सिंह के दावों की जांच हो

सिद्धार्थ शंकर गौतम

क्या उच्च पदस्थ किसी अधिकारी से आप यह उम्मीद कर सकते हैं कि वह देशहित से इतर किसी बाहरी दबाव या नौकरी बचाने की जद्दोजहद में अपना कार्य करता रह सकता है? और सेवानिवृति के बाद अचानक उसका सोया ज़मीर जाग जाता है और वह अपने गुनाहों की माफ़ी न मांगते हुए भी अपनी मजबूरियों को गिनाता हुआ व्यवस्था पर सवालिया निशान लगा देता है? शायद नहीं। किन्तु देश में इस तरह के घडियाली आंसू बहाने और दूसरों के चरित्र हरण करने की प्रतियोगिता सी होने लगी है। ताजा मामला बहुचर्चित २जी घोटाले से जुडा हुआ है। कैग में तत्कालीन महानिदेशक और दूरसंचार ऑडिटर रहे आरपी सिंह ने दावा किया था कि २ जी घोटाले की जांच कर रही लोक लेखा समिति के अध्यक्ष और भाजपा सांसद मुरली मनोहर जोशी ने रिपोर्ट जारी होने से एक दिन पूर्व कैग अधिकारियों को अपने निवास बुलाते हुए उनसे गोपनीय चर्चा की थी। सिंह ने २ जी घोटाले की वजह से हुए कैग के अनुमानित १.७६ लाख करोड़ के नुक्सान पर भी सवाल उठाते हुए उसे मनघड़ंत बताया था। सिंह के अनुसार पहले आओ-पहले पाओ की नीति के तहत सरकार को ३७ हजार करोड़ का नुकसान हुआ था जिसे वसूल किया जा सकता था किन्तु आंकड़ों की बाजीगरी को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने से नुकसान का आंकड़ा बढ़ता गया और सरकार से हाथ से भरपाई का मौका निकल गया। हालांकि कैग की रिपोर्ट पर सिंह के हस्ताक्षर हैं जिसपर उनका कहना है कि उन्होंने भारी दबाव की वजह से रिपोर्ट पर हस्ताक्षर किए। चलिए मान लिया जाए कि सिंह के आरोप सही हैं तब भी यह सवाल तो उठता ही है कि आखिर सिंह ने सेवानिवृति के बाद ही स्वयं को सत्य की मूर्ति प्रतिपादित क्यों किया? क्या वे पद पर रहते हुए सत्यता सामने नहीं ला सकते थे? दूसरे यदि कैग की रिपोर्ट में आंकड़ों की बाजीगरी की ही गई थी तो उसकी रिपोर्ट को संज्ञान में लेते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार की खिंचाई क्यों की और क्यों उसी के निर्देशों के बाद २जी घोटाले की जांच होना शुरू हुई? सबसे बड़ा सवाल; आखिर सिंह पर ऐसा कौन सा दबाव था कि उन्होंने बिना कुछ कहे ही कैग की रिपोर्ट पर हस्ताक्षर कर दिए? क्या ये सभी परिस्थितियां किसी गहरे षड़यंत्र की ओर इशारा नहीं करती? क्या कांग्रेस और सरकार ने कैग से निपटने और उसके पर कतरने के लिए सिंह को मोहरा तो नहीं बना दिया? यदि ऐसा है तो यह स्थिति अत्यंत घातक है और देश को आपातकाल की ओर अग्रसर करने वाली है।

 

सिंह के खुलासे ने केंद्र की सत्ता पर काबिज कांग्रेस को भाजपा और कैग पर हमलावर होने का अवसर प्रदान किया है। लोकतंत्र में किसी को भी अपनी बात कहने और उसे साबित करने का अधिकार है किन्तु सिंह ने मात्र सुर्खियां बटोरने के मकसद से बात कही है; उसे साबित नहीं किया। फिर एक दफे मान लिया जाए की उनके दावों में सच्चाई है तब भी क्या सिंह गुनाहगारों की श्रेणी में नहीं आते? आखिर जो अधिकारी मामूली से दबाव में आकर अपनी प्रदत जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ते हैं या देशहित से परे स्वहित को तवज्जो देते हैं क्या उन्हें दण्डित नहीं किया जाना चाहिए? मेरा मानना है कि जो अधिकारी अपनी इच्छा विरुद्ध जाकर कार्य करता है उसे सेवा में बने रहने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है। यदि वह सेवानिवृति के बाद खुद को राजा हरीशचंद की भांति प्रस्तुत करता है तो उससे सवाल किया जाना चाहिए कि उसकी यह सत्यता व देश-भक्ति उचित समय पर क्यों नहीं जागी? अव्वल तो कांग्रेस सहित सरकार कैग और सीबीआई जैसी संस्थाओं के पर कुचलने में लगी हैं उसपर से सिंह जैसे अधिकारियों के कारण इनकी स्वायत्ता व संवैधानिक संस्था की मांग कमजोर पड़ती है। यही कैग यदि सरकार के पक्ष में रिपोर्ट देते तो सरकार उन्हें सेवा काल की समाप्ति पर किसी नए मलाईदार पद से नवाजती किन्तु उन्होंने देशहित में अपनी रिपोर्ट को पेश कर सरकार से अदावत मोल ले ली। सिंह के खुलासे से सरकार के हौसले बुलंद हैं और अब वह कैग के विरुद्ध संसद में आवाज बुलंद करने की मंशा से अन्य सहयोगी दलों को एकजुट कर रही है। यानी अब आम जनता का घपलों-घोटाले से ध्यान भटकाने की सरकारी मुहिम में अधिक तेजी आएगी। सिंह के दावे सच हैं या झूठे यह देर-सवेर साबित हो जाएगा किन्तु सिंह की आलोचना तो होनी ही चाहिए कि उन्होंने ऐसे समय में सरकार पर वरदहस्त रखा है जबकि वह चहुंओर से मुद्दों की जंग हार रही थी। अपनी छवि चमकाने की कवायद में सरकार अब जनहित के मुद्दों से परे विपक्ष पर हमलावर होगी और यदि यह मुद्दा सदन के पटल पर रखा जाता है तो यकीन मानिए इस बार भी जनसरोकारों के जुडी राजनीति सदन से गायब ही दिखेगी

