मन से जीतते रहे हैं शिवराज सिंह

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मनोज कुमार
आज ही दिन एक वर्ष पहले मध्यप्रदेश की राजनीति ने इतिहास लिखा गया था. पहली दफा कोई राजनेता चौथी दफा मुख्यमंत्री पद की शपथ लेता है. निश्चित रूप से यह प्रदेश के लिए अविस्मरणीय पल था और इस पल को गौरवांवित करने वाले नेता के रूप में शिवराजसिंह चौहान का नाम दर्ज हो चुका है. मध्यप्रदेश की राजनीति में पताका फहराने वाले शिवराजसिंह की चाहत कभी लाल कॉरपेट के नायक बनने की नहीं रही बल्कि वे अपने आपको खुरदुरी जमीन पर चलने वाले एक किसान के बेटे के रूप में ही स्वयं को बनाए रखा. अपने चौथे कार्यकाल के पहले वर्ष की मीमांसा की जाए तो वे कांटों की ताज पहन कर मध्यप्रदेश को एक नई दिशा और दृष्टि देने में जुटे रहे. उनके पिछले कार्यकाल से तुलना की जाए तो बीते एक वर्ष उन्हें पल भर भी उन्हें चैन से रहने दिया. जिस जीवटता के साथ शिवराजसिंह बेपरवाह होकर अपने काम को अंजाम देते रहे हैं, उसे अनदेखा नहीं किया जा सकता. इस एक साल में बाहर और भीतर दोनों से सामना करना पड़ रहा था. एक तरफ वैश्विक महामारी कोरोना से प्रदेश को रोग मुक्त कराना और दूसरी तरफ जर्जर आर्थिक स्थिति के बीच सामंजस्य बिठाकर प्रदेश की गतिविधियों को सुचारू बनाए रखना था जिसमें वे किसी भी दृष्टि से असफल नहीं दिखते हैं.


