सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राष्ट्रगान गायन का फैसला

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national-anthem-in-theaterसर्वोच्च न्यायालय द्वारा जनहित याचिका के अन्र्तगत सिनेमाघरों में राष्टगान गायन की बात कही है। जो कि एक देशभक्त और कत्र्तव्यपरायणता की दृष्टि से उचित फैसला माना जा सकता है। जनहित याचिका में उठाये गए सवाल के जवाब में देशभक्ति की जिस भावना को जागृति करने का काम सर्वोच्च न्यायालय को उठाना पड़ा, उससे कही न कही यह बात साबित होती है, कि देश में लोगों को अपने कत्र्तव्यों के प्रति जागने के लिए सख्त कदम उठाना पड़ रहा है, जिसे लागू करना सरकार की मजबूरी भी कही जा सकती है, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला काबिलेगौर है। इससे पहले भी सार्वजनिक स्थलों और सिनेमा हाॅल में राष्ट्रगान गाने की परंपरा रही है, लेकिन लोगों के अपने कत्र्तव्यों की अनदेखी की वजह से इसे बंद कर दिया गया था। भाजपा नेता की याचिका की सुनवाई के दौरान देश की न्यायपालिका को निर्णय लेने को मजबूर होना पड़ा। जो देश के सैनिकों को सम्मानित और गौरव महसूस करने के लिहाज से उचित माना जा सकता है।
देश की आजादी के समय से ही राष्ट्रगान को भारत में राष्ट्रीय गीत के रूप में स्वीकार किया गया था। उसको लेकर अगर हमारे देश की अवाम सचेत नहीं दिखती और इसके लिए न्यायपालिका को बीच में आकर सुनवाई करनी पड़े, तो यह देश और कानून दोनों की अनदेखी माना जा सकता है। जिस राष्ट्रगान को निश्चित समयान्तराल के बीच गायन किया जाना चाहिए, वह भी कभी-कभी समय के दायरे से बाहर होकर लोगों और संस्था के औचित्य पर ही सवाल खड़ा करने का काम करता आया है, कि उक्त संस्था और वहां पर उपस्थित जनसभा के लोगों की लापरवाही की वजह से संविधान में वर्णित कत्र्तव्यों और जिम्मेदारियों की अनहोनी होती रही है। जो एक स्वस्थ्य संवैधानिक व्यवस्था की मुखालफत करने जैसा ही लगता है। 1975 तक सिनेमाघरों में राष्ट्रगान का गायन प्रथा में रहा, लेकिन देश की अवाम की सामाजिक और संवैधानिक उत्तरदायित्वों के खिलाफ मुखर होने के कारण इस प्रथा को लगभग बंद कर दिया गया। इन सभी तथ्यों के साथ देश का एक तबका या कहें उग्र सामाजिक व्यवस्था कभी-कभी अपने देश के सम्मान या यू कहें अपने गुरूर में इतनी मग्न हो जाती है, कि इसी साल जून- जुलाई के मध्य मुम्बई के सिनेमाघर में एक आदमी की पिटाई का मामला जेहन में पैदा कर देता है, जो कि भी स्वस्थ्य लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुरूप नहीं माना जा सकता है। लोगों को संविधान में आजादी उतनी ही है, जितने से किसी दूसरे की आजादी का हनन न हो फिर मुम्बई के सिनेमाघर में एक युवक की पिटाइ्र्र देश के लोगों में कुछ सवालात जरूर पैदा कर देती है। सम्मान करना न करना लोगों का अपना एक हक या दायरा होता है, उसमें न्यायपालिका और कानून व्यवस्था को छोड़कर और कोई व्यक्ति या व्यवस्था हमला नहीं कर सकती, फिर भी देश में कुछ ऐसी मानसिकता के लोगों का हुजूम व्याप्त है, जो मौका मिलते है, अपने आप को सवा सेर समझ बैठते है। जिसपर रोक लगाना भी अब जरूरी बन गया है।
राष्ट्रगान और भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों के साथ लोगों को अपने दायित्वों को निभाना भी जरूरी है, लेकिन देश के नागरिक संविधान द्वारा प्राप्त अधिकारों के प्रति तो जागरूक दिखाई पड़ जाते है, लेकिन उत्तरदायित्वों का पजाड़ा निकाल देते है। राष्ट्रगान के गायन के लिए कुछ समय निर्धारित किया गया है, उसका पालन करना भी लोगों और संस्थाओं की जिम्मेदारी होना चाहिए, और इसके अपमान करने वालों के विरूद्व कार्रवाई करना भी न्यायपालिका का कत्र्तव्य है, जिस और भी न्यायपालिका को ध्यान देना चाहिए, क्यांेकि समय-समय पर इन राष्ट प्रतीकों की अवहेलना करते हुए राजनीति लोगों के साथ सामाजिक सरोकार से जुड़े लोग भी देखने वाले नजरों में आ जाते है। देश की गौरवगाथा और संवैधानिक तंत्र का सम्मान करना हमारी संस्कृति और सभ्यता में होना चाहिए, इसके लिए अगर हमें संवैधानिक तंत्र और न्यायपालिका को राह दिखानी पड़े, तो हमारे समाज के लिए एक सोचनीय प्रश्न के रूप में सामने होना चाहिए। देश की आजादी से लेकर आज तक हमें चैन की सांस लेने वाले सैनिकों को याद करने का इससे अच्छा अवसर और कुछ नही हो सकता है, लेकिन अगर बात सिनेमाघरों में राष्ट्रगान की हो रही हो, तो इसके लिए भारतीय सिनेमा जगत को भी देशभक्ति और विचारधारा को बढ़ावा देने की और विचार करने की जरूरत है, क्यांेकि आज का सिनेमा भी कही न कही अपनी राह से खिसकता दिख रहा है, जिस और ध्यान देना भी जरूरी है। इसके साथ लोगों को अपने आप देश के प्रति सचेत और जागरूक होने आवश्यकता है, किसी संस्था आदि के दबाव आने के पूर्व ही।
महेश तिवारी

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