सोप-ओपेरा

क्षेत्रपाल शर्मा
पश्चिमी जगत में साहित्य की एक समृद्ध, नाट्य विधा में जो उत्थान आया उसकी जड़ में यह ध्येय नजर आता है कि ‘जो कहते हो वो करो, और जो करते हो वही कहो ।’ यही सत्यं, शिवं और सुन्दरम भी है । मैं लिख तो रहा था ‘कविताओं के नए तेवर’ पर कुछ विचार क्रम बदला और कुछ बातें लिखने का मन, लोभ-संवरण न कर सका । इसी क्रम में किंग अरथर की कहानी को याद कीजिए ।

करीब 45 वर्ष पहले की याद ताजा करें जब “पीअर्स एनसाइकलोपीडिया” लोग बड़े चाव से पढ़ते थे । तब यह विश्वकोष जैसा था । ये ‘पीअर्स’ साबुन वाले हैं । लेकिन ‘व्यापारिक नैतिकता’, जन कल्याण को वे भूले नहीं तथा ज्ञान-विज्ञान की पुस्तक जनसाधारण को सुलभ करा दी ।

अब जो नाट्यविधा में धारदार संवाद अदायगी है, वह इन्हीं ‘मन बहलाव’ के साधन के रूप में ‘नोटंकी’ की तरह बड़ी-बड़ी ‘नाटिकाएँ’ मंचित हो गईं और नाम पड़ा ‘ओपेरा’ जन साधारण को भी आकर्षित किया, मनोरंजन भी किया और अपना प्रचार भी किया । उसकी तुलना में भारत में ऐसा कुछ नहीं हुआ । यहां लोक नृत्य, लोक गीत, ढ़ोला, आल्हा, रास सब स्थानीय थे और एक व्यक्ति या मंडली द्वारा पोषित ही रहे। हालांकि ‘लिम्का’, ‘बोर्नविटा’ ने देर से ही पहल की । केरल के ‘पैको’ क्लास्क्सि याद रहने लायक रहे ।

मैं भारतीय संस्कृति (विहंगम दृष्टि से) पर अच्छे लेख की रामधारी सिंह दिनकर (संस्कृति के चार अध्याय) एवं श्री रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ के पाता हूँ । श्री शुक्ल जी ने तो यहां तक कह दिया है कि जो “खंड-खंड होकर भी अखंड” हैं । यह इसकी विशेषता है । यह गुण ‘अनेकता में एकता’ से ऊपर का है। नीरद सी. चौधरी एवं अन्य महानुभावों की तरह इस संस्कृति की मीमांसा तो मैं नहीं कर रहा हँू परन्तु इतना अवश्य है कि समय के साथ ‘रिवाज’ बदलती रही हैं । याद कीजिए सत्यकाम एवं जाबाला को । लेकिन निकष सिर्फ एक है कि “शील श्रेष्ठ है ।” समुदायों में परस्पर शादी आदि के रस्म-रिवाज पर बारीकी से नजर दौड़ायेंगे तो इन सब बातों का पता चलता है । भला, शब्द बलिदान देखिए । राजा बलि और दानवीर उनका प्रताप, लेकिन तीसरे पैर को कहाँ रखूँ तो उत्तर था कि जब जगह बची ही नहीं तो, मेरे सिर पर रख दो, भाई । ‘शुचिता की पराकाष्ठा’ कहें या ‘पोंगा-पंडितपन’ कि आपने सपने में राजपाट दान कर दिया है और ऐसे राजा हंै कि वैसा मान भी रहे हैं । धन्य हैं ।
तो चलिए जो ‘बलि’ की पृथा थी वह यज्ञ में स्वयं को (स्वाहा) समर्पित करने की थी । परशुराम जी का ऐसे ही एक यज्ञ से पाला पड़ा लेकिन यह अच्छा रहा कि यज्ञ कराने वाले उनके मामा थे, वह बच गए, ऐसा मैंने सुना है ।

