धर्म से जुड़ी कुछ विसंगतियां

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बीनू भटनागर

आस्था, विश्वास ,अंधविश्वास ,संस्कार, संसकृति ,परम्परा, आध्यात्म और धर्म तथा ऐसे ही कुछ और शब्द आपस मे बहुत उलझे हुए हैं। मै इन शब्दों की परिभाषा नहीं कर रही हूँ बल्कि इन उलझे हुए शब्दों को सुलझाने का प्रयास करना चाहती हूँ। इन शब्दों में कुछ समानताएं होते हुए भी ये व्यापक अर्थ मे बहुत अलग हैं। इस कोशिश मे धर्म से जुड़ी कुछ विसंगतयाँ सामने प्रकट होने लगीं।

परम्पराओं का निर्वाह करने से संस्‍कृति पनपती है, परन्तु बिना सोचे समझे परम्पराओं को निभाते रहने से अंधविश्वासों का भी जन्म होने लगता है। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि कुछ फ़िज़ूल की परम्परायें नहीं निभाई तो संस्कृति नष्ट हो जायेगी। संसक़ृति तो सदैव पनपती है ,उसका विस्तार छोटी मोटी परम्पराओं को त्यागने से नहीं रुकता। कोई व्रत उपवास या कोई अन्य धार्मिक क्रियाकलाप नहीं किया तो कुछ अनर्थ हो जायेगा केवल भ्रम है, इसी सोच के कारण अंधविश्वास आरंभ होते है।

उत्तर भारत मे सौभाग्यवती महिलायें करवाचौथ का व्रत करती है। ये हिन्दू धर्म से जुड़ा है, पर वास्तव में यह धर्म का नहीं संस्कृति का हिस्सा है। इस व्रत को करने मे कोई नुकसान नहीं है ,पर नहीं किया तो भी संसकृति नष्ट होने का कोई ख़तरा नहीं है। करवाचौथ की पूजा में एक कहानी भी सुनाई जाती है, इसमे बताया जाता है कि एक सुहागिन स्त्री के भाइयों ने उसका व्रत चन्द्रमा निकलने से पहले ही खुलवा दिया तो उसके पति की मृत्यु हो गई।

एक वर्ष तक वो शव के साथ बैठी रही, अगले वर्ष जब पूरे विधिविधान से उसने यह व्रत किया तो उसके पति को जीवन दान मिला। ये कहानी महिलाये हर वर्ष सुनती हैं। इसका असर भी कहीं न कहीं उनकी सोच और मानसिकता पर पड़ता है। एक डर बैठ जाता है कि यह व्रत करना उनके लियें बेहद ज़रूरी है। स्वास्थ्य या किसी अन्य कारण से यदि व्रत नहीं कर सकीं तो उन्हें डर और अपराधबोध दोनों सताते हैं। इस परम्परा को सांस्कृतिक महत्व के लियें निभाया जाय तो ठीक है, परन्तु इससे जुड़ी मान्यता का कोई महत्व नहीं है ,उसे मन से निकालना बहुत आवश्यक है।

आस्था एक नितान्त निजी अनभूति है ,जो व्यक्ति की आध्यात्मिकता से जुड़ी होती है। आध्यात्म मनुष्य को अपने कारात्मक संवेगों और विचारों को नियंत्रण मे रखने मे मदद करता है। कोई भी कला जैसे संगीत, नृत्य, चित्रकला या मूर्तिकला किसी के आध्यात्मिक स्तर को छू सकती है। योग और ध्यान भी आध्यात्मिक विकास मे सहायक होते है।

आस्था किसी मे भी हो सकती है, प्रकृति मे ,किसी विशेष मन्दिर मे या निरंकार परमात्मा में। आस्था जब सामाजिक व्यवहार हो जाती है वह परम्परा का रूप लेने लगती है ,उसका रूप ही बदल जाता है। कीर्तन सत्संग या कोई और सामूहिक पूजा केवल सामाजिक और सांसकृतिक व्यवहार रह जाते है, आस्था खो जाती है।

टैलिविज़न पर बहुत से चैनल हैं जो प्रवचन भजन करते रहते हैं। इनमे क्या ग्रहण करने लायक है, क्या नहीं यह व्यक्ति के अपने विवक पर निर्भर है। अधिकतर तो ये अंधिश्वास ही फैला रहे हैं और पूर्ण रूप से व्यावसायिक हैं।

