमुख भूमिका मूर्तिपूजा, अवतारवाद का काल्पनिक सिद्धान्त तथा फलित ज्योतिष में अन्धी श्रद्धा आदि कृत्य रहे हैं। यदि हम वेदों के मार्ग पर चल रहे होते, महाभारत के बाद हमने यज्ञों में पशु हिंसा न की होती, ईश्वर की उपासना की सच्ची विधि को न छोड़ा होता, ज्ञान व सद्कर्मों का समाज में महत्व होता, अज्ञानियों की बातों को महत्व न दिया होता और स्वविवेक से सभी विषयों की परीक्षा कर उन्हें स्वीकार किया होता तो हमारा जो पतन हुआ व अब भी कई अर्थों में है, वह कदापि न होता। हमारा कर्तव्य है कि हम अपने सभी स्वार्थों व पूर्वाग्रहों को भूलकर शुद्ध ज्ञान के आधार पर ईश्वरोपासना की सत्य विधि का निश्चय करें तभी हम पतन से बच सकते हैं। ऋषि दयानन्द ने वेदों, उपनिषदों व दर्शनों का अध्ययन करने सहित तर्क, युक्ति व अपने वैदुष्य एवं विवेक के आधार पर वेदानुकूल सन्ध्या वा ईश्वरोपासना की विधि हमें प्रदान की है। वह विधि वर्तमान में उपलब्ध सभी उपासना पद्धतियों में सर्वोत्तम है। आप इसे पढ़ेंगे तो पायेंगे कि यही सच्ची उपासना की विधि है और इसे करने से हमारा ईश्वर के प्रति धन्यवाद व आभार ज्ञापन का जो कर्तव्य है, वह पूरा हो जाता है। ऋषि दयानन्द ईश्वरोपासना की इस विधि तक इस कारण पहुंच सके क्योंकि उन्होंने चौदह वर्ष की आयु में शिवरात्रि की कथा सुनकर, शिव का व्रत रखकर और टंकारा के शिवमन्दिर में रात्रि जागरण कर ईश्वर के स्वरूप का विवेचन किया था और मूर्तिपूजा के महत्व व उससे बताये जाने वाले लाभों की सम्भावना पर प्रश्न किये थे जिनका उत्तर उस युग में उनके माता-पिता, किसी विद्वान साधु व संन्यासी तथा ज्ञानी व आचार्य के पास भी नहीं था। यही कारण था कि वह ईश्वर की उपासना की सच्ची विधि के अनुसंधान व खोज में लगे रहे और योग्य गुरुओं से योग सीख कर तथा उसे अपने जीवन में चरितार्थ कर, ईश्वर का साक्षात्कार कर और उसके बाद मथुरा के प्रज्ञाचक्षु दण्डी गुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती से आर्ष व्याकरण व विद्या का अध्ययन कर वेदों के विद्वान बने। ऋषि दयानन्द ने लगभग तीन हजार प्रमाणिक ग्रन्थों से अधिक ग्रन्थों का अध्ययन किया था और उससे निष्कर्ष निकाल कर उनका विश्लेषण अभ्यास कर दूध से मक्खन तथा वैचारिक मन्थन कर सत्य को प्राप्त किया था। हमें भी यह स्वतन्त्रता प्राप्त है कि हम भी ईश्वरोपासना के पक्ष व विपक्ष में उपलब्ध सभी सहित्य का अवलोकन व अध्ययन कर अपने विवेक से सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करें क्योंकि सत्य का ग्रहण ही मनुष्य जीवन की उन्नति के लिये आवश्यक एवं अनिवार्य है और असत्य का आचरण, जानबूझकर व अज्ञानतावश, मनुष्य के पतन व दुःख का कारण होता है। हम आशा करते हैं कि इस विवेचन से हमारे पाठक ईश्वरोपासना विषयक कुछ जानकारी को तो अवश्य प्राप्त होंगे। हमारा उद्देश्य उन्हें सत्य उपासना का स्वरूप बताना और सत्य को स्वेच्छा से, अपने हित व अहित का ध्यान करते हुए, मनवाना है। क्योंकि ऐसा करना ही मनुष्य वा वैदिक धर्म है।

                इस लेख में हमने शिवरात्रि, सच्ची ईश्वरोपासना तथा इसमें ऋषि दयानन्द के योगदान की चर्चा की है। ऋषि दयानन्द ने जब 14 वर्ष की अवस्था में सन् 1839 में टंकारा में शिवरात्रि का व्रत रखा था तब उनके साधारण प्रश्नों का समाधान उनके विद्वान पिता जो शिवपुराण का अध्ययन व कथा करते थे, नहीं कर सके थे। ऋषि दयानन्द को यह भी शंका थी कि मृत्यु क्या है? यह क्यों होती है और मरने के बाद जीवात्मा का क्या होता है? ऋषि दयानन्द ने नचिकेता के समान इन प्रश्नों को सर्वाधिक महत्वपूर्ण जानकर इन्हें भी अपने जीवन का उद्देश्य बनाया। ईश्वर की कृपा से उन्हें इन सभी प्रश्नों के उत्तर व समाधान प्राप्त हुए। देश व आर्य हिन्दू जाति के पतन व इसके उत्थान के उपायों व साधनों का भी उन्हें ज्ञान हुंआ। अतः उन्होंने देश की उन्नति, उत्थान तथा मानवजाति के सुख कल्याण, परहित परोपकार के लिये अपना शेष जीवन उसका एक एक पल समर्पित किया। उन्होंने देश के अनेक स्थानों वा प्रदेशों में जाकर धर्म प्रचार किया और इस कार्य को बल प्रदान करने के लिये आर्यसमाज की स्थापना सहित सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, पंचमहायज्ञविधि, गोकरुणाविधि, व्यवहारभानु सहित वेदभाष्य आदि अनेक ग्रन्थों की रचना कर एक अभूतपूर्व कार्य किया। उनके इन कार्यों से शिवरात्रि का सत्यस्वरूप लोगों के सामने आया। यह स्वरूप है ईश्वर व जीवात्मा सहित प्रकृति के सत्यस्वरूप को जानने सहित ईश्वरोपासना की सत्य विधि का ज्ञान और उसके अनुरूप आचरण व व्यवहार करना। शिवरात्रि का यह पर्व इसी रूप में मनाया जाना चाहिये। शिवरात्रि व बोधरात्रि के दिन ईश्वर के स्वरूप व उपासना से सम्बन्धित विद्वानों के प्रवचनों को सुनने सहित ऋषि दयानन्द के जीवन की शिवरात्रि की घटना के अध्ययन एवं मूर्तिपूजा से होने वाली हानियों को जानना चाहिये और सत्य का ग्रहण एवं असत्य का त्याग करना चाहिये। ओ३म् शम्। 

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