हम अब ऐसी व्यापारिक नैतिकता से दो-चार हो रहे हैं कि जिसमें बेढंगी-फूहड़ भाषा है । अगर कहीं वह भाषा ठीक-सी मिल भी गई तो उसमें ‘भाव’ का महा-अकाल है । कार्य स्थल एवं बाजार में परस्पर-अविश्वास और अनादर इस तरह हैं कि अधिकांश व्यक्ति ‘दूध’ की जगह ‘दवा का घोल’ पी रहे हैं। दवा पीते हैं तो ‘दवा का अंश’ उसमें नहीं हैं । घर में माँ और बहनें, परिवारीजन के बिना लुटे-पिटे घर लौटने की प्रतिदिन बाट जोहती हैं । रक्षक को अपने कर्त्तव्य का भान नहीं । तो इस तरह की प्रवृति से कोई भी समाज पतित तो होगा ही । जो मेरे लिए हितकारी नहीं, भला मैं क्या सोचकर दूसरे के लिए दूँ, आरिवर किसलिए । ‘बसुधैव’ तो दूर की बात है अब ‘कुटुंब’ में “पग पग पर द्वन्द्व जैसी स्थिति है । जो कि समाज एवं उसके घटकों के लिए अच्छी नहीं हैं । एक तो झूठ को प्रश्रय न दें । नेता/उच्च पदस्थ जिसकी सिफारिश करें देखें कि वह एक दिन उन पर धब्बा तो नहीं लाएगा । नई चीजें आ रही हैं जैसे मोबाइल; मुक्त-जीवन, शराब को शान-शौकत और इज्जत (स्टेन्डर्ड) के पर्याय के रूप में; फिर इसमें आप कहाँ अपने आपको पायेंगे ? रचना धर्मिता विलासिता, और सुस्त कौम का काम नहीं हैं । सगर से भगीरथ तक कई पीढ़ियां गुजर जाती हैं, तो इस प्रतीक्षा, इस इंतजार के लिए समय की विवशता है । जब दो व्यक्ति परस्पर विरोधी बाते कहें तो जान लीजिए कि स्वार्थ की टकराहट है । याद कीजिए भीष्म पितामह जी का बताया एक दृष्टांत । शमशान पर मृत एक बालक । गांववासियों को लौटने/न लौटने की (सूर्यास्त पर) सलाह, गिद्ध एवं गीदड़ की । तो यह प्रतिलोभी रूप भी कि जहर ही जहर को काट सकता है ।
मैं इस पीड़ा को किसी के साथ बांट नहीं रहा । बल्कि; एक कविता जो मुझे पढ़ने को मिली, उसे आप भी पढ़ें :-
“जिस तट पर प्यास बुझाने से अपमान प्यास का होता है
उस तट पर प्यास बुझाने से प्यासा मर जाना बेहतर है

जो दिया उजाला दे न सके,
तम के चरणों का दास रहे ।

अंधियारी रातों में सोए
दिन भर सूरज के पास रहे ।।

जो केवल धुआं उगलता हो,
सूरज पर कालिख मलता हो,

ऐसे दीपक का जलने से
पहले बुझ जाना बेहतर है ।”

***

कांटे तो अपनी आदत के
अनुसार नुकीले होते हैं ।

कुछ फूल मगर कांटों से भी,
ज्यादा जहरीले होते हैं ।

जिनको माली आंखें मींचे
जल के बदले विष से सींचे ।

ऐसी डाली पर खिलने से
पहले मुरझाना बेहतर है ।।

“जब आंधी नाव डुबो देने की
अपनी जिद पर अड़ जाए ।

हर एक लहर नागिन बनकर
बस डसने को फन फैलाए

ऐसे में भीख किनारों की,
मांगना धार से ठीक नहीं ।

पागल तूफानों को बढ़कर
आवाज लगाना बेहतर है ।”

यह है एक तेवर । उससे हटकर एक पद्य की यह पंक्तियां :-

“तुम भी विषधर, मैं भी विषधर-
हम दोनों हैं सगे सहोदर ।

मणियों पर अपना डेरा हो ।”