धुन के पक्के शिवराजसिंह उपर से बेफिक्र दिखते रहे लेकिन अपने अनुभवों के आधार पर मध्यप्रदेश को गढऩे की कोशिश में जुट गए थे। लगातार 13 वर्ष तक मध्यप्रदेश की सत्ता पर ना केवल बने रहे बल्कि उन्होंने इतिहास रच दिया। इसका एक बड़ा कारण वे आम आदमी के मुख्यमंत्री रहे और आम आदमी की तरह उनकी कार्यशैली रही। गैरों को अपना बना लेना और अपनों की दुख तकलीफ में साथ खड़े रहने की उनकी आत्मीयता के कारण भाजपा मध्यप्रदेश में भारी बहुमत से विजय प्राप्त करती रही। मध्यप्रदेश के राजनीतिक इतिहास का मूल्यांकन होगा तो चार बार मुख्यमंत्री के रूप में कम और खुरदुरी जमीन पर चलने वाले जननायक के रूप में उल्लेख होगा। सत्ता की बागडोर चौथी बार सम्हालने के बाद उनके सामने प्रदेश की इतिहास में संभवत: सबसे बड़े उप-चुनाव का उन्हें सामना करना था. चुनौती बड़ी थी लेकिन उनकी लोकप्रियता ने इस उप-चुनाव में भी उनके झंडे गाड़ दिए।
चौथी दफा मुख्यमंत्री के रूप में शिवराजसिंह की वापसी होती है तो पिछले कार्यकाल के मुकाबले इस बार चुनौती चौतरफा होती है। ऐसा भी नहीं है कि शिवराजसिंह इन चुनौतियों को देखकर सहमे नहीं हों या घबराये नहीं हों लेकिन लीडर के रूप में चुनौतियों को उन्होंने एक संभावना के रूप में लिया। पूरे प्रदेश में कोरोना महामारी से हाहाकार मचा हुआ था। सत्ता में उनके आने के पूर्व इस महामारी से लडऩे के लिए कोई बेहतर व्यवस्था नहीं थी। प्रदेश की आर्थिक स्थिति खस्ताहाल थी। उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और जुट गए चुनौतियों से निपटने के लिए। अपनी चिर-परिचित शैली में वे लोगों से व्यक्तिगत रूप से मिलते रहे। हौसला बंधाते रहे। कहते हैं मन के हारे हार है और मन के जीते जीत। शिवराजसिंह ने मन को पराजित नहीं होने दिया।
शिवराजसिंह चौहान की पहचान एक मुख्यमंत्री के रूप में है और इतिहास के पन्नों में भी उन्हें इसी पहचान के साथ दर्ज किया जाएगा लेकिन सच तो यह है कि अपना सा लगने वाला यह मुख्यमंत्री हमारे बीच का, आज भी अपना सा ही है. शिवराजसिंह के चेहरे पर तेज है तो कामयाबी का लेकिन मुख्यमंत्री होने का गरूर पहले भी नहीं रहा और आज भी नहीं होगा. चेहरे पर राजनेता की छाप नहीं. सत्ता के शीर्ष पर बैठने की उनकी कभी शर्त नहीं रही बल्कि उनका संकल्प रहा है प्रदेश की बेहतरी का.
उल्लेखनीय है कि 2005 में मुख्यमंत्री के इस परम्परागत चेहरे के विपरीत सादगी भरा एक चेहरा नुमाया हुआ था शिवराजसिंह चौहान का. संसद से विधानसभा और मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने के बाद भी उन्होंने अपने लिए कोई बनावट नहीं की. उनकी बुनावट इतनी मोहक थी कि कभी पांव पांव वाले भइया के नाम से मशहूर शिवराजसिंह मामा के नाम से मशहूर हो गए. अपनों और परायों को मुरीद बना लेना शिवराज सिंह चौहान के व्यक्तित्व की खासियत है तो राजनीतिक कौशल का लोहा भी वे मनवाते रहे हैं. एक बार फिर मध्यप्रदेश की राजनीति में वे चाणक्य बनकर नहीं बल्कि एक सौम्य राजनेता के रूप में अपनी वापसी की है. एक जननेता और जननायक के रूप में उनकी छवि बेमिसाल है क्योंकि वे सहज हैं, सरल हैं और आम और खास दोनों के लिए सर्वदा उपलब्ध रहने वाले राजनेताओं में हैं. 13 वर्षों के अपने लम्बे कार्यकाल में ऐसे कई अवसर आए जब वे मुख्यमंत्री के रूप में नहीं बल्कि कभी घर-परिवार के मुखिया बनकर तो कभी भाई और मामा बनकर. मामा शिवराजसिंह की जब एक बार फिर वापसी हुई है तो प्रदेश की जनता की उम्मीदें और बढ़ गई है. यह उम्मीदें शिवराज सरकार के लिए चुनौतीपूर्ण है लेकिन सच यही है कि चुनौतियों को संभावना में बदलने का नाम ही शिवराजसिंह चौहान है.
इस अवसर पर एक घटना का उल्लेख करना लाजिमी हो जाता है. विदिशा में जब वे सडक़ निर्माण का औचक निरीक्षण के लिए पहुंचते हैं और बताते हैं कि वे मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान हैं तो मजदूर उन्हें पहचानने से इंकार कर देते हैंं. इस वाकये से शिवराजसिंह के चेहरे पर गुस्से का भाव नहीं आता है बल्कि वे हंसी में लेते हैं. साथ चल रहे अफसरों को कहते हैं चलो, भई यहां शिवराज को कोई पहचानता नहीं. क्या यह संभव है कि एक मुख्यमंत्री को उसकी जनता पहचानने से इंकार करे और वह निर्विकार भाव से लौट आए? यह सादगी शिवराजसिंह में मिल सकती है. शिवराजसिंह की सादगी के यह उद्धरण वह हैं जिसकी गवाही पूरा मध्यप्रदेश दे रहा है. हां, यह बात भी तय है कि जब आप शिवराजसिंह चौहान को मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में जांचते हैं, परखते हैं तो एक राजनेता के रूप में कुछ कमियां आप को दिख सकती हैं. कुछ फैसले सबके मन के नहीं होते हैं और इस बिना पर आप उन्हें घेरे में ले सकते हैं लेकिन एक आदमी से जब आप सवाल करेंगे तो उनका जवाब होगा कि अपना अपना सा लगने वाला यह शिवराज हमारा मुख्यमंत्री है और हमें ऐसा ही मुख्यमंत्री चाहिए. शिवराजसिंह चौहान चौथी दफा मध्यप्रदेश के सिंहासन पर विराजमान हैं तो वह सारे मिथक टूट जाते हैं.

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मनोज कुमार
सन् उन्नीस सौ पैंसठ के अक्टूबर माह की सात तारीख को छत्तीसगढ़ के रायपुर में जन्म। शिक्षा रायपुर में। वर्ष 1981 में पत्रकारिता का आरंभ देशबन्धु से जहां वर्ष 1994 तक बने रहे। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समवेत शिखर मंे सहायक संपादक 1996 तक। इसके बाद स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य। वर्ष 2005-06 में मध्यप्रदेश शासन के वन्या प्रकाशन में बच्चों की मासिक पत्रिका समझ झरोखा में मानसेवी संपादक, यहीं देश के पहले जनजातीय समुदाय पर एकाग्र पाक्षिक आलेख सेवा वन्या संदर्भ का संयोजन। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी पत्रकारिता विवि वर्धा के साथ ही अनेक स्थानों पर लगातार अतिथि व्याख्यान। पत्रकारिता में साक्षात्कार विधा पर साक्षात्कार शीर्षक से पहली किताब मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा वर्ष 1995 में पहला संस्करण एवं 2006 में द्वितीय संस्करण। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय से हिन्दी पत्रकारिता शोध परियोजना के अन्तर्गत फेलोशिप और बाद मे पुस्तकाकार में प्रकाशन। हॉल ही में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा संचालित आठ सामुदायिक रेडियो के राज्य समन्यक पद से मुक्त.

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