तथाकथित उर्दू वालो से उर्दू को खतरा

शादाब जफर ‘‘शादाब’’
आज शायरो और मुशायरा कन्वीनरो ने मुशायरो का रूख जिस तरफ मोड़ दिया है उसे उर्दू अदब, अदीब और मुस्लिम मुशायरे के हक में नही कहा जा सकता। आज मुशायरो में जिस तरह की शायरी कुछ तथाकर्थित शायरो के जरिये सुनने और देखने को मिल रही है उसे कही से कही तक मय्यारी नही कहा सकता। और सामईन हजरात जो किरदार आज कल मुशायरो में पेश कर रहे है उस पर अक्सर मुशायरो के बाद एक लम्बी बहस होती है। इन सब बातो से यू तो कई सवाल पैदा होते है जिन में मेरा पहला सवाल तमाम अदीबो और अदब नवाजो से ये है कि आज हमारा अदब और हमारे अदीब किस राह पर जा रहे है ? दूसरा सब से बडा सवाल ये उठता है कि क्या हकीकत में इन आल इंडिया मुशायरो से उर्दू का कुछ भला हो रहा है। तीसरा सवाल ये कि जब से इन मुशायरो में सियासत का दखल हुआ है शायर, शायरी और सामईन का मिज़ाज़ ही बदल गया है। एक आल इंडिया मुशायरे का बजट तीन से चार लाख तक पहुँचने लगा है।

जब कि आज भी कई उर्दू लाईब्रेरिया ऐसी है जिन में पुरानी नायाब किताबो को दीमके खा रही है। इन को देखने वाला ओर पढने वाला आज कोई नही है। मुल्क में कई ऐसे परिवार है जो अपने बच्चो को पढ़ाना चाहते है पर उनके पास स्कूल फीस और कापी किताबो के लिये पैसा नही है। उर्दू के नाम की रोटी खाने वाले उर्दू का कफन तक बेचने के लिये तैयार है। आज मुल्क में उर्दू अखबार और उर्दू अखबारात की हालत मुझे बया करने की जरूरत नही, हमारे घरो में कितनी उर्दू पढी जाती है हम सोच सकते है। वो दिन दूर नही जब उर्दू में लिखे खत पढवाने के लिये हमे दर दर की ठोकरे खानी पडेगी। क्यो कि हम अपने बच्चो को मदरसो में भेजने के बजाये इंगिलश स्कूलो में भेजना पसंद कर रहे है आज हमारे घरो की हालत ये बन चुकी है कि किसी मेहमान के आने पर बच्चे से कलमा, दरूद शरीफ, अल्हमदो की बजाये ए बी सी डी सुनाने या पोयम सुनाने को कहते है। और हम लोग खुश होते है कि हमारा बच्चा कितनी फास्ट इंगिलश बोल रहा है। मस्जिदो में आज कल उर्दू की जगह हिन्दी में लिखे हुए कदबो ने जगह ले ली है। दीनयात की तमाम किताबे हिन्दी में छप रही है दरअसल हिन्दी में छपना कोई बुरी बात नही क्यो की हिन्दी तो हमारी राष्ट्रभाषा देश की आत्मा है। पर जिस उर्दू का जश्न हम लोग पॉच से दस लाख रूपये खर्च कर बडे बडे मुशायरे कर के रोज़ कही ना कही मनाते है आज उस उर्दू का हाल क्या है हम नही सोचते।

दरअसल आजकल शायरी और मुशायरो के नाम पर अदब की इन महफिलो में चन्द लोग ही उर्दू के जानशीन, उर्दू पर मर मिटने वाले, उर्दू की सही तरह से अपनी शायरी से परवरिश करने वाले शौरा हजरात को छोड दे तो पैसा, नाम, शौहरत के लालची लोग आज बडी तादात में उर्दू अज्ञेर बेहुदा, घटिया शायरी के नाम की रोटिया खा रहे। जिन को मुशायरा कन्वीनर अपनी जेबे भरने और पैसे बचाने के लिये इन तथाकर्थित लोगो को शायर बता कर मुशायरे की जीनत बना दिया जाता है। जो कन्वीनर मुशायरा से शराबे मांगते है। और शराबे पी पीकर अदब की इन महफिलो में बदतमीजी करते है। आखिर ये सब क्या है ये कैसी उर्दू की खिदमत है ? ये कैसी तहरीक चलाई जा रही है उर्दू को बचाने के लिये? हमे सोचना होगा। आज कल शायरी की जगह चुटकुलो और तुकबंदी ने ले ली है। मुशायरो के स्टेज पर कुछ ड्रामेबाजी कर पुराने और घिसे पीटे, चोरी के शेर और गजले सुनाकर सुनाकर हजारो रूपये एक मुशायरे के वसूल कर रहे है क्यो ? इसलिये की ये लोग अपने शेरो शायरी से कौम को बेदार कर रहे है। उर्दू के सिपाही और अलमबरदार है ये लोग। ये लोग ना होगे या अगर ये रूठ गये तो फिर कन्वीनर मुशायरो को अपने यहा होने वाले मुशायरे में नही बुलायेगे। क्या इन लोगो के बजूद से उर्दू जिन्दा है ये लोग नही होने से उर्दू मिट जायेगी ऐसी हमारी सोच हो चुकी है। जो कि सरासर गलत है क्यो कि अक्सर अब मुशायरों में जो देखा जा रहा है वो कुछ और ही हकीकत ब्यान कर रही है आज कुछ सियासी लोगो ने मुशायरों को हाईजैक कर लिया है। वजह मुस्लिमो की एक बडी तादाद इन मुशायरों में पहुँचती है। सियासी लोग इस बात को बखूबी जानते है बस इसी बात का फायदा उठा कर ये लोग स्टेज से उर्दू का रोना रोने लगते है ये वो लोग होते है जिन से अगर उर्दू में कुछ लिखने को कहा जाये तो शायद इन लोगो से अपना नाम भी नही लिखा जाये। पर बाते ऐसी मानो इन से बडा उर्दू का चाहने वाला अपने सीने में उर्दू का दर्द रखने वाला इस मुल्क में कोई दूसरा ना हो।