तो ये समाज के दो छोर का अन्तर्द्वन्द्व है । यही आज के समाज में चल रहा है । एक ऐसा वर्ग भी विद्यमान है जो रंगीन-चश्मा पहनता है और वास्तविकता से कोसो-दूर अनजान बना रहना चाहता है । अनजान (नियमों से, सच्चाई से) बने रहने का स्वांग करता है । लेकिन ignorance in no excuse कार्रवाई हम क्यों नहीं कर रहे ? ओछे कर्म एवं व्यक्ति का साथ वर्ज्य करें ‘काटे-चाटे’ स्वान के…… उर्दु एक मसल है कि ‘नादान दोस्त से दाना दुश्मन अच्छा’ । देखना है तो देखें कि किसी बुद्धिमान ने गलती कहाँ की । न कि एक ‘मूर्ख’ की ‘सफलता’ । पता नहीं किस तरह उसने यह हासिल की ? गुजराती में कन्हैया लाल माणिकलाल मुंशी जी ने भी बेजोड़ रचनाएँ दी हैं । उसी तरह मराठी साहित्य में हमें उत्कृष्ट पुस्तकें मिलीं जैसे श्याम गडकरी ‘एकच प्याला’, वी शांताराम की ‘पिंजरा’, ‘श्याम ची आई’ । इन पर फिल्में भी बनी हैं ।

आज के हालात पर सटीक चित्रण करते हुए एक कविता ‘धर्मयुग’ में मैंने पढ़ी थी । जो कुछ इस तरह थी,

“गुजर गया पिछले दिनों बूढ़ा बाप,
छोड़ गया छिली खोपड़ी पर-

कर्जा सगोतियों को तेरहवीं खिलाने का’,
और (पूंजी)-टीन का टूटा बक्सा, ज्ञानेश्वरी दीमकखाई

एक दिन नींद में बमकने लगा, साहब-
वे पैसे का व्यापार दलाली करना,

नेता बनना, कुर्सी पर ऐसे बैठना कि जब तू उठे
कुर्सी भी उठी चली आए–

स्टेशन वाली सड़क पर अपना पुतला लगवाना’…..

उसी तरह, एक प्रसंग और याद आता है । विष्णु के ‘वराह’ अवतार के ऊपर । ‘वराह’ के रूप में जन्म ‘विष्ठा’ के लिए नहीं वरन् एक बड़े ध्येय के लिए (पृथ्वी बचाने के लिए) । सच तो यह है कि ‘पृथ्वी बचाना’ सांकेतिक है । ऐसे कार्य करने के लिए जिससे पृथ्वी पर रहने वालों के बीच परस्पर विश्वास और संतुलन बना रहे । खींच-तान एवं बेसुरापन कम हो । वैसे भी पाखंड बहुत दिन साथ नहीं देता ।

काशी विश्वविद्यालय में एक शिला पर अंकित है, “अणो अणीयाम”, महतो महीयाम्” तो यह वही काशी है जिसमें शंकराचार्य जी के “एकोहम” पर विवाद हुआ, तो ‘तत्वमसि’ और ‘सोहम’ । अर्थात आज स्टीफन हाकिंग जो कह रहे हैं वह हमारे धर्मग्रन्थों में बहुत पहले विद्यमान है । तो हिन्दू धर्म/संस्कृति को सनातन हम इसलिए कहते हैं कि इसमें ”तलछट होता रहता है नया पचाने की सामर्थ्य है और अपवर्ज्य को त्यागने की क्षमता है । यही इसकी नवीनता है । यही प्रकृति स्वामी चिन्मयानन्द जी ने “Suspension of impurities” से संबोधित किया है । यही गीता में बोधसत्व है । प्रकृति यही है । यही चिरंतन है और यही उन प्रसंगों का एक जवाब है जो राम मनोहर जी लोहिया एवं उनके साथी-संगियों ने प्रकट किए (संदर्भ : हिन्दू समाज का वैविध्य और हमारा अज्ञान” – नारायण दत्त – ‘प्रभात खबर, 23 अक्तूबर, 2007) ।

