सामाजिक समरसता और मीडिया

डॉ. मनोज चतुर्वेदी-

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मीडिया में अब दलितों के सवालों को जगह मिलने लगी है। मीडिया संस्थानों को समझ आ रहा है कि दलितों की बात करने पर उनका माध्यम चर्चित होता है, इसलिए अब अधिक मात्रा में समाचार माध्यमों में दलितों की आवाज को जगह मिल रही है। आज भी भारत के किसी भी हिस्से में दलित विमर्श से जुड़े किसी भी समाचार-पत्र और पत्रिका की प्रसार संख्या 10 हजार से अधिक नहीं है। इसका मतलब यह नहीं है कि दलित साहित्य में अच्छा नहीं लिखा जा रहा है। महाराष्ट्र सहित अन्य प्रांतों में दलित साहित्य और अन्य लेखन में उत्कृष्ट कार्य हुआ है। 20-25 साल पहले पत्रकारिता के जो मूल्य थे, उनमें बदलाव आ गया है। पत्रकारिता को कैसे स्वस्थ रखना है? यह चुनौती आज हमारे सामने है। पत्रकारिता मिशन से हटी है, यह सच है लेकिन पत्रकारिता के वर्तमान चरित्र को ही पूरा दोष नहीं दिया जा सकता। स्वस्थ पत्रकारिता के लिए पत्रकारों को स्वयं पर अंकुश रखना जरूरी है। पत्रकारों को तमाम प्रलोभन दिए जाते हैं, उन्हें इनसे बचना है। पत्रकार जहां समझौता कर लेते हैं, फिर वहां स्वस्थ पत्रकारिता संभव नहीं रह जाती। उन्होंने कहा कि वर्तमान समय में खुद की सुरक्षा रखते हुए सामाजिक सरोकार के लिए पत्रकारिता करने का रास्ता पत्रकारों को खोजना चाहिए। दलित, वनवासी और पिछड़े समाज के लोगों में बरसों से उन पर हुए उत्पीडऩ को लेकर कुंठाएं हैं। लेकिन हमारे सामने सवाल है कि आखिर इन कुंठाओं में हम कब तक पड़े रहेंगे और इसमें हमारा भविष्य क्या है? अपनी बेहतरी के लिए हमें कुंठाएं छोड़कर रचनात्मक और सकारात्मक सोच के साथ आगे बढऩा चाहिए। सामाजिक समरसता लाने में महज दलितों का ही नहीं, वरन समाज के सभी वर्गों का शिक्षित होना जरूरी है।

शिक्षा सबके लिए जरूरी है, ऐसा बाबा साहब अम्बेडकर का स्पष्ट मानना था। बाबा साहब अम्बेडकर दुनिया के एकमात्र व्यक्ति हैं जिनके चरित्र पर आज तक कोई लांछन नहीं लगा है। उनका जीवन सदैव निष्कलंक बना रहा। शूद्र पहले सूर्यवंशी क्षत्रिय थे। जिस समाज को आज हम वंचित समाज कहते हैं वह कभी मुख्यधारा का समाज था। कुछ परिस्थितियां ऐसी बनी कि मुख्यधारा का समाज वंचित समाज हो गया। तथ्यों के आधार पर यह बात बाबा साहब अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक ‘शूद्र कौन हैं’ में लिखा है। बाबा साहब ने यह भी बताया है कि शूद्रों के गौत्र कई सवर्ण जातियों के गौत्र के ही समान हैं। मीडिया को इस तरह के तथ्यों को समाज के सामने लाने में अपनी महती भूमिका का निर्वहन करना चाहिए। ताकि आज जिसे हम वंचित समाज कह रहे हैं, उसमें स्वाभिमान का भाव जाग्रत हो। वंचित समाज के संबंध में अन्य समाज की धारणा भी बदले। सामाजिक समरसता के संदर्भ में मीडिया की भूमिका को समझने के लिए राष्ट्रगान की पंक्ति ‘जन-गण-मन अधिनायक’ को ध्यान में रखना चाहिए। राजनीति के संदर्भ को जोड़ते जब समाज को आगे बढ़ाने की तैयारी की है तब मीडिया यह विभाजन क्यों करता है कि किस सीट पर किस जाति के अधिक मतदाता हैं? यह उचित नहीं है। मीडिया को जाति के आधार पर मतदाता, उम्मीदवार और पार्टियों को नहीं बांटना चाहिए। आज युवा जिस तरह जातिवाद से ऊपर उठकर सोच रहा है, आगे बढ़ रहा है उसे देखकर कहा जा सकता है कि नए भारत का जो निर्माण होने वाला है, उसमें सब भारतीय ही होंगे। हर किसी की जाति सिर्फ भारतीय होगी। समरस भारत ही समृद्ध भारत बन सकता है।

बाबा साहब का मानना था कि प्रतिकूल परिस्थितियों में भारत से अलग होकर पाकिस्तान का निर्माण हुआ था। यह स्वाभाविक विभाजन नहीं था। इसलिए अनुकूल परिस्थितियां आने पर दोनों फिर से मिलकर अखण्ड भारत बन जाएंगे। पहली लोकसभा का चुनाव 1952 में हुआ था। उस समय दलित राजनीति कोई खास नहीं थी। दलितों व आदिवासियों में वोट की कीमत का अहसास नाममात्र ही था। हालांकि उस समय बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर जीवित थे, फिर भी इस समाज में जागृति का बड़ा अभाव था। डॉ. भीमराव अंबेडकर स्वयं भी चुनाव हारे। समय बीतने के साथ-साथ समाज में जागृति आती गई और दलित राजनीति का प्रादुर्भाव धीरे-धीरे आगे बढ़ना शुरू हुआ।

महाराष्ट्र में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया अस्तित्व में आई, लेकिन उसकी भी सफलता आंशिक ही रही। 1960 के दशक में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दलित-मुस्लिम गठजोड़ आंशिक रूप से ही सफल रहा। वर्ष 1993 में उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी व बहुजन समाज पार्टी के बीच गठबंधन से दलित राजनीति के एक नए युग की शुरुआत हुई। हालांकि यह अलग बात है कि यह गठबंधन बहुत दिनों तक नहीं चल पाया। इस संदर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि बहुजन समाज पार्टी ने एक नया प्रयोग किया और सवर्णों को भी उम्मीदवार बनाया गया। इसके पीछे सोच यही थी कि उनके अपने समाज का वोट तो है ही साथ में यदि उन्हें दलित समाज का भी वोट मिल जाता है तो निश्चित जीत की स्थिति में पहुंचा जा सकता है।

इस प्रकार उत्तर प्रदेश में दलित व सवर्ण समीकरण ने वर्ष 2007 में एक बड़ी सफलता की इबारत लिखी, लेकिन वह वर्तमान लोकसभा चुनावों में ढह गया। आज प्रश्न यह है कि क्या अकेले दलित वोटों से मुख्यधारा की राजनीति में आया जा सकता है और बिना राजनीतिक मुख्यधारा में आए क्या अपने पक्ष में नीतियां बनवाई जा सकती हैं?

दलितों ने व मीडिया ने इस बार भारतीय जनता पार्टी को प्रचंड समर्थन दिया। इनके झुकाव को बहुत सरलता से नहीं देखना चाहिए, बल्कि एक आशा और विश्वास इसके पीछे है। इस संदर्भ में नरेंद्र मोदी ने 20 मई को संसद में यह सही कहा कि लोगों ने वोट आशा और विश्वास को दिया है।

इस बार के लोकसभा चुनाव में दलित वोट भारतीय जनता पार्टी को ज्यादा मिला, इसलिए इसका फल भी उन्हें जरूर मिलना चाहिए। गत 2 मार्च की लखनऊ रैली में नरेंद्र मोदी ने कहा कि आने वाला दशक पिछड़ों, दलितों, आदिवासियों व वंचितों का होगा और इसका असर व्यापक तौर पर हुआ। देश के दलितों को मुख्यधारा की राजनीति में व मीडिया में भागीदारी देकर न केवल अपने राजनीतिक, बल्कि सामाजिक जनाधार को भी मजबूत करे, ताकि वह राष्ट्र निर्माण में और अधिक सशक्त भूमिका निभा सके।

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