विवेक कुमार पाठक
आम आदमी पार्टी के नेता और पत्रकारिता छोड़कर कलम की जगह राजनीति की झाडू़ पकड़ने वाले आशुतोष ने आप से इस्तीफा दे दिया है। उन्होंने इस्तीफे का कारण व्यक्तिगत कारण बताएं हैं और अपना इस्तीफा स्वीकारने का पार्टी पीएसी से अनुरोध किया है।
आशुतोष ने टिवटर पर इस्तीफा शब्दों की जादूगरी के साथ दिया है। उन्होंने अपने दूसरे ट्वीट में मीडिया के मित्रों से अनुरोध किया है कि वे इस बारे में उनसे संपर्क न करें।
आशुतोष के ये दोनों टवीट निजी स्वतंत्रता के विषय हैं मगर उनका ये रवैया निश्चित रुप से कई सवाल खड़े करता है। वे आप की दुर्दशा के दिनों में आप से नहींं जुड़े थे। उन्होंने राजनीति में आप पार्टी के जरिए जब कदम रखा था तब अरविंद केजरीवाल दिल्ली विधानसभा में ऐतिहासिक फतह कर चुके थे। आज कुछ साल की राजनीति के बाद उनका इस्तीफा ठीक वैसे ही सवाल खड़े करता है जैसे सवाल वे पत्रकारिता के दिनों में राजनेताओं पर धारदार लहजे के साथ खड़े किया करते थे। उन्होंने राजनीति में आना और जाना जिस आसानी से कर दिखाया है इस तरह का बर्ताव उन लाखों लोगों को हतप्रद करता है जो पत्रकारिता के गंभार विचार से आने वाले व्यक्ति से कुछ परिवर्तन की आस लगाए हुए थे।
पत्रकारिता में अपने लंबे अनुभव के दौरान आशुतोष इतना तो बहुत बेहतर समझ चुके होंगे कि ये रास्ता भी उछलती कूदती घाटी और पहाड़ का सामना करने वाली नदी से कम जुदा नहींं है।
एक पत्रकार का मुख्यधारा की कलमकारी छोड़कर राजनीति में आना छोटा मोटा फैसला नहीं होता है। आप ऐसा क्षेत्र छोड़कर उस नए क्षेत्र में जा रहे हो जो काफी हद तक एक दूसरे से उलट हैं। पत्रकारिता में लोकहित की लड़ाई बहुत स्वतंत्र होकर लड़नी होती है मगर दल मे रहकर लोकहित की लड़ाई लड़ने से पहले हमारा लोकहित पत्रकारिता वाले लोकहित से कहीं सिमट जाता है। दल के हित, दल के लाभ , दल की नीतियां, दल के कार्यकर्ता, दल के मुखिया सबसे पहले होते हैं और उनके लिए बाकी दलों से कुछ चाहा अनचाहा बैर हो ही जाता है। बेशक लोकहित राजनीति के जरिए भी संभव होता है मगर यह पत्रकारिता के उंचे मानदण्डों और पैमानों से कुछ सीमित हुए बिना संभव नहीं हैं।
आशुतोष से आप का मन भर गया है या आप का आशुतोष से मन भरा और इसके बाद ये राजनीति से सन्यास का फैसला सामने आया है इसकी हकीकत हर कोई जानना चाहेगा। बदलते वक्त के साथ कई कहानियां सामने आएंगी और केजरीवाल ने जिस तेजी से आशुतोष के इस्तीफे को नामंजूर किया है उससे इस मामले में नए घटनाक्रम भी सामने आने की गुंजाइश बन गई है।
आप के नेता आशुतोष के फैसले के जितने भी कारण रहे हों वे सारे तो आशुतोष ही जानते होंगे मगर उन कारणों को टटोलने का अधिकार हर पत्रकार को उतना ही है जितना वे अपने पत्रकारिता के दिनों में अन्य नेताओं के असंतोष को जानने और उसकी मीमांसा करने में रखते थे।
राजनीति में वे बेशक आ गए हों मगर वे पत्रकारिता की पाठशाला के पुराने होनहार विद्यार्थी हैं। आशुतोष अपने मित्र दोस्तों से संपर्क न करने का अनुरोध जरुर कर सकते हैं मगर सार्वजनिक जीवन में आने वाले राजनेता से हम पत्रकारिता के उसूलों की हर वक्त आशा करते रहेंगे। जैसे आशुतोष का सवाल पूछने का हक रहा है अपने पत्रकारिता के दिनों में, आज वैसे ही बाकी पत्रकारों का हक बनता है सवाल पूछना