जब भी देनी चाही
किसी ने आवाज
वह हंसा-
एक तीखी हंसी
यूं देना चाहते हो
तुम आवाज किसे ?
यूं दे पाओगे कभी
आवाज व्यवस्था को
क्या ऐसी होती है
आवाज बदलाव की
यह नहीं है आवाज
१२१ करोड़ आवाम की
देखना, एक दिन
तमाम प्रयासों
छटपटाहटों और
आक्रोशों के बावजूद
हार जाओगे तुम
हो जायेगा तुम्हारा
मोहभंग-एक दिन
ऐसा नहीं है कि तुम
हो असमर्थ
पर आवाज तुम्हारी
सामूहिक नहीं भाई
रह गये हो तुम
बन के तमाशाई
प्रत्येक पल,
प्रत्येक दिन
बिखर रही है
तुम्हारी आवाज
बंट गए हो तुम
वर्गों और खानों में
जाति और धर्मों में
नहीं दिखती इसमें
वह चिंगारी जिससे
भभकता है अंगार
नहीं है इसमें वो
हुंकार और ललकार
जिससे हिल उठे
सोयी हुई चेतना
जिससे डोल जाये
सत्ता-सिंहासन
जिससे दहल उठे
अहंकारी शासन
क़दमों में झुके
सारा आसमान
सुनी है तुमने कभी
जंगल से आती आवाज
चिंघाड़ती लहरों की आवाज
जैसे चलती है हवा
बनके तूफान
जैसे दहाड़ता है शेर
जैसे फुंकारता है अजगर
जैसे गरजता है मेघ
कुछ वैसी होती है
आवाज बदलाव की
उठा सकते हो वैसी
बुलंद-प्रचंड आवाज
भर सकते हो वैसी
हुंकार।