उर्दू और उर्दू शायरी का आज मजाक मुशायरों में किस तरह उड़ाया जा रहा है हम लोग रोज देख रहे है। इस से अंदाजा लगाया जा सकती है कि आज मुशायरे, अदब, और आज का तथाकर्थित शायर कहा पहुँच चुका है हमारे मुशायरों का म्यार क्या हो गया है। इस से ये साफ जाहिर होता है कि कुछ लोगो ने शायरो का चोला पहनकर शायरी को पेशा बना लिया है और अपनी अपनी दुकाने चमकाने के लिये ये लोग किसी भी हद तक गिर सकते है। एक दूसरे की गर्दन पर पैर रखकर ऊपर चढने की कोशिश कर सकते है। इनका मकसद उर्दू या उर्दू तहज़ीब को जिन्दा रखना फरोग देने कतई नही। इनका मकसद सिर्फ और सिर्फ पैसा और नाम कमाना है। हम लोग उस ज़बान से वाबस्ता है जिसे दुनिया में मीठी जबान, तहजीब की जबान, प्यार मौहब्बत एकता भाई चारे की ज़बान कहा जाता है। क्या मुशायरे इन कुछ तथाकर्थित बदगुमान, बदतमीज, तथाकर्थित घमंडी आल इंडिया शायरो की मौजूदगी से ही मुशायरे कामयाब होते है। आखिर जिले और कस्बो के शायरो को क्यो नजर अंदाज किया जाता इन आल इंडिया मुशायरों से? हमे सोचना होगा।

नशा चढेगा तो दस्तार खुद गिरा देंगे।

जो बेअदब है अदब को भला वो क्या देंगे।।

ये एक रात की कीमत वसूलने वाले।

मुझे यकीन है उर्दू ज़बा मिटा देंगे।।

 

1 COMMENT

  1. यह बात वाक़ई में संजीदगी से सोचने वाली है कि कई लाख रूपये एक रात में ख़र्च कर होने वाले मुशायरों से उर्दू की कौन सी सेवा हो रही है? अकसर यह भी देखने में आता है कि आमतौर पर ऐसे ऑल इंडिया मुशायरे या तो आयोजकों की आमदनी का ज़रिया बन जाते हैं या फिर नेता लोग इनको अपनी सियासत के लिये इस्तेमाल कर लेते हैं। मुशायरे के नाम पर भीड़ को जुटा लिया जाता है और लंबी चौड़ी नामचीन शायरांे की लिस्ट में से मुश्किल से दो चार ही शायर आ पाते हैं। सबसे ज़्यादा तकलीफ की बात यह होती है कि ये मुशायरे अकसर कौमी एकता और यकजहती के नाम पर आयोजित किये जाते हैं लेकिन इनमें कई बार लोग नशा करके नात और हम्द तक पढ़ते देखे जाते हैं। साथ ही एक वर्ग विशेष को भड़काने और तंगनज़री और दहशतगर्दी को बढ़ावा देने वाले कलाम खुले आम पढ़े जाते हैं जिनसे समाज का भाईचारा ख़त्म होता है और आपसी तनाव और दरार और बढ़ती है। ’’हमारी टोपियों पर तंज़ न कर, हमारे ताज अजायबघरों में रक्खे हैं।‘‘ और ’’हमें भी हौंसला दे गज़नवी सा, मुसलसल हार से तंग आ गये हैं।‘‘ जैसे शेर क्या संदेश देते हैं कोई आम आदमी भी बखूबी अंदाज़ लगा सकता है। दरअसल ऐसे मुशायरे दिमागी अय्याशी का शगल बनकर रह गये हैं। उर्दू को जब से मुसलमानों की ज़बान समझा जाने लगा है तब से इसका और भी नुकसान हो रहा है। बेहतर हो कि दस बीस लाख के महंगे मुशायरे कराने की बजाये अच्छे स्कूल और धर्मार्थ चिकित्साल खोले जायें जहां उर्दू के साथ साथ पूरी इंसानियत की बिना किसी भेदभाव के निशुल्क खि़दमत की जा सके।-इक़बाल हिंदुस्तानी।

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