अर्थव्यवस्था के फिर से पटरी पर लौटने के संकेत

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-ललित गर्ग-
कोरोना वायरस के संक्रमण से जुड़ी खबरों ने फिलहाल थोड़ी राहत भले ही दी है, लेकिन खतरा टला नहीं है, इसके संकेत भी साफ है। जहां तक समाज एवं अर्थव्यवस्था पर पड़े इसके असर का मामला है, अभी इन सबसे उबरने में काफी समय लग सकता है। विशेषतः भारत की अर्थ-व्यवस्था तो पहले से अपनी स्थिति को मजबूत करने की स्थिति से जूझ रही थी, कोरोना महामारी ने उसे और गहरे घाव दिये हंै। भारत की स्थिति ज्यादा खराब होने का कारण यहां खूब संक्रमण हुआ और बहुत कड़े लाॅकडाउन की वजह से अर्थव्यवस्था अपंग हो गई है। सरकार एवं नीति-नियंता शायद सार्वजनिक रूप से इसी स्वीकार नहीं करेंगे, लेकिन यही कठोर वास्तविकता है।


लॉकडाउन के दौरान बंद बहुत सी छोटी इकाइयां अभी भी नहीं खुल सकी हैं। इस क्षेत्र में बेरोजगार हो गए सभी लोगों को रोजगार मिल गया हो, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। लेकिन फिलहाल का सच यही है कि स्थितियां अब उतनी भी खराब नहीं हैं, जितनी पांच-छह महीने पहले लग रही थीं। कोरोना संक्रमण के सच को स्वीकार करते हुए देश ने आगे बढ़ना शुरू कर दिया है, लेकिन लंबा रास्ता अभी बाकी है। अक्तूबर का जीएसटी संग्रह एक लाख करोड़ रुपये तक पहंुच गया है, जो कि अर्थव्यवस्था के फिर से पटरी पर लौटने का सबसे बड़ा संकेत माना जा सकता है। इससे भी ज्यादा राहत देने वाली खबर फैक्टरी उत्पादन का सूचकांक पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय का सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंचना है। निक्कई परचेजिंग मैनेजर इंडेक्स के अनुसार अक्तूबर महीने में यह 58.9 पर पहुंच गया है। अगर इस सूचकांक के हिसाब से देखें, तो यह ठीक है कि अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट आई है, अक्तूबर में तमाम तरह के आंकड़े बाजार से हताशा के बादल छंटने के संकेत दे रहे हैं। विशेषतः ऑटोमोबाइल क्षेत्र के आंकड़े इतने बेहतर और हैरान करने वाले रहे है। दुपहिया वाहनों और कारों की बिक्री खासी उम्मीद बंधा रही है। लेकिन अर्थव्यवस्था के लिये जरूरी है, उसका इन पटरियों पर रफ्तार पकड़कर मंजिल की ओर बढ़ना। हमारी सरकारों और वित्तीय संस्थाओं को अपने प्रयासों में कोई कमी नहीं छोड़नी चाहिए और सशक्त आर्थिक नीतियों के द्वारा देश को समग्र विकास की ओर अग्रसर करना चाहिए।
दुनियाभर में यह कटु सच्चाई है कि नीति नियंताओं को वास्तव में नहीं पता कि उन्हें क्या करना है। भारत में अर्थ-व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिये भी ऐसी ही स्थिति है। फिर भी भारत की वर्तमान अर्थव्यवस्था को सशक्त बनाने के लिये अन्यान्य प्रयत्नों के साथ चार मुख्य बिन्दु हैं-गरीबी को मिटाना, जनसंख्या की वृद्धि को रोकना, पर्यावरण में सुधार करना एवं बेरोजगारी का उन्मूलन करना। ऐसा लगता है-गरीबी और जनसंख्या में भी कोई निकट का संबंध है। गरीब के संतान ज्यादा होती है क्योंकि कुपोषण में आबादी ज्यादा बढ़ती है। विकसित राष्ट्रों में आबादी की बढ़त का अनुपात कम है, अविकसित और निर्धन राष्ट्रों में आबादी की बढ़त का अनुपात ज्यादा है। प्राचीन संस्कृत साहित्य में एक प्रसंग आता है-दरिद्रता दुखतर है और उसके साथ जुड़ा दुख है संतान का आधिक्य। दारिद्रता की पीड़ा और संतति के आधिक्य की पीड़ा-दोनों ओर से आदमी पीड़ित होता है। जनसंख्या-वृद्धि के अनेक कारण हो सकते हैं, किन्तु कालखण्ड का प्रभाव और कुपोषण-ये दोनों जनसंख्या वृद्धि के सबसे प्रमुख कारण बनते हैं।