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सिद्धार्थ शंकर गौतम
ललितपुर(उत्तरप्रदेश) में जन्‍मे सिद्धार्थजी ने स्कूली शिक्षा जामनगर (गुजरात) से प्राप्त की, ज़िन्दगी क्या है इसे पुणे (महाराष्ट्र) में जाना और जीना इंदौर/उज्जैन (मध्यप्रदेश) में सीखा। पढ़ाई-लिखाई से उन्‍हें छुटकारा मिला तो घुमक्कड़ी जीवन व्यतीत कर भारत को करीब से देखा। वर्तमान में उनका केन्‍द्र भोपाल (मध्यप्रदेश) है। पेशे से पत्रकार हैं, सो अपने आसपास जो भी घटित महसूसते हैं उसे कागज़ की कतरनों पर लेखन के माध्यम से उड़ेल देते हैं। राजनीति पसंदीदा विषय है किन्तु जब समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का भान होता है तो सामाजिक विषयों पर भी जमकर लिखते हैं। वर्तमान में दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, हरिभूमि, पत्रिका, नवभारत, राज एक्सप्रेस, प्रदेश टुडे, राष्ट्रीय सहारा, जनसंदेश टाइम्स, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, सन्मार्ग, दैनिक दबंग दुनिया, स्वदेश, आचरण (सभी समाचार पत्र), हमसमवेत, एक्सप्रेस न्यूज़ (हिंदी भाषी न्यूज़ एजेंसी) सहित कई वेबसाइटों के लिए लेखन कार्य कर रहे हैं और आज भी उन्‍हें अपनी लेखनी में धार का इंतज़ार है।

2 COMMENTS

  1. श्री सिद्धार्थ शंकर गौतम के आलेख की आलोचना करते समय मेरे विचार से तिवारी जी ने कुछ पहलुओं पर विचार नहीं किया. पहले तो अन्ना जी को इसमें क्यों शामिल किया गया,यह बात मेरी समझ में नहीं आयी.जेनेरल वी के सिंह से तुलना भी मुझे अवांछनीय लगा.जेनेरल वीके सिंह ने तो उन्हीं बातों की याद दिलाई,जिसको वे अपने सेवा काल में ही बता चुके थे और उसकी पुष्टी प्रतिरक्षा मंत्री ने भी की.श्री आर पी सिंह ने तो ऐसा कुछ भी अपने सेवा कालमें नहीं कहा था और सेवानिवृति के एक वर्ष बाद तक चुप रहे.आज उनको यकायक यह ज्ञान प्राप्ति कैसे हो गयी?दूसरी बात जो सामने आयी है,वह है ३७००० करोड़ और १७६००० करोड़ की ,तो पहली रकम भी इतनी कम तो नहीं है,जिसपर कांग्रेस पार्टी इतनी खुश हो रही है.श्री आर पी सिंह का बयान कांग्रेस का तो कुछ भला करेगा नहीं ,पर इस बयान ने आर पी सिंह के दोगले चरित्र को उजागार अवश्य कर दिया.

  2. सही कह र्हे हो सिद्धार्थ भाई! लेकिन इस सन्दर्भ मे यह याद रखा जाना चाहिये कि जब अन्ना हजारे,जनरल बी के सिह ,भुवन चन्द खन्दूरी सेवा निव्रुत्ति उप्रान्त कान्ग्रेस के खिलाफ बोलते है तो आप को उन पर बलिहारी हो जाते है. आर पी सिह ने भाजपा को हासिये पर धकेल दिया तो आपको तक्लीफ हो रहि है.

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