जिज्ञासुओं को ‘सत्यकाम वेदालंकार’ की ‘हिन्दू धर्म की विशेषताएँ’ पढ़नी चाहिए । एक समय पर जिस वस्तु की जरूरत रहती है, वह कालान्तर में नहीं भी रहती । अगर राजेन्द्र सिंह बेदी के शब्दों में थोड़ा फेर करके बोलूँ तो बुद्धिमान-समाज ‘मैल पर चादर’ डालेगी ही । कई समुदायों में पारंपरिक रीति-रिवाज आज भी कानून से ज्यादा सुदृढ़ हैं लेकिन भौगोलिक कारणों से (दूरी) एक समुदाय दूसरे समुदाय के बारे में तह तक नहीं जानता है । लोटे की तह और है और गागर की और । दक्षिण के हिन्दू झारखंड के, नागा और मिजो हिन्दुओं के लोकाचारों से ‘सच में हम’ अपरिचित रहते हैं । तो हम इस बात से सचेत रहें । लेकिन व्यापक हितों की रक्षा के लिए बाधाओं से उबरने के लिए भी संकल्प स्वच्छ रखने चाहिए । अपनी आवाज से भी ज्यादा गरिमा अंतरात्मा की आवाज को दें । वह समाज अभिशप्त हो जाता है अथवा हो जाने को बाध्य है जिसमें पढ़े लिखे, भले और समझदार व्यक्तियों को सम्मान नहीं दिया जाता हो । यही बात हजरत मोहम्मद साहब ने कही है । करीब-करीब यही गुरूओं ने कही है । जिसके पास ‘गुर’ नहीं वह गुरू नहीं । श्री तिल्वल्लुवर का कुरल एक महान ग्रंथ है । वहां हमें जीवन के ढंग जीने को मिलते हैं । अगर धर्म, अर्थ एवं काम सही-सलामत रहे तो, मोक्ष अपने आप मिलेगा ।
इसी क्रम में व्यावहारिक धरातल पर जीवन की सच्चाई डॉ. सेमुअल जान्सन ने उकेरी है । उनका कहना है कि ‘हमेशा अपना पैर ठोस जमीन पर रखो’ । जो तथ्यों की ठोस जमीन हो ।” जैसे माली फूलों/फलों के पेड़ों की देखभाल रखता है, Pruning समय-समय पर करता रहता है उसी प्रकार हमें अपने अंदर की उन आदतों को भी Prune करना है जो ठीक नहीं हैं ।

ईट्स W.B. ने भी अपने एक पद्य में “Byzantius” में कहा है कि “duty must be done though there may be none to see it or reward it” अपनी तरफ से आप अपने लिए, दूसरों के लिए अच्छा करते रहिए । कभी भी गलत पैर आगे न बढ़ाओ । keep your right foot forward.
शब्दों के पद में ही भाव निहित हैं जैसे साहब । अर्थात जिसकी सोहबत अच्छी हो । आसपास अच्छे सलाहकार हों । जिसकी सोहबत ही कुछ न हो वह तो बेकार है । ‘तुख्मे तासीर सोहबते असर’। सलीके जीने का अaalllllना चाहिए तो मरने का भी । जो अधिकांश अभी नहीं कर पा रहे ।
इसलिए संकल्प पवित्र रखिए तो ‘हार’ को भी ‘प्रहार’ में बदल पाएंगे ।
जीवन कोई यक्ष प्रश्न नहीं । बल्कि अपनी आदतों, दुराग्रहों से, हम हर वरदान को एक समस्या के रूप में क्यों देखने लगते हैं । क्या पता वरदान समस्या के रूप में ही हो । समय की महिमा है कि हर एक समस्या के चलते, दूसरी बड़ी समस्या आन पड़े तो पहली समस्या हल्की जान पड़ती है । ग्रीक नाटकों सरीखा यही “सोप ओपेरा” है और हम इतने मशगूल हैं या हो जाते हैं कि देखते-देखते ही इसका ‘पटाक्षेप’ हो जाता है ।

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