छोटी- सी आशा

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lebbaourजानता नहीं है

कहाँ है उसका मुकाम ।

वह तो लगा रहता है

बनाने में

एक के बाद दूसरा

बहुमंजिला  मकान ।

छोटे-से गाँव का है वह

एक कुशल कारीगर ।

आ  गया है यहाँ

अपना  घर – द्वार छोड़कर ।

गाँव का वह

झोपड़ीनुमा  घर भी

गिरवी रख आया था,

जिसे कुछेक सालों में

महाजन के चक्रवृधि ब्याज  ने

हड़प लिया था ।

सुबह से शाम,

हर दिन उसका

एक समान ।

मिटटी,ईंट,बालू, सीमेंट आदि से

हर साल

उसके सामने हो जाता है

एक कीमती इमारत तैयार

और साथ ही

विस्थापित हो जाता है फिर

वह और उसका परिवार ।

बेशक,

कुछ संपन्न लोगों को बसाकर

फिर कहीं

एक नयी इमारत की नींव पड़ती है

और व्यस्त हो जाता है

वह फिर एक बार ।

रह जाती है तो शायद

एक छोटी-सी आशा कि

कभी तो,

किसी व्यवस्था में,

दर्जनों घर बनानेवाले

उन जैसे गृहहीनों को

निरंतर बढ़ते इस महानगर में

मिलेगा एक छोटा-सा छत

जो होगा उनका घर

उनका अपना घर ।

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