कोरोना का सामाजिक-आर्थिक प्रभाव

 कोरोना का सामाजिक-आर्थिक प्रभाव

डॉ. ज्योति सिडाना

हम सब जानते हैं कि आज कोरोना वायरस के कारण अपने अस्तित्व को बचाने के लिए पूरी दुनिया दहशत में है, वहीं परिवार संस्था भी इसकी चुनौती से अछूती नहीं रही। इस महामारी के प्रकोप के कारण सभी को अपने घरों में रहने की हिदायत दी गई यानी लॉकडाउन की स्थिति उत्पन्न हो गई। एक खबर के अनुसार इस लॉकडाउन के चलते चीन के शिचुआन प्रान्त में पति-पत्नी के बीच विवाद इतने बढ़ गए कि एक माह में 300 तलाक की अर्जी अदालत में दाखिल हुई। चीन की स्थानीय मीडिया के अनुसार कोरोना वायरस के खौफ के चलते लोग अब ज्यादातर वक्त घर पर रहने को मजबूर हो रहे हैं, इसके चलते पति-पत्नी में विवाद के मामले बढ़ने लगे हैं। भारत में भी इस तरह की अनेक घटनाए सामने आई जैसे कोरोना वायरस के चलते मुंबई में बड़े भाई ने छोटे भाई को चाकुओं से गोद दिया क्योंकि वह उसे लॉकडाउन के कारण बाहर जाने से मना कर रहा था पर छोटा भाई उसकी बात नहीं मान रहा था। दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ के बिलासपुर क्षेत्र में कोरोना वायरस के संक्रमण के डर से भाभी ने मायके आई नन्द को ताना मारा कि रोज-रोज यहाँ न आया करो। नन्द के यह कहने पर कि यह उसका मायका है वह तो आएगी तब भाभी ने उसकी पिटाई कर उसे लहूलुहान कर दिया। दिल्ली के एक सरकारी स्कूल की शिक्षिका ने अपनी सोसाइटी की 17वीं मंजिल से कूदकर आत्महत्या कर ली। वह महिला लॉक डाउन को लेकर तनाव में थी। नोएडा में टिक-टॉक वीडियो पे कुछ दिनों से लाइक न मिलने से परेशान एक 18 वर्षीय युवा ने पंखे से लटक कर आत्महत्या कर ली। वडोदरा में ऑनलाइन लूडो खेल में 24 वर्षीय पत्नी द्वारा पति को 3-4 बार हरा देने पर उसने अपनी पत्नी को इतना पीटा कि उसकी रीढ़ की हड्डी में चोट आ गई। उसे लगा कि उसकी पत्नी खुद को ज्यादा बुद्धिमान और स्मार्ट समझती है। यह कुछ ऐसी घटनाएं हैं जो सोचने पर मजबूर करती हैं कि क्या यह छोटी-छोटी बाते भी हत्या/आत्महत्या या झगड़े का कारण हो सकती हैं? आखिर इतने असहनशील क्यों और कैसे हो गए हम? 

          केवल इतना ही नहीं बल्कि न्यू यॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका में लॉकडाउन में बच्चे माता-पिता से परेशान होकर चिढ़-चिढ़े हो रहे हैं और कहना भी नहीं मानते, कहीं भाग जाना चाहते हैं। 24 घंटे साथ रहने पर मजबूर परिवारों में तनाव और  अवसाद बढ़ रहा है। अधिकांश लोगों के लिए लॉकडाउन केबिन फीवर (एक ही जगह पर फंस जाने से होने वाला तनाव) में बदल गया है। महिलाएं घर के काम में थक रही हैं और उनमें डिप्रेशन बढ़ रहा है। अधिकांश परिवारों में घर के कामों में पति भी मदद नहीं कर रहे और घर के सारे काम अकेले करने पड़ रहे हैं इससे तनाव कभी-कभी बहुत बढ़ जाता है और नकारात्मक विचार आने लगते हैं। जो विद्यार्थी होस्टल से घर लौटे हैं वे घर के वातावरण में एडजस्ट नहीं हो पा रहे इससे घर में बहस और झगड़े बढ़ रहे हैं।

वहीं भारत में राष्ट्रीय महिला आयोग (NCW) को पिछले 18 दिनों में घरेलू हिंसा की 123 शिकायतें मिली हैं, जिसमें पैनल ने कहा है कि लॉकडाउन के दौरान ऐसे मामलों में वृद्धि देखी जा रही है। एनसीडब्ल्यू द्वारा हाल ही में साझा किए गए आंकड़ों के अनुसार, 23 मार्च से 10 अप्रैल तक,महिलाओं की समस्याओं से सम्बन्धित कुल 370 शिकायतें प्राप्त हुईं जिनमे से सबसे ज्यादा यानी 123 घरेलू हिंसा की थीं। कल्पना कीजिये कि ये ऐसे मामले हैं जो ऑनलाइन रिपोर्ट हुए क्योंकि लॉकडाउन की स्थिति बनी हुई है और जो ऑनलाइन तकनीक से परिचित न होने के कारण अभी तक रिपोर्ट नहीं कर पाए उनका क्या? इसलिए वर्तमान स्थिति में स्वास्थ्य समस्याओं पर चिंतन के साथ-साथ इन घटनाओं पर भी चिंतन की आवश्यकता है। जैसे यह कथन सच है कि ‘जान है तो जहान है’ वैसे ही यह भी उतना ही सच है कि ‘सामाजिक सम्बन्ध बचेंगे तो समाज बचेगा’।

          ऐसा सुनते आए हैं कि समाज/परिवार में साथ रहने से प्यार और भावनात्मक निकटता बढ़ती है परन्तु यह घटनाएं तो कुछ और ही सिद्ध कर रही हैं। मनुष्य इतना एकाकी और अलगावित हो गया है कि अब वह किसी के साथ भी नहीं रहना चाहता या रह सकता। उसकी निर्भरता मशीनों पर इतनी बढ़ गई है कि अब उसे मानव की जरुरत नहीं। मनुष्य में सहनशीलता, भावनात्मक निकटता, एक दूसरे के प्रति प्रेम, सम्बन्धों का महत्त्व, उनके प्रति जिम्मेदारी का भाव सब कुछ समाप्त हो गया है। आप उसे अकेले एक कमरे में रख दीजिए शायद तब वह परेशान नहीं होगा जितना वह परिवार के साथ बंद होने से परेशान है। सवाल उठता है कि क्या आज भी यह तर्क दिया जा सकता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है?                                               

इसी तरह अगर बच्चों की बात करे तो लॉकडाउन के शुरूआती दौर में तो बच्चे छुटियों को एन्जॉय कर रहे थे फिर धीरे-धीरे घर में कैद रहने जैसी फीलिंग अनुभव करने लगे, ऑनलाइन गेम खेलना, टी।वी। देखना, खाना-पीना और सोना बस जिन्दगी इतने तक सीमित होने लगी। न दोस्तों से मिलना, न घर से बाहर निकलना और घर पर सारा दिन माता-पिता के अनुसार काम करने या निर्देश में चलने की बाध्यता ने बच्चों में गुस्सा, आक्रामकता, चिढ़चिढ़ापन भर दिया। आज के दौर की पीढ़ी को ‘पर्सनल स्पेस’ की आदत होती है जो उन्हें उच्च वर्गीय और अधिकांश मध्य वर्गीय परिवारों में मिल ही जाता है। इसलिए उन्हें अपने निर्णय खुद लेने और उनके निर्णयों में किसी का हस्तक्षेप करने की आदत सहन नहीं होती। अनेक अध्ययनों में यह देखा गया है कि जब से बच्चों की आधुनिक टेक्नोलॉजी पर निर्भरता बढ़ी है उन्हें किसी और का साथ अच्छा नहीं लगता। वे अपना अधिकांश समय मोबाइल, कंप्यूटर, आई-पोड के साथ बिताते हैं या कहें कि उन्हें वास्तविक दुनिया की जगह आभासी दुनिया (वर्चुअल विश्व) में रहना अधिक पसंद आता है। और यही कारण है कि जब लॉकडाउन के दौरान इन बच्चों को अपने परिवार के साथ 24 घंटे रहना पड़ रहा है वो भी अनिश्चित काल के लिए तो बच्चे परिवारों में एडजस्ट नहीं कर पा रहे। परिणामस्वरुप उनके व्यवहार में नकारात्मक प्रवृत्तियाँ उभरती देखी जा सकती हैं।                         

दूसरी तरफ यह भी एक तथ्य है कि कोरोना के प्रहार से अर्थव्यवस्था भी अछूती नहीं रह सकती। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत के असंगठित क्षेत्र के लगभग 40 करोड़ से अधिक श्रमिको पर इस लॉकडाउन का प्रभाव पड़ सकता है। रिपोर्ट के अनुसार भारत भी नाइजीरिया और ब्राजील के साथ उन देशों में शामिल है, जो इस महामारी से उत्पन्न होने वाली स्थितियों से निपटने के लिए अपेक्षाकृत सबसे कम तैयार थे। ऐसे में इन देशों में बेरोजगारी और गरीबी के आंकड़ों में व्यापक वृद्धि होने की सम्भावना से इंकार किया जा सकता। ऐसे भी कई उदाहरण सामने आये हैं कि लॉकडाउन के बाद उभरने वाली महामंदी के दौर को ध्यान में रखते हुए कई पश्चिमी देशों ने अपने यहाँ काम करने वाले भारतियों/एशियाई लोगों को नौकरी से हटाने के प्रयास शुरू कर दिए हैं। संयुक्त राष्ट्र ने भी हाल ही में कहा था कि दुनियाभर में ढाई करोड़ से अधिक नौकरियां जा सकती हैं। एक मीडिया की रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली में एक अंतरराष्ट्रीय ट्रेवल कंपनी ने कोरोना के कहर के चलते तीन सौ से अधिक कर्मचारियों को टर्मिनेशन नोटिस भेजा है। कोरोना संकट से निपटने के बाद अभी पारिवारिक, सामाजिक और आर्थिक संकट से निपटने के लिए भी तैयार होने की आवश्यकता है।

          यह सोचने का विषय है कि प्रकृति की एक चुनौती ने मानव समाज के सामने संकटों का अम्बार लगा दिया अब देखना यह है कि मानव इन सबसे कैसे उबरता है? साथ ही उत्तर-कोविड समाज कैसा होगा, लोगों के व्यवहार या व्यक्तित्व में क्या बदलाव आएगा, अर्थव्यवस्था पर क्या असर पड़ेगा इत्यादि गहन चिंता का विषय हैं ।     

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