विश्व की सारी संपदा, सारे संसाधन गरीबी को मिटाने में लगते तो आज स्थिति बहुत भिन्न होती, किन्तु बीच में व्यवधान आ गए। कोरोना का व्यवधान भी गरीबी मिटाने की दिशा में गति का एक बड़ा अवरोध है। अब तक सम्पदा का उपयोग मानव को सुखी या सामान्य बनाने की दिशा में नहीं हुआ, बल्कि संहारक अस्त्रों के निर्माण में हुआ। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र से भयभीत हो गया। शस्त्रों की होड़ सी लग गई। यू.एन.ओ. की एक रिपोर्ट के आंकड़ों को देखें तो पता चलेगा कि अर्थशक्ति और संसाधन किस दिशा में लग रहे हैं। दुनिया का अधिकांश अर्थ प्रतिवर्ष सुरक्षा पर व्यय हो रहा है। मानव की सुरक्षा के लिए नहीं, अपनी भौगोलिक सुरक्षा के लिए यह व्यय किया जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र सतत विकास लक्ष्य में यह बताया गया है कि किसी एक विशेष कारण के चलते नहीं बल्कि विभिन्न कारणों की वजह से लोगों को गरीबी में जीवन व्यापन करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। इसलिए यह आवश्यक है कि केवल आय का स्रोत एवं आमदनी ही गरीबी का कारण नहीं है बल्कि भोजन, घर, भूमि, स्वास्थ्य, सुरक्षा आदि भी गरीबी के निर्धारण में भूमिका निभाते हैं।
भारत में गरीबी का मुख्य कारण बढ़ती जनसंख्या, कमजोर कृषि, भ्रष्टाचार, रूढ़िवादी सोच, जातिवाद, अमीर गरीब में ऊंच-नीच, नौकरी की कमी, अशिक्षा, बीमारी आदि है। भारत एक कृषि प्रधान देश है जिसकी एक बड़ी जनसंख्या कृषि पर निर्भर है, आज देश के यही किसान गरीबी की मार झेल रही है। खराब कृषि और बेरोजगारी की वजह से लोगों को भोजन की कमी से जूझना पड़ता है। यही कारण है कि महंगाई ने भी पंख फैला रखे हैं। बढ़ती जनसंख्या भी गरीबी का एक प्रमुख कारण है।
केंद्र सरकार ने वर्ष 2012 में बताया कि भारत में 21.9 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा से नीचे रहती है। विश्व बैंक की वर्ष 2011 रिपोर्ट में कहा गया कि भारत की 23.6 प्रतिशत जनसंख्या (लगभग 276 मिलियन) की प्रतिदिन क्रय शक्ति 1.25 डॉलर प्रतिदिन है। इसके अतिरिक्त 2016 में जारी अंतरराष्ट्रीय भुखमरी सूचकांक में भारत को 97वां स्थान मिला है। इसमें विकासशील देशों के लिए औसत दर 21.3 रखी गयी थी जबकि भारत की यह दर 28.5 प्रतिशत थी। गरीबी उन्मूलन की दिशा में योगदान देने के लिए भारतीय मूल के अभिजीत बनर्जी का नोबेल पुरस्कार हेतु चयनित होना सुखद है। लेकिन दुखद पहलू यह है कि उनके ही देश के अधिकत्तर लोग गरीबी भरा जीवन जीने को विवश है।
भारत लंबे समय से गरीबी का दंश झेल रहा है। स्वतंत्रता पूर्व से लेकर स्वतंत्रता पश्चात भी देश में गरीबी का आलम पसरा हुआ है। गरीबी उन्मूलन के लिए अब तक कई योजनाएं बनीं, कई प्रयास हुए, गरीबी हटाओ चुनावी नारा बना और चुनाव में जीत हासिल की गई। लेकिन इन सब के बाद भी न तो गरीब की स्थिति में सुधार हुआ और न गरीबी का खात्मा हो पाया। सच्चाई यह है कि गरीबी मिटने के बजाय देश में दिनोंदिन गरीबों की संख्या में बढ़ावा हो रहा है। सत्ता हथियाने के लिए गरीब को वोटबैंक के रूप में इस्तेमाल किया गया तो सत्ता मिलने के बाद उसे हमेशा के लिए अपने हाल पर छोड़ दिया गया। इसलिए गरीब आज भी वहीं खड़ा है जहां आजादी से पहले था। आज भी सवेरे की पहली किरण के साथ ही गरीब के सामने रोटी, कपड़ा और मकान का संकट खड़ा हो जाता है। दरअसल, यह कम विडंबना नहीं है कि सोने की चिड़िया के नाम से पहचाने जाने वाले देश का भविष्य आज गरीबी के कारण भूखा और नंगा दो जून की रोटी के जुगाड़ में दरबदर की ठोकरें खा रहा है। नरेन्द्र मोदी सरकार की गरीबी उन्मूलन एवं जनसंख्या नियंत्रण की योजनाओं से कुछ उजाला होता हुआ दिख रहा है।

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