सोसल साइट्स और वसुधैव कुटुबंकम की अवधारणा

विज्ञान और तकनीकी विकास के इस युग में कई आविष्कारों ने हमारे दैनिक जीवन में आवष्यक या अनावश्यक ढंग से घुसपैठ की है । कुछ ने लाभ पहुंचाए हैं तो कुछ ने नुकसान । कुछ के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता (रिसर्च चल रही है) । सोसल साइटस को हम ससम्मान ‘कुछ नहीं कहा जा सकता’ वाली श्रेणी में रखेंगे । कुछ वर्षों पूर्व तक यह अस्तित्वविहीन था और आज यह सर्वब्याप्त और सर्वसुलभ होकर मनुष्यमात्र की सुखानुभूति हेतु सेवारत है । इसकी ख्याति और दैवीय गुणों को देखते हुए देवगण भी आश्चर्यचकित होंगे और मनुष्यजाति से मन ही मन ईर्श्र्या कर रहे होंगे ।

क्या बच्चे और क्या बूढ़े कोई भी इसकी माया से अछूता नहीं । ए देश, जाति, धर्म, लिंग, रंग, आयु, सामाजिक-आर्थिक स्तर की सीमांओं से परे हो गया है और लोग पूरी समरसता के साथ इसका प्रयोग कर रहे हैं । नेताजी श्वेत वस्त्रों में हाथ जोड़े हुए, मोहिनी मुस्कान के साथ (ए मुस्कुरा क्यों रहे हैं, यह शोध का विषय है) जगह जगह जनसभाएं और शिलान्यास करते हुए; धार्मिक बन्धु पूजापाठ और धर्म का प्रचार (ढ़ोंग) करते हुए; प्रेमी जोड़े अपने प्रेम की नुमाइश करते हुए; समाजसेवी अपनी समाजसेवा का ढोल पीटते हुए; सबकुछ आपको यहां दिख जाएगा । बचपन के साथी, कुम्भ के मेले में बिछड़ा भाई, सालों पहले परदेशी हुआ साजन, चुनाव बाद गायब हुए नेताजी सब आपको यहीं मिलेंगे । कई भगोड़े और अंतर्राष्टीयकिस्म के असामाजिक तत्व जिन्हें कई मुल्कों की पुलिस भी नहीं ढूंढ पा रही है, समय समय पर अपने शांतिदूतों को संदेश देने यहां अवतरित होते रहते हैं । किसी को ढूंढने या फिर प्रचार के लिए किसी शारीरिक श्रम की आवश्यता नहीं बस ‘लाग इन’ करने या ‘अपलोड’ होने भर की देर है, दर्शकगण ‘आनलाइन’ ही मिलेंगे ।

सोसल साइट्स ने लोगों की बहुमुखी प्रतिभा को समझने और मंच प्रदान करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । ऐसे लोग जिनसे कभी गाय पर निबन्ध भी लिखते नहीं बना, सोसल साइट्स की कृपा से मुर्धन्य कवि और लेखक हो गये हैं । प्रतिदिन एक न एक कालम तो ‘चिपका’ ही देते हैं । ऐसे महानुभाव जिन्हें आप ‘कूप मंडूक’ ‘घोंचू’ या सभ्यतापूर्वक ‘इन्ट्रोवर्ट’ कह सकते हैं, भी ‘आनलाइन’ बहुत ‘लाइक’ किए जाते हैं और फेसबुक पर 2500 लोगों से ज्यादा की फ्रेंडलिस्ट रखते हैं । ए अलग बात है कि इन्हें अपने पड़ोसी का भी नाम पता नही है । कुछ लोग तो ऐसे हैं जिनके कभी किसी विषय में 35 प्रतिशत से ज्यादा अंक नहीं आए लेकिन सोसल साइटस की महिमा से बड़े शिक्षाविद हो गये हैं और ‘हाउ टू इम्प्रूव योर परफार्मेंस इन इक्जाम’ पर आर्टिकल्स की सिरीज पोस्ट कर रहे हैं । कहने का अर्थ बस इतना सा है कि लोग भांति भांति के कर्म में लीन हैं और मनोहर मुस्कान के साथ स्वयं को विज्ञापित कर स्वनामधन्य हो रहे हैं ।

