डॉ. वेदप्रताप वैदिक
दिल्ली में इस बार लगभग 13 सौ लोगों को डेंगू हुआ। कई बच्चों और नौजवानों ने भी अपने प्राणों से हाथ धोए। लेकिन एक ऐसी मर्मभेदी दुर्घटना हुई, जिसे लिखते हुए मेरी कलम कांप रही है। एक गरीब माता−पिता 7 वर्ष के बच्चे को लेकर अस्पतालों के चक्कर लगाते रहे लेकिन सभी अस्पताल बहाना बनाते रहे कि उनके यहां जगह नहीं है। पलंग खाली नहीं है। नतीजा क्या हुआ, उस बच्चे ने दम तोड़ दिया। उसके युवा माता−पिता को इतना जबर्दस्त धक्का लगा कि उन्होंने आत्म−हत्या कर ली। कितना शर्मनाक हादसा हुआ, यह। यह कहां हुआ? दिल्ली में! सरकार की नाक के नीचे! दिल्ली सरकार ने उन चार−पांच अस्पतालों को नोटिस भेजकर छुट्टी पाई कि आपके खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं की जाए?अस्पताल कह रहे हैं कि हमें पता ही नहीं कि वह मरीज़ कब लाया गया! क्या आप सोचते हैं कि मोदी और अरविंद की सरकारों में इतना दम है कि वे इन सरकारी और गैर−सरकारी अस्पतालों की खाट खड़ी कर सकें? यदि कर भी दें तो क्या होगा? किसी एक मामले में वे माफी मांग लेंगे और फिर वही चाल बेढंगी फिर शुरु हो जाएगी।
राष्ट्र के सामान्य नागरिकों के प्रति हो रही इस लापरवाही का एक ही तात्कालिक उपाय मुझे सूझता है। मैं नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल से आशा करता हूं कि वे इस उपाय को करके दिखाएं। क्या वे ऐसा नियम बना सकते हैं कि दिल्ली सरकार के सभी कर्मचारी, सभी चुने हुए प्रतिनिधि, सभी न्यायाधीश और सभी मान्यता प्राप्त पत्रकारों के लिए यह अनिवार्य हो कि वे अपना और अपने परिवारजन का इलाज सरकारी अस्पतालों में ही करवाएं। जो न करवाएं, उन पर बड़ा जुर्माना हो और उन्हें अपदस्थ करने या उनकी मान्यता खत्म करने का भी प्रावधान हो। किसी विशेष बीमारी या आपात्—स्थिति में सरकार से अनुमति लेकर वे बाहर भी इलाज करवा सकते हैं।
यह उपाय मेरे उस सुझाव के अनुसार ही है, जो मैंने शिक्षा के बारे में दिया था और जिसे इलाहबाद उच्च न्यायालय ने उ.प्र. में लागू कर दिया है। सभी सरकारी कर्मचारियों, चुने हुए जन−प्रतिनिधियों और न्यायाधीशों के बच्चे अनिवार्य रुप से सरकारी स्कूलों में पढ़ेंगे। यदि ये दोनों सुझाव सारे देश में लागू हो जाएं तो भारत की शिक्षा और स्वास्थ्य का नक्शा ही बदल जाए। गैर−सरकारी अस्पताल और शिक्षा संस्थाएं अच्छा काम कर रही हैं लेकिन क्या सरकार इन्हें लूटपाट के अड्डे बनने से बचाएगी?
डाक्टर वैदिक,शिक्षा के लिए सरकारी स्कूलों और स्वास्थ्य के लिए सरकारी अस्पतालों को सुदृढ़ बनाने के लिए सरकारों को ढोस कदम उठाने की मांग हमारे जैसे लोग बहुत पहले से कर रहे हैं.उन्ही सुझाओं के मदे नजर यह भी कहा गया था कि किसी भी स्कूलशिक्षक के लिए यह शर्त होना चाहिए कि वह अपने बच्चे को उसी स्कूल में पढ़ायेगा,जहाँ वह शिक्षक हो.यह भी हमलोग कहते आ रहे हैं कि जब हम सरकारी नौकरी के लिए जान देते हैं,तो हमें सरकारी स्कूलों और सरकारीअस्पतालों से परहेज क्यों?मैंने बहुत बार इस बारे में प्रधान मंत्री को भी लिखा है.
अब आती है,बात डेंगूं पर.जब कोई बीमारी महामारी का रूप धारण करती है ,तो उस समय तो उसकी रोकथाम के लिए प्रयत्न करना चाहिए और रोगियों केलिए अच्छी से अच्छी सुविधाएं उपलब्ध कराना चाहिए,पर आपने जो सरकारी अस्पतालों और दूसरे अस्पतालों कि बात कही है,तो सरकार या सरकारों का कर्तव्य यहीं नहीं समाप्त होता. दिल्ली में २०१० में डेंगू ने महामारी का रूप लिया था.बीच के वर्षों में डेंगू का प्रभाव कम रहा.इस साल फिर उसका भयानक रूप सामने है.क्या यह सरकारों का ,खास कर केंद्र सरकार का कर्तव्य नहीं कि वह इसकी विधिवत जांच कराये और दोषियों को दंड दे की ऐसा क्यों हुआ और ऐसे कारगर उपाय किये जाएँ कि इसकी पुनरावृति न हो.
वे नेता अपना इलाज एम्स में कराते हैं जो कि सरकारी ही है , बाकी अस्पतालों में जा कर उन्हें मरना नहीं है , वैसे भी इनको बीमारी आती भी कहाँ हैं वह भी आम गरीबजन को ही अपना शिकार बनाती है , इन नेताओं को तो केवल उनकी बीमारी व मौत पर अपनी रोटियां सेकनी होती है जो सेक रहे हैं