हर जड़ चेतन का उद्गम प्रकृति से ही होता है। प्रकृति ही पूरे ब्रम्हाण्ड का संचालन कर रही है। यही वह शक्ति है जिसे निराकार ब्रम्ह,परमात्मा या कुछ और भी नाम दे सकते हैं। सृष्टि का निर्माण इसी शक्ति ने किया और पालन भी कर रही है।सृजन और विनाश के चक्र भी इसी के अधीन हैं। जैसे जैसे मनुष्य की जिज्ञासा प्रकृति के प्रति बढ़ती गई उसने उसे मूर्त रूप देने की कोशिश की, सू्र्य वायु और अग्नि की पूजा शुरू हो गई।धीरे धीरे और देवी देवताओं की कल्पना करके उनको पूजा जाने लगा। संभवतः ऐसे ही हिन्दू धर्म की नीव पड़ी होगी। हिन्दू धर्म कब शुरू हुआ, कैसे शुरू हुआ इसकी सही जानकारी किसी को नहीं है,सब अनुमान ही हैं। कालान्तर मे बहुत से महापुरुषों ने पृथ्वी पर जन्म लिया जिन्होंने इस्लाम, सिख, ईसाई, बौद्ध तथा जैन सहित कई धर्मो की स्थापना की।

सभी धर्मो के मूलभूत सिद्धान्त बहुत अलग नहीं थे,केवल कार्यकलाप व रीति रिवाज अलग थे।जीवन जीने की शैलियाँ अलग थीं ।समाज धार्मिक वर्गों मे बंट गया। मेरा धर्म तुम्हारे धर्म से बहतर है, मेरा भगवान तुम्हारे वाले से बड़ा है, जैसे विचार पनपने लगे। इसी सोच से कट्टरवाद का जन्म हुआ। दूसरों के प्रति असहिष्णुता बढ़,ने लगी, जबकि सबका मालिक एक ही है। इस प्रकार देखा जाय तो धर्म कुछ भी नहीं है,केवल संसकृति है, जीने का तरीका है। हिन्दू आरती करते है, मुसलमान नमाज़ पढ़ते है ,सिख गुरुद्वारे मे शबद कीर्तन करते हैं और ईसाई चर्च मे प्रार्थना करते हैं पर मकसद तो सबका एक ही है, अपने ईश से जुड़ना, जो निर्माता है इस पूरे ब्रम्हाण्ड का।

कभी कुछ अवसरवादी लोग धार्मिक भावनाओं को उकसाकर अपने प्रभावशाली व्यक्तित्व के चलते लोगों को गुमराह कर देते हैं, कि वो उनकी बात बिना सोचे समझे मानते जाते है, यह उनका धर्म बन जाता है।ऐसी ही स्थिति आतँकवाद को जन्म देती है। किसी भी धर्म का आतँकवाद से जुड़ना उस धर्म के लियें शर्मनाक हो जाता है। कुछ लोगों की करनी का भुगतान कभी कभी समुदाय के और लोगों को भी करना पड़ सकता है। आतँकवादी का लगभग ब्रेनवाश हो चुका होता है। वह नहीं जानता कि वह क्या कर रहा है और क्यों कर रहा है, मानवता पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा। बस ,किसी ने उकसाया और उसने गोला बारूद और बन्दूक हाथ मे उठा लिये। कौन से धर्म के संस्थापक ने ऐसी सीख दी थी।

आस्था का ज़िक्र करते हुए मैने कहा था कि आस्था किसी मे भी हो सकती है ,किसी तीर्थ मे ,किसी मन्दिर विशेष मे ,किसी धार्मिक चिन्ह मे या किसी धार्मिक पुस्तक मे। आस्था से व्यक्ति को कठिन समय मे सहारा मिलता है, शक्ति मिलती है, जिससे वह मुश्किल समय गुज़र जाता है। सभी लोग किसी धार्मिक स्थल मे आस्था रखें ज़रूरी नहीं है। कई लोग जो सदाचार, शिष्टाचार, ईमानदारी से कर्तव्यनिष्ट होकर जीते हैं, वो कहीं आस्था न होते हुए भी धार्मिक होते हैं, क्योंकि वो अधर्म कर ही नहीं सकते।

धार्मिक स्थलों मे यदि वातवरण शांत हो, भक्ति संगीत गूँजता हो, तो वहाँ पर अपने इष्ट यानि जिसमे आपकी आस्था हो, उसमे ध्यान लगाने से मन को शांति मिल सकती है। अपने इष्ट से गुहार लगाता अपार जन समूह जब किसी धार्मिक स्थल पर पंहुचने लगता है तो कुछ समस्याये शुरू हो जाती हैं। लम्बी लम्बी कतारें लगने लगती हैं, कुछ वी. आई.पी. कतारें होती हैं, कुछ ख़रीदी हुई और कुछ मुफ़्त की। आप कौन सी कतार मे हैं इस पर निर्भर करेगा कि कितनी देर आपको ईश स्थल तक पंहुचने मे लगे। क्षण भर को मूर्ति के दर्शन होते हैं। वातावरण भी व्यावसायिक हो जाता है। अपराध और गंदगी भी फैलती है। जेब कटने का ख़तरा बना रहता है। कभी कभी भगदड़ भी हो जाती है जो ख़तरनाक भी हो सकती है। मूर्ति तक पंहुचने के लिए बस अपने को सम्हालते रह जाते हैं। ऐसे मे ईश स्थल पर दर्शन का महत्व ही लुप्त हो जाता है। मन एकाग्र हुए बिना मन शांत भी नहीं होता। इस प्रकार के भागते दौड़ते दर्शन से आध्यात्मिक स्तर पर भी कोई प्रभाव नहीं पड़ता। बस, सब जाते है तो हम भी हो आते है, संभव है कुछ लाभ मिल जाय। इससे बहतर है कि अपने घर के किसी शांत कोने मे बैठकर अपने इष्ट मे ध्य़ान लगायें, वह तो सब जगह विद्यमान है, उसको महसूस करने की जरूरत है।

आध्यात्मिकता की तलाश मे मन्दिरों और मस्जिदों मे भटकने की भी ज़रूरत नहीं है। किसी मासूम बच्चे की मुस्कुराहट मे, झरने की कलकल ध्वनि मे, पक्षियों के कलरव में, सूर्योदय की लालिमा मे या किसी असहाय की मदद करने भी आध्यात्मिक अनुभूति मिल सकती है।

धर्म के साथ अंधविश्वास भी पनपते है। धार्मिक मान्यताओं को अनदेखा करने से अनर्थ होता है, ऐसा कुछ भी नहीं होता। जीवन मे जो होना है वह होता रहता है। विपरीत परिस्थितियों मे अपना विवेक और संतुलन बनाये रखकर उस समय को कैसे पार करना है यही महत्वपूर्ण है।

ईश्वर को तो धन की आवश्यकता नही होती। मन्दिरो मे बहुत सा अनुदान या चढ़ावा आता है। धार्मिक स्थानो की स्वच्छता और कुशल प्रबंधन के लियें भक्त कुछ अनुदान दें वह तो उचित है, पर कुछ विशेष मन्दिरों मे जिनकी मान्यता बहुत है ,हज़ारो करोड़ रुपयों, सोना चाँदी और हीरों का अनुदान आता है। मन्दिरों के ट्रस्ट इस धन का बहुत छोटा सा भाग कल्याणकारी कामो और प्रबंधन पर ख़र्च करते हैं। मू्र्तियों पर, सिहांसनो पर और छतरियों पर सोना चाँदी मंढ़ दिया जाता है। शेष धन मन्दिरों के कोषों मे पडा़ रहता है या उसक अनुचित उपयोग होता है। भक्त भी अपने काले धन का एक छोटा हिस्सा मन्दिर मे देकर अपने अपराधबोध को कम करने की कोशिश करते है। क्या यह सही है ?

धार्मिक अवसरों को सामाजिक और सांसकृतिक उतसवो के रूप मे मनाने की प्रथा भी हर समाज और धर्म मे होती है। दुर्गा पूजा, भगवती जागरण या कोई धार्मिक यात्रा हो, इनका महत्व केवल सामाजिक और सांस्कृतिक होता है। ये धर्म से जुड़े अवश्य़ होते है, पर इनका आध्यात्मिक दृष्टि से कोई महत्व नहीं है। इन त्योहारों से मनोरंजन भी होता है, जीवन की एकरसता भंग होती है, मिलना जुलना भी हो जाता है। इन आयोजनों को करते समय कुछ सावधानियाँ रखनी चाहिये, शोर अधिक न हो ,जिससे आसपास मे रहने वालों को कोई कठिनाई हो, बाद में उस स्थान की सफाई करवा कर उसे छोड़ना चाहिये। यातायात के नियमो का पालन भी करन ज़रूरी है। धर्म से जुड़े मामले संवेदनशील होते है इसलियें इन उत्सवों और त्यौहारों को मनाते समय संयम और सहिष्णुता ज़रूरी है।

हर धर्म के अनुयायियों को धर्म से जुड़ी विसंगतियों को कम करने का प्रयास करना चाहिये। अंधविश्वास को पनपने से रोकना भी जरूरी है। कट्टरवाद से बचकर संयम और सहअस्तित्व में विश्वास रखकर जीने की आवश्यकता है। हर धर्म को इस कसौटी पर खरा उतरना होगा।

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बीनू भटनागर
मनोविज्ञान में एमए की डिग्री हासिल करनेवाली व हिन्दी में रुचि रखने वाली बीनू जी ने रचनात्मक लेखन जीवन में बहुत देर से आरंभ किया, 52 वर्ष की उम्र के बाद कुछ पत्रिकाओं मे जैसे सरिता, गृहलक्ष्मी, जान्हवी और माधुरी सहित कुछ ग़ैर व्यवसायी पत्रिकाओं मे कई कवितायें और लेख प्रकाशित हो चुके हैं। लेखों के विषय सामाजिक, सांसकृतिक, मनोवैज्ञानिक, सामयिक, साहित्यिक धार्मिक, अंधविश्वास और आध्यात्मिकता से जुडे हैं।

1 COMMENT

  1. लेखिका ने बड़ी विद्वता के साथ आस्था ,विश्वास ,
    अंधविश्वास और धर्मं पर प्रकाश डाला है . उनकी
    सभी बातें अनुकरणीय हैं .

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