सोसल साइट्स ने एक क्रांतिकारी और महत्वपूर्ण बात जो मानव समुदाय को सिखलाई वह है ‘पावर आफ शेयरिंग’। मानव समुदाय पहले इस कला में इतना सिद्धहस्त नहीं था । आप कल्पना करें कि आपनें आज के बीस वर्ष पूर्व विद्यालय में कोई मौलिक कविता लिखी होती । लिखने के बाद अघ्यापक महोदय को दिखाया होता । अघ्यापक महोदय ने ‘लय’, ‘छन्द’ ‘अलंकार’ नामक कठिन शब्दों के प्रयोग के साथ पचास गलतियां बता दीं होती (हालांकि उन्होनें स्वयं भी कभी कोई कविता नहीं लिखी होती थी) । आप निराश हो गये होते और आपकी प्रतिभा का फूल खिलने के पहले ही मुरझा गया होता । लेकिन सोसल साइट्स की असीम कृपा से आज ऐसा नहीं है । आप कविता लिखिए (गुणवत्ता की चिन्ता मत कीजिए, कितनी भी निम्नस्तरीय हो, चलेगी) और उसको ‘अपलोड’ कीजिए । आपको ‘लाइक’, ‘कमेंटस’ और ‘शेयर’ मिलेंगे । कई लोग तो बिना पढ़े भी ‘लाइक’ करेंगे ।

बच्चे को क्लास में ड्राइंग टीचर से मिला हुआ ‘वेरी गुड’, मौसी के लड़के के साथ खाये हुये गोलगप्पे, स्टाइलिश हेयरकट, सर्दी जुकाम की ‘गंभीर’ बीमारी, बच्चे की ‘पहली छींक’ या घर में हुई सत्यनारायण भगवान की कथा, ये सारी एतिहासिक महत्व की जानकारियां अब लोग छुपाते नहीं हैं, बल्कि ‘पोस्ट’ और ‘अपलोड’ करते हैं और पूरी दुनिया से ‘शेयर’ करते हैं ।

मित्रों, आप केवल कल्पना करें कि कक्षा तीन में पढ़ने वाला बच्चा, उसका भाई, बहन, स्कूल, मुहल्ला, शहर, प्रदेश, पूरा देश, संतरी से लेकर प्रधानमंत्री और सम्पूर्ण विश्व अगर किसी एक स्थान पर समागम कर रहे हैं तो वह सोसल साइट्स ही है । वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा यहां मूर्त रुप ले रही है । छोटी-छोटी बातों पर मरने-मारने के लिए तैयार लोग यहां ‘फ्रैंडशिप’ के लिए ‘रिक्वेश्ट’ कर रहे हैं । इस समागम में आप भी अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं । बस आपको ‘लाग इन’ करने और अपना समय देने की आवष्यकता है (अगर आपके पास है)।  

अपनी इन दैवीय विशेषताओं के साथ इसकी कुछ कमियां भी हैं, बस ठीक उसी तरह से जैसे चन्द्रमा में दाग । अभी हाल में ही रसियन लोगों के एक ग्रुप ने एक खेल इजाद किया और इसी सोसल साइट्स के माध्यम से प्रेसित और प्रचारित किया । खेल का नाम है ‘ब्ल्यू ळेल’। बाद में इसी जैसे और भी कई खेल अलग अलग नामों से आ गये । इन खेलों में बहुत मनोरंजक तरीकों से आपको अपना नश्वर जीवन त्यागने के लिए प्रेरित किया जाता है । दुर्भाग्यवश, विश्वभर में बहुत से लोग, जिनमें अधिकांश बच्चे हैं, इनके खेल को समझने में असफल रहे और असमय काल के शिकार हुए ।

ध्यान रखें, जीवन नश्वर है, लेकिन नष्ट होने के पहले तक मूल्यवान है; आपके लिए भी, आपके अपनों के लिए भी । वैसे भी नश्वर जीवन को नष्ट करने की इतनी बेचैनी क्यों ? वसुधैव कुटुम्बकम के महान विचार को वास्तविकता के धरातल पर लाने वाली सोसल साइट्स के प्रयोग में थोड़ी सावधानीयुक्त समझदारी का परिचय दें और इसे एन्टीसोसल होने से बचाएं ।

डा. प्रदीप याम